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Mahashivratri 2025: महाशिवरात्रि और शिवरात्रि में क्या है अंतर?

Mahashivratri 2025: Maha Shivratri 2025 और Shivratri दोनों ही Lord Shiva को समर्पित हैं, लेकिन Maha Shivratri का महत्व Shivratri से अधिक है। Maha Shivratri Festival साल में एक बार आता है और इसे Lord Shiva’s Most Important Festival माना जाता है, जबकि Shivratri हर महीने पड़ती है।
Maha Shivratri vs. Shivratri – Key Differences
1.Shivratri: यह हर महीने Krishna Paksha Chaturdashi Tithi को आती है, इसलिए इसे Masik Shivratri भी कहा जाता है।
Maha Shivratri: यह साल में एक बार, Phalgun Month Krishna Paksha Chaturdashi Tithi को आती है।
2. Shivratri: यह Lord Shiva Puja and Worship का एक सामान्य दिन है।
Maha Shivratri: यह Lord Shiva’s Most Significant Festival है। इसे Lord Shiva and Goddess Parvati Marriage के रूप में भी मनाया जाता है। इसका महत्व Shivratri से अधिक माना गया है।
3. Shivratri: इस दिन Lord Shiva’s Regular Puja की जाती है।
Maha Shivratri: इस दिन Special Shiva Puja की जाती है। रात्रि के चारों प्रहरों में Shiva Worship Rituals का विधान है। इस दिन Fasting, Vrat, and Night Jagran का विशेष महत्व है।
4. Shivratri: हर महीने आने वाली Shivratri को Lord Shiva’s Blessings प्राप्त करने का विशेष दिन माना जाता है।
Maha Shivratri: Maha Shivratri Night को Lord Shiva and Goddess Parvati Divine Union की रात माना जाता है। इस रात Lord Shiva अपने भक्तों को विशेष आशीर्वाद देते हैं।
5. Shivratri: यह Devotion and Dedication to Lord Shiva प्रकट करने का एक अवसर है।
Maha Shivratri: यह Lord Shiva’s Power and Glory का प्रतीक है। यह हमें Bhakti, Sacrifice, and Renunciation का संदेश देता है।

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श्री राम चरित मानस(Shri Ram Charit Manas) श्री राम चरित मानस - लङ्काकाण्ड श्री गणेशाय नमः श्री जानकीवल्लभो विजयते श्री रामचरितमानस षष्ठ सोपान (लङ्काकाण्ड) रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्। मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम् ॥ 1 ॥ शङ्खेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं कालव्यालकरालभूषणधरं गङ्गाशशाङ्कप्रियम्। काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शङ्करम् ॥ 2 ॥ यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम्। खलानां दण्डकृद्योऽसौ शङ्करः शं तनोतु मे ॥ 3 ॥ दो. लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चण्ड। भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु कोदण्ड ॥ सो. सिन्धु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ। अब बिलम्बु केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु ॥ सुनहु भानुकुल केतु जामवन्त कर जोरि कह। नाथ नाम तव सेतु नर चढ़इ भव सागर तरिहिम् ॥ यह लघु जलधि तरत कति बारा। अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा ॥ प्रभु प्रताप बड़वानल भारी। सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी ॥ तब रिपु नारी रुदन जल धारा। भरेउ बहोरि भयु तेहिं खारा ॥ सुनि अति उकुति पवनसुत केरी। हरषे कपि रघुपति तन हेरी ॥ जामवन्त बोले दौ भाई। नल नीलहि सब कथा सुनाई ॥ राम प्रताप सुमिरि मन माहीं। करहु सेतु प्रयास कछु नाहीम् ॥ बोलि लिए कपि निकर बहोरी। सकल सुनहु बिनती कछु मोरी ॥ राम चरन पङ्कज उर धरहू। कौतुक एक भालु कपि करहू ॥ धावहु मर्कट बिकट बरूथा। आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा ॥ सुनि कपि भालु चले करि हूहा। जय रघुबीर प्रताप समूहा ॥ दो. अति उतङ्ग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ। आनि देहिं नल नीलहि रचहिं ते सेतु बनाइ ॥ 1 ॥ सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कन्दुक इव नल नील ते लेहीम् ॥ देखि सेतु अति सुन्दर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना ॥ परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहिं बरनी ॥ करिहुँ इहाँ सम्भु थापना। मोरे हृदयँ परम कलपना ॥ सुनि कपीस बहु दूत पठाए। मुनिबर सकल बोलि लै आए ॥ लिङ्ग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा ॥ सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा ॥ सङ्कर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ मति थोरी ॥ दो. सङ्कर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास। ते नर करहि कलप भरि धोर नरक महुँ बास ॥ 2 ॥ जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिम् ॥ जो गङ्गाजलु आनि चढ़आइहि। सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि ॥ होइ अकाम जो छल तजि सेइहि। भगति मोरि तेहि सङ्कर देइहि ॥ मम कृत सेतु जो दरसनु करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही ॥ राम बचन सब के जिय भाए। मुनिबर निज निज आश्रम आए ॥ गिरिजा रघुपति कै यह रीती। सन्तत करहिं प्रनत पर प्रीती ॥ बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयु उजागर ॥ बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई। भे उपल बोहित सम तेई ॥ महिमा यह न जलधि कि बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कि करनी ॥ दो0=श्री रघुबीर प्रताप ते सिन्धु तरे पाषान। ते मतिमन्द जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन ॥ 3 ॥ बाँधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा। देखि कृपानिधि के मन भावा ॥ चली सेन कछु बरनि न जाई। गर्जहिं मर्कट भट समुदाई ॥ सेतुबन्ध ढिग चढ़इ रघुराई। चितव कृपाल सिन्धु बहुताई ॥ देखन कहुँ प्रभु करुना कन्दा। प्रगट भे सब जलचर बृन्दा ॥ मकर नक्र नाना झष ब्याला। सत जोजन तन परम बिसाला ॥ ऐसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं। एकन्ह कें डर तेपि डेराहीम् ॥ प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे। मन हरषित सब भे सुखारे ॥ तिन्ह की ओट न देखिअ बारी। मगन भे हरि रूप निहारी ॥ चला कटकु प्रभु आयसु पाई। को कहि सक कपि दल बिपुलाई ॥ दो. सेतुबन्ध भि भीर अति कपि नभ पन्थ उड़आहिं। अपर जलचरन्हि ऊपर चढ़इ चढ़इ पारहि जाहिम् ॥ 4 ॥ अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई। बिहँसि चले कृपाल रघुराई ॥ सेन सहित उतरे रघुबीरा। कहि न जाइ कपि जूथप भीरा ॥ सिन्धु पार प्रभु डेरा कीन्हा। सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा ॥ खाहु जाइ फल मूल सुहाए। सुनत भालु कपि जहँ तहँ धाए ॥ सब तरु फरे राम हित लागी। रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी ॥ खाहिं मधुर फल बटप हलावहिं। लङ्का सन्मुख सिखर चलावहिम् ॥ जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं। घेरि सकल बहु नाच नचावहिम् ॥ दसनन्हि काटि नासिका काना। कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना ॥ जिन्ह कर नासा कान निपाता। तिन्ह रावनहि कही सब बाता ॥ सुनत श्रवन बारिधि बन्धाना। दस मुख बोलि उठा अकुलाना ॥ दो. बान्ध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिन्धु बारीस। सत्य तोयनिधि कम्पति उदधि पयोधि नदीस ॥ 5 ॥ निज बिकलता बिचारि बहोरी। बिहँसि गयु ग्रह करि भय भोरी ॥ मन्दोदरीं सुन्यो प्रभु आयो। कौतुकहीं पाथोधि बँधायो ॥ कर गहि पतिहि भवन निज आनी। बोली परम मनोहर बानी ॥ चरन नाइ सिरु अञ्चलु रोपा। सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा ॥ नाथ बयरु कीजे ताही सों। बुधि बल सकिअ जीति जाही सोम् ॥ तुम्हहि रघुपतिहि अन्तर कैसा। खलु खद्योत दिनकरहि जैसा ॥ अतिबल मधु कैटभ जेहिं मारे। महाबीर दितिसुत सङ्घारे ॥ जेहिं बलि बाँधि सहजभुज मारा। सोइ अवतरेउ हरन महि भारा ॥ तासु बिरोध न कीजिअ नाथा। काल करम जिव जाकें हाथा ॥ दो. रामहि सौपि जानकी नाइ कमल पद माथ। सुत कहुँ राज समर्पि बन जाइ भजिअ रघुनाथ ॥ 6 ॥ नाथ दीनदयाल रघुराई। बाघु सनमुख गेँ न खाई ॥ चाहिअ करन सो सब करि बीते। तुम्ह सुर असुर चराचर जीते ॥ सन्त कहहिं असि नीति दसानन। चौथेम्पन जाइहि नृप कानन ॥ तासु भजन कीजिअ तहँ भर्ता। जो कर्ता पालक संहर्ता ॥ सोइ रघुवीर प्रनत अनुरागी। भजहु नाथ ममता सब त्यागी ॥ मुनिबर जतनु करहिं जेहि लागी। भूप राजु तजि होहिं बिरागी ॥ सोइ कोसलधीस रघुराया। आयु करन तोहि पर दाया ॥ जौं पिय मानहु मोर सिखावन। सुजसु होइ तिहुँ पुर अति पावन ॥ दो. अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कम्पित गात। नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात ॥ 7 ॥ तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई ॥ सुनु तै प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना ॥ बरुन कुबेर पवन जम काला। भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला ॥ देव दनुज नर सब बस मोरें। कवन हेतु उपजा भय 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यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा। उभय प्रकार सुजसु जग तोरा ॥ सुत सन कह दसकण्ठ रिसाई। असि मति सठ केहिं तोहि सिखाई ॥ अबहीं ते उर संसय होई। बेनुमूल सुत भयहु घमोई ॥ सुनि पितु गिरा परुष अति घोरा। चला भवन कहि बचन कठोरा ॥ हित मत तोहि न लागत कैसें। काल बिबस कहुँ भेषज जैसेम् ॥ सन्ध्या समय जानि दससीसा। भवन चलेउ निरखत भुज बीसा ॥ लङ्का सिखर उपर आगारा। अति बिचित्र तहँ होइ अखारा ॥ बैठ जाइ तेही मन्दिर रावन। लागे किन्नर गुन गन गावन ॥ बाजहिं ताल पखाउज बीना। नृत्य करहिं अपछरा प्रबीना ॥ दो. सुनासीर सत सरिस सो सन्तत करि बिलास। परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास ॥ 10 ॥ इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा। उतरे सेन सहित अति भीरा ॥ सिखर एक उतङ्ग अति देखी। परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी ॥ तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए ॥ ता पर रूचिर मृदुल मृगछाला। तेहीं आसान आसीन कृपाला ॥ प्रभु कृत सीस कपीस उछङ्गा। बाम दहिन दिसि चाप निषङ्गा ॥ दुहुँ कर कमल सुधारत बाना। कह लङ्केस मन्त्र लगि काना ॥ बड़भागी अङ्गद हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना ॥ प्रभु पाछें लछिमन बीरासन। कटि निषङ्ग कर बान सरासन ॥ दो. एहि बिधि कृपा रूप गुन धाम 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कठोरा ॥ कहत बिभीषन सुनहु कृपाला। होइ न तड़इत न बारिद माला ॥ लङ्का सिखर उपर आगारा। तहँ दसकङ्घर देख अखारा ॥ छत्र मेघडम्बर सिर धारी। सोइ जनु जलद घटा अति कारी ॥ मन्दोदरी श्रवन ताटङ्का। सोइ प्रभु जनु दामिनी दमङ्का ॥ बाजहिं ताल मृदङ्ग अनूपा। सोइ रव मधुर सुनहु सुरभूपा ॥ प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना। चाप चढ़आइ बान सन्धाना ॥ दो. छत्र मुकुट ताटङ्क तब हते एकहीं बान। सबकें देखत महि परे मरमु न कोऊ जान ॥ 13(क) ॥ अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आइ निषङ्ग। रावन सभा ससङ्क सब देखि महा रसभङ्ग ॥ 13(ख) ॥ कम्प न भूमि न मरुत बिसेषा। अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा ॥ सोचहिं सब निज हृदय मझारी। असगुन भयु भयङ्कर भारी ॥ दसमुख देखि सभा भय पाई। बिहसि बचन कह जुगुति बनाई ॥ सिरु गिरे सन्तत सुभ जाही। मुकुट परे कस असगुन ताही ॥ सयन करहु निज निज गृह जाई। गवने भवन सकल सिर नाई ॥ मन्दोदरी सोच उर बसेऊ। जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ ॥ सजल नयन कह जुग कर जोरी। सुनहु प्रानपति बिनती मोरी ॥ कन्त राम बिरोध परिहरहू। जानि मनुज जनि हठ मन धरहू ॥ दो. बिस्वरुप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु। लोक कल्पना बेद कर अङ्ग अङ्ग प्रति जासु ॥ 14 ॥ पद पाताल सीस अज धामा। अपर लोक अँग अँग बिश्रामा ॥ भृकुटि बिलास भयङ्कर काला। नयन दिवाकर कच घन माला ॥ जासु घ्रान अस्विनीकुमारा। निसि अरु दिवस निमेष अपारा ॥ श्रवन दिसा दस बेद बखानी। मारुत स्वास निगम निज बानी ॥ अधर लोभ जम दसन कराला। माया हास बाहु दिगपाला ॥ आनन अनल अम्बुपति जीहा। उतपति पालन प्रलय समीहा ॥ रोम राजि अष्टादस भारा। अस्थि सैल सरिता नस जारा ॥ उदर उदधि अधगो जातना। जगमय प्रभु का बहु कलपना ॥ दो. अहङ्कार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान। मनुज बास सचराचर रुप राम भगवान ॥ 15 क ॥ अस बिचारि सुनु प्रानपति प्रभु सन बयरु बिहाइ। प्रीति करहु रघुबीर पद मम अहिवात न जाइ ॥ 15 ख ॥ बिहँसा नारि बचन सुनि काना। अहो मोह महिमा बलवाना ॥ नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीम् ॥ साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया ॥ रिपु कर रुप सकल तैं गावा। अति बिसाल भय मोहि सुनावा ॥ सो सब प्रिया सहज बस मोरें। समुझि परा प्रसाद अब तोरेम् ॥ जानिउँ प्रिया तोरि चतुराई। एहि बिधि कहहु मोरि प्रभुताई ॥ तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि। समुझत सुखद सुनत भय मोचनि ॥ मन्दोदरि मन महुँ अस ठयू। पियहि काल बस मतिभ्रम भयू ॥ दो. एहि बिधि करत बिनोद बहु 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भाँती ॥ बर पायहु कीन्हेहु सब काजा। जीतेहु लोकपाल सब राजा ॥ नृप अभिमान मोह बस किम्बा। हरि आनिहु सीता जगदम्बा ॥ अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा। सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा ॥ दसन गहहु तृन कण्ठ कुठारी। परिजन सहित सङ्ग निज नारी ॥ सादर जनकसुता करि आगें। एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागेम् ॥ दो. प्रनतपाल रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि। आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करैगो तोहि ॥ 20 ॥ रे कपिपोत बोलु सम्भारी। मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी ॥ कहु निज नाम जनक कर भाई। केहि नातें मानिऐ मिताई ॥ अङ्गद नाम बालि कर बेटा। तासों कबहुँ भी ही भेटा ॥ अङ्गद बचन सुनत सकुचाना। रहा बालि बानर मैं जाना ॥ अङ्गद तहीं बालि कर बालक। उपजेहु बंस अनल कुल घालक ॥ गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु। निज मुख तापस दूत कहायहु ॥ अब कहु कुसल बालि कहँ अही। बिहँसि बचन तब अङ्गद कही ॥ दिन दस गेँ बालि पहिं जाई। बूझेहु कुसल सखा उर लाई ॥ राम बिरोध कुसल जसि होई। सो सब तोहि सुनाइहि सोई ॥ सुनु सठ भेद होइ मन ताकें। श्रीरघुबीर हृदय नहिं जाकेम् ॥ दो. हम कुल घालक सत्य तुम्ह कुल पालक दससीस। अन्धु बधिर न अस कहहिं नयन कान तव बीस ॥ 21। सिव बिरञ्चि सुर मुनि समुदाई। चाहत जासु चरन सेवकाई ॥ तासु दूत होइ हम कुल बोरा। ऐसिहुँ मति उर बिहर न तोरा ॥ सुनि कठोर बानी कपि केरी। कहत दसानन नयन तरेरी ॥ खल तव कठिन बचन सब सहूँ। नीति धर्म मैं जानत अहूँ ॥ कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी ॥ देखी नयन दूत रखवारी। बूड़इ न मरहु धर्म ब्रतधारी ॥ कान नाक बिनु भगिनि निहारी। छमा कीन्हि तुम्ह धर्म बिचारी ॥ धर्मसीलता तव जग जागी। पावा दरसु हमहुँ बड़भागी ॥ दो. जनि जल्पसि जड़ जन्तु कपि सठ बिलोकु मम बाहु। लोकपाल बल बिपुल ससि ग्रसन हेतु सब राहु ॥ 22(क) ॥ पुनि नभ सर मम कर निकर कमलन्हि पर करि बास। सोभत भयु मराल इव सम्भु सहित कैलास ॥ 22(ख) ॥ तुम्हरे कटक माझ सुनु अङ्गद। मो सन भिरिहि कवन जोधा बद ॥ तव प्रभु नारि बिरहँ बलहीना। अनुज तासु दुख दुखी मलीना ॥ तुम्ह सुग्रीव कूलद्रुम दोऊ। अनुज हमार भीरु अति सोऊ ॥ जामवन्त मन्त्री अति बूढ़आ। सो कि होइ अब समरारूढ़आ ॥ सिल्पि कर्म जानहिं नल नीला। है कपि एक महा बलसीला ॥ आवा प्रथम नगरु जेंहिं जारा। सुनत बचन कह बालिकुमारा ॥ सत्य बचन कहु निसिचर नाहा। साँचेहुँ कीस कीन्ह पुर दाहा ॥ रावन नगर अल्प कपि दही। सुनि अस बचन सत्य को कही ॥ जो अति सुभट सराहेहु रावन। सो सुग्रीव केर लघु धावन ॥ चलि बहुत सो बीर न होई। पठवा खबरि लेन हम सोई ॥ दो. सत्य नगरु कपि जारेउ बिनु प्रभु आयसु पाइ। फिरि न गयु सुग्रीव पहिं तेहिं भय रहा लुकाइ ॥ 23(क) ॥ सत्य कहहि दसकण्ठ सब मोहि न सुनि कछु कोह। कौ न हमारें कटक अस तो सन लरत जो सोह ॥ 23(ख) ॥ प्रीति बिरोध समान सन करिअ नीति असि आहि। जौं मृगपति बध मेड़उकन्हि भल कि कहि कौ ताहि ॥ 23(ग) ॥ जद्यपि लघुता राम कहुँ तोहि बधें बड़ दोष। तदपि कठिन दसकण्ठ सुनु छत्र जाति कर रोष ॥ 23(घ) ॥ बक्र उक्ति धनु बचन सर हृदय दहेउ रिपु कीस। प्रतिउत्तर सड़सिन्ह मनहुँ काढ़त भट दससीस ॥ 23(ङ) ॥ हँसि बोलेउ दसमौलि तब कपि कर बड़ गुन एक। जो प्रतिपालि तासु हित करि उपाय अनेक ॥ 23(छ) ॥ धन्य कीस जो निज प्रभु काजा। जहँ तहँ नाचि परिहरि लाजा ॥ नाचि कूदि करि लोग रिझाई। पति हित करि धर्म निपुनाई ॥ अङ्गद स्वामिभक्त तव जाती। प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती ॥ मैं गुन गाहक परम सुजाना। तव कटु रटनि करुँ नहिं काना ॥ कह कपि तव गुन गाहकताई। सत्य पवनसुत मोहि सुनाई ॥ बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा। तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा ॥ सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई। दसकन्धर मैं कीन्हि ढिठाई ॥ देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा। तुम्हरें लाज न रोष न माखा ॥ जौं असि मति पितु खाए कीसा। कहि अस बचन हँसा दससीसा ॥ पितहि खाइ खातेउँ पुनि तोही। अबहीं समुझि परा कछु मोही ॥ बालि बिमल जस भाजन जानी। हतुँ न तोहि अधम अभिमानी ॥ कहु रावन रावन जग केते। मैं निज श्रवन सुने सुनु जेते ॥ बलिहि जितन एक गयु पताला। राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला ॥ खेलहिं बालक मारहिं जाई। दया लागि बलि दीन्ह छोड़आई ॥ एक बहोरि सहसभुज देखा। धाइ धरा जिमि जन्तु बिसेषा ॥ कौतुक लागि भवन लै आवा। सो पुलस्ति मुनि जाइ छोड़आवा ॥ दो. एक कहत मोहि सकुच अति रहा बालि की काँख। इन्ह महुँ रावन तैं कवन सत्य बदहि तजि माख ॥ 24 ॥ सुनु सठ सोइ रावन बलसीला। हरगिरि जान जासु भुज लीला ॥ जान उमापति जासु सुराई। पूजेउँ जेहि सिर सुमन चढ़आई ॥ सिर सरोज निज करन्हि उतारी। पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी ॥ भुज बिक्रम जानहिं दिगपाला। सठ अजहूँ जिन्ह कें उर साला ॥ जानहिं दिग्गज उर कठिनाई। जब जब भिरुँ जाइ बरिआई ॥ जिन्ह के दसन कराल न फूटे। उर लागत मूलक इव टूटे ॥ जासु चलत डोलति इमि धरनी। चढ़त मत्त गज जिमि लघु तरनी ॥ सोइ रावन जग बिदित प्रतापी। सुनेहि न श्रवन अलीक प्रलापी ॥ दो. तेहि रावन कहँ लघु कहसि नर कर करसि बखान। रे कपि बर्बर खर्ब खल अब जाना तव ग्यान ॥ 25 ॥ सुनि अङ्गद सकोप कह बानी। बोलु सँभारि अधम अभिमानी ॥ सहसबाहु भुज गहन अपारा। दहन अनल सम जासु कुठारा ॥ जासु परसु सागर खर धारा। बूड़ए नृप अगनित बहु बारा ॥ तासु गर्ब जेहि देखत भागा। सो नर क्यों दससीस अभागा ॥ राम मनुज कस रे सठ बङ्गा। धन्वी कामु नदी पुनि गङ्गा ॥ पसु सुरधेनु कल्पतरु रूखा। अन्न दान अरु रस पीयूषा ॥ बैनतेय खग अहि सहसानन। चिन्तामनि पुनि उपल दसानन ॥ सुनु मतिमन्द लोक बैकुण्ठा। लाभ कि रघुपति भगति अकुण्ठा ॥ दो. सेन सहित तब मान मथि बन उजारि पुर जारि ॥ कस रे सठ हनुमान कपि गयु जो तव सुत मारि ॥ 26 ॥ सुनु रावन परिहरि चतुराई। भजसि न कृपासिन्धु रघुराई ॥ जौ खल भेसि राम कर द्रोही। ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही ॥ मूढ़ बृथा जनि मारसि गाला। राम बयर अस होइहि हाला ॥ तव सिर निकर कपिन्ह के आगें। परिहहिं धरनि राम सर लागेम् ॥ ते तव सिर कन्दुक सम नाना। खेलहहिं भालु कीस चौगाना ॥ जबहिं समर कोपहि रघुनायक। छुटिहहिं अति कराल बहु सायक ॥ तब कि चलिहि अस गाल तुम्हारा। अस बिचारि भजु राम उदारा ॥ सुनत बचन रावन परजरा। जरत महानल जनु घृत परा ॥ दो. कुम्भकरन अस बन्धु मम सुत प्रसिद्ध सक्रारि। मोर पराक्रम नहिं सुनेहि जितेउँ चराचर झारि ॥ 27 ॥ सठ साखामृग जोरि सहाई। बाँधा सिन्धु इहि प्रभुताई ॥ नाघहिं खग अनेक बारीसा। सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा ॥ मम भुज सागर बल जल पूरा। जहँ बूड़ए बहु सुर नर सूरा ॥ बीस पयोधि अगाध अपारा। को अस बीर जो पाइहि पारा ॥ दिगपालन्ह मैं नीर भरावा। भूप सुजस खल मोहि सुनावा ॥ जौं पै समर सुभट तव नाथा। पुनि पुनि कहसि जासु गुन गाथा ॥ तौ बसीठ पठवत केहि काजा। रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा ॥ हरगिरि मथन निरखु मम बाहू। पुनि सठ कपि निज प्रभुहि सराहू ॥ दो. सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस। हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस ॥ 28 ॥ जरत बिलोकेउँ जबहिं कपाला। बिधि के लिखे अङ्क निज भाला ॥ नर कें कर आपन बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची ॥ सौ मन समुझि त्रास नहिं मोरें। लिखा बिरञ्चि जरठ मति भोरेम् ॥ आन बीर बल सठ मम आगें। पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागे ॥ कह अङ्गद सलज्ज जग माहीं। रावन तोहि समान कौ नाहीम् ॥ लाजवन्त तव सहज सुभ्AU। निज मुख निज गुन कहसि न क्AU ॥ सिर अरु सैल कथा चित रही। ताते बार बीस तैं कही ॥ सो भुजबल राखेउ उर घाली। जीतेहु सहसबाहु बलि बाली ॥ सुनु मतिमन्द देहि अब पूरा। काटें सीस कि होइअ सूरा ॥ इन्द्रजालि कहु कहिअ न बीरा। काटि निज कर सकल सरीरा ॥ दो. जरहिं पतङ्ग मोह बस भार बहहिं खर बृन्द। ते नहिं सूर कहावहिं समुझि देखु मतिमन्द ॥ 29 ॥ अब जनि बतबढ़आव खल करही। सुनु मम बचन मान परिहरही ॥ दसमुख मैं न बसीठीं आयुँ। अस बिचारि रघुबीष पठायुँ ॥ बार बार अस कहि कृपाला। नहिं गजारि जसु बधें सृकाला ॥ मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे। सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे ॥ नाहिं त करि मुख भञ्जन तोरा। लै जातेउँ सीतहि बरजोरा ॥ जानेउँ तव बल अधम सुरारी। सूनें हरि आनिहि परनारी ॥ तैं निसिचर पति गर्ब बहूता। मैं रघुपति सेवक कर दूता ॥ जौं न राम अपमानहि डरुँ। तोहि देखत अस कौतुक करूँ ॥ दो. तोहि पटकि महि सेन हति चौपट करि तव गाउँ। तव जुबतिन्ह समेत सठ जनकसुतहि लै जाउँ ॥ 30 ॥ जौ अस करौं तदपि न बड़आई। मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई ॥ कौल कामबस कृपिन बिमूढ़आ। अति दरिद्र अजसी अति बूढ़आ ॥ सदा रोगबस सन्तत क्रोधी। बिष्नु बिमूख श्रुति सन्त बिरोधी ॥ तनु पोषक निन्दक अघ खानी। जीवन सव सम चौदह प्रानी ॥ अस बिचारि खल बधुँ न तोही। अब जनि रिस उपजावसि मोही ॥ सुनि सकोप कह निसिचर नाथा। अधर दसन दसि मीजत हाथा ॥ रे कपि अधम मरन अब चहसी। छोटे बदन बात बड़इ कहसी ॥ कटु जल्पसि जड़ कपि बल जाकें। बल प्रताप बुधि तेज न ताकेम् ॥ दो. अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पिता बनबास। सो दुख अरु जुबती बिरह पुनि निसि दिन मम त्रास ॥ 31(क) ॥ जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि ऐसे मनुज अनेक। खाहीं निसाचर दिवस निसि मूढ़ समुझु तजि टेक ॥ 31(ख) ॥ जब तेहिं कीन्ह राम कै निन्दा। क्रोधवन्त अति भयु कपिन्दा ॥ हरि हर निन्दा सुनि जो काना। होइ पाप गोघात समाना ॥ कटकटान कपिकुञ्जर भारी। दुहु भुजदण्ड तमकि महि मारी ॥ डोलत धरनि सभासद खसे। चले भाजि भय मारुत ग्रसे ॥ गिरत सँभारि उठा दसकन्धर। भूतल परे मुकुट अति सुन्दर ॥ कछु तेहिं लै निज सिरन्हि सँवारे। कछु अङ्गद प्रभु पास पबारे ॥ आवत मुकुट देखि कपि भागे। दिनहीं लूक परन बिधि लागे ॥ की रावन करि कोप चलाए। कुलिस चारि आवत अति धाए ॥ कह प्रभु हँसि जनि हृदयँ डेराहू। लूक न असनि केतु नहिं राहू ॥ ए किरीट दसकन्धर केरे। आवत बालितनय के प्रेरे ॥ दो. तरकि पवनसुत कर गहे आनि धरे प्रभु पास। कौतुक देखहिं भालु कपि दिनकर सरिस प्रकास ॥ 32(क) ॥ उहाँ सकोऽपि दसानन सब सन कहत रिसाइ। धरहु कपिहि धरि मारहु सुनि अङ्गद मुसुकाइ ॥ 32(ख) ॥ एहि बिधि बेगि सूभट सब धावहु। खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु ॥ मर्कटहीन करहु महि जाई। जिअत धरहु तापस द्वौ भाई ॥ पुनि सकोप बोलेउ जुबराजा। गाल बजावत तोहि न लाजा ॥ मरु गर काटि निलज कुलघाती। बल बिलोकि बिहरति नहिं छाती ॥ रे त्रिय चोर कुमारग गामी। खल मल रासि मन्दमति कामी ॥ सन्यपात जल्पसि दुर्बादा। भेसि कालबस खल मनुजादा ॥ याको फलु पावहिगो आगें। बानर भालु चपेटन्हि लागेम् ॥ रामु मनुज बोलत असि बानी। गिरहिं न तव रसना अभिमानी ॥ गिरिहहिं रसना संसय नाहीं। सिरन्हि समेत समर महि माहीम् ॥ सो. सो नर क्यों दसकन्ध बालि बध्यो जेहिं एक सर। बीसहुँ लोचन अन्ध धिग तव जन्म कुजाति जड़ ॥ 33(क) ॥ तब सोनित की प्यास तृषित राम सायक निकर। तजुँ तोहि तेहि त्रास कटु जल्पक निसिचर अधम ॥ 33(ख) ॥ मै तव दसन तोरिबे लायक। आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक ॥ असि रिस होति दसु मुख तोरौं। लङ्का गहि समुद्र महँ बोरौम् ॥ गूलरि फल समान तव लङ्का। बसहु मध्य तुम्ह जन्तु असङ्का ॥ मैं बानर फल खात न बारा। आयसु दीन्ह न राम उदारा ॥ जुगति सुनत रावन मुसुकाई। मूढ़ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई ॥ बालि न कबहुँ गाल अस मारा। मिलि तपसिन्ह तैं भेसि लबारा ॥ साँचेहुँ मैं लबार भुज बीहा। जौं न उपारिउँ तव दस जीहा ॥ समुझि राम प्रताप कपि कोपा। सभा माझ पन करि पद रोपा ॥ जौं मम चरन सकसि सठ टारी। फिरहिं रामु सीता मैं हारी ॥ सुनहु सुभट सब कह दससीसा। पद गहि धरनि पछारहु कीसा ॥ इन्द्रजीत आदिक बलवाना। हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना ॥ झपटहिं करि बल बिपुल उपाई। पद न टरि बैठहिं सिरु नाई ॥ पुनि उठि झपटहीं सुर आराती। टरि न कीस चरन एहि भाँती ॥ पुरुष कुजोगी जिमि उरगारी। मोह बिटप नहिं सकहिं उपारी ॥ दो. कोटिन्ह मेघनाद सम सुभट उठे हरषाइ। झपटहिं टरै न कपि चरन पुनि बैठहिं सिर नाइ ॥ 34(क) ॥ भूमि न छाँडत कपि चरन देखत रिपु मद भाग ॥ कोटि बिघ्न ते सन्त कर मन जिमि नीति न त्याग ॥ 34(ख) ॥ कपि बल देखि सकल हियँ हारे। उठा आपु कपि कें परचारे ॥ गहत चरन कह बालिकुमारा। मम पद गहें न तोर उबारा ॥ गहसि न राम चरन सठ जाई। सुनत फिरा मन अति सकुचाई ॥ भयु तेजहत श्री सब गी। मध्य दिवस जिमि ससि सोही ॥ सिङ्घासन बैठेउ सिर नाई। मानहुँ सम्पति सकल गँवाई ॥ जगदातमा प्रानपति रामा। तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा ॥ उमा राम की भृकुटि बिलासा। होइ बिस्व पुनि पावि नासा ॥ तृन ते कुलिस कुलिस तृन करी। तासु दूत पन कहु किमि टरी ॥ पुनि कपि कही नीति बिधि नाना। मान न ताहि कालु निअराना ॥ रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो। यह कहि चल्यो बालि नृप जायो ॥ हतौं न खेत खेलाइ खेलाई। तोहि अबहिं का करौं बड़आई ॥ प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा। सो सुनि रावन भयु दुखारा ॥ जातुधान अङ्गद पन देखी। भय ब्याकुल सब भे बिसेषी ॥ दो. रिपु बल धरषि हरषि कपि बालितनय बल पुञ्ज। पुलक सरीर नयन जल गहे राम पद कञ्ज ॥ 35(क) ॥ साँझ जानि दसकन्धर भवन गयु बिलखाइ। मन्दोदरी रावनहि बहुरि कहा समुझाइ ॥ (ख) ॥ कन्त समुझि मन तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही ॥ रामानुज लघु रेख खचाई। सौ नहिं नाघेहु असि मनुसाई ॥ पिय तुम्ह ताहि जितब सङ्ग्रामा। जाके दूत केर यह कामा ॥ कौतुक सिन्धु नाघी तव लङ्का। आयु कपि केहरी असङ्का ॥ रखवारे हति बिपिन उजारा। देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा ॥ जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा। कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा ॥ अब पति मृषा गाल जनि मारहु। मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु ॥ पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु। अग जग नाथ अतुल बल जानहु ॥ बान प्रताप जान मारीचा। तासु कहा नहिं मानेहि नीचा ॥ जनक सभाँ अगनित भूपाला। रहे तुम्हु बल अतुल बिसाला ॥ भञ्जि धनुष जानकी बिआही। तब सङ्ग्राम जितेहु किन ताही ॥ सुरपति सुत जानि बल थोरा। राखा जिअत आँखि गहि फोरा ॥ सूपनखा कै गति तुम्ह देखी। तदपि हृदयँ नहिं लाज बिषेषी ॥ दो. बधि बिराध खर दूषनहि लीँलाँ हत्यो कबन्ध। बालि एक सर मारयो तेहि जानहु दसकन्ध ॥ 36 ॥ जेहिं जलनाथ बँधायु हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला ॥ कारुनीक दिनकर कुल केतू। दूत पठायु तव हित हेतू ॥ सभा माझ जेहिं तव बल मथा। करि बरूथ महुँ मृगपति जथा ॥ अङ्गद हनुमत अनुचर जाके। रन बाँकुरे बीर अति बाँके ॥ तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू। मुधा मान ममता मद बहहू ॥ अहह कन्त कृत राम बिरोधा। काल बिबस मन उपज न बोधा ॥ काल दण्ड गहि काहु न मारा। हरि धर्म बल बुद्धि बिचारा ॥ निकट काल जेहि आवत साईं। तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईम् ॥ दो. दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु। कृपासिन्धु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु ॥ 37 ॥ नारि बचन सुनि बिसिख समाना। सभाँ गयु उठि होत बिहाना ॥ बैठ जाइ सिङ्घासन फूली। अति अभिमान त्रास सब भूली ॥ इहाँ राम अङ्गदहि बोलावा। आइ चरन पङ्कज सिरु नावा ॥ अति आदर सपीप बैठारी। बोले बिहँसि कृपाल खरारी ॥ बालितनय कौतुक अति मोही। तात सत्य कहु पूछुँ तोही ॥ । रावनु जातुधान कुल टीका। भुज बल अतुल जासु जग लीका ॥ तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए। कहहु तात कवनी बिधि पाए ॥ सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी। मुकुट न होहिं भूप गुन चारी ॥ साम दान अरु दण्ड बिभेदा। नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा ॥ नीति धर्म के चरन सुहाए। अस जियँ जानि नाथ पहिं आए ॥ दो. धर्महीन प्रभु पद बिमुख काल बिबस दससीस। तेहि परिहरि गुन आए सुनहु कोसलाधीस ॥ 38(((क) ॥ परम चतुरता श्रवन सुनि बिहँसे रामु उदार। समाचार पुनि सब कहे गढ़ के बालिकुमार ॥ 38(ख) ॥ रिपु के समाचार जब पाए। राम सचिव सब निकट बोलाए ॥ लङ्का बाँके चारि दुआरा। केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा ॥ तब कपीस रिच्छेस बिभीषन। सुमिरि हृदयँ दिनकर कुल भूषन ॥ करि बिचार तिन्ह मन्त्र दृढ़आवा। चारि अनी कपि कटकु बनावा ॥ जथाजोग सेनापति कीन्हे। जूथप सकल बोलि तब लीन्हे ॥ प्रभु प्रताप कहि सब समुझाए। सुनि कपि सिङ्घनाद करि धाए ॥ हरषित राम चरन सिर नावहिं। गहि गिरि सिखर बीर सब धावहिम् ॥ गर्जहिं तर्जहिं भालु कपीसा। जय रघुबीर कोसलाधीसा ॥ जानत परम दुर्ग अति लङ्का। प्रभु प्रताप कपि चले असङ्का ॥ घटाटोप करि चहुँ दिसि घेरी। मुखहिं निसान बजावहीं भेरी ॥ दो. जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव। गर्जहिं सिङ्घनाद कपि भालु महा बल सींव ॥ 39 ॥ लङ्काँ भयु कोलाहल भारी। सुना दसानन अति अहँकारी ॥ देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई। बिहँसि निसाचर सेन बोलाई ॥ आए कीस काल के प्रेरे। छुधावन्त सब निसिचर मेरे ॥ अस कहि अट्टहास सठ कीन्हा। गृह बैठे अहार बिधि दीन्हा ॥ सुभट सकल चारिहुँ दिसि जाहू। धरि धरि भालु कीस सब खाहू ॥ उमा रावनहि अस अभिमाना। जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना ॥ चले निसाचर आयसु मागी। गहि कर भिण्डिपाल बर साँगी ॥ तोमर मुग्दर परसु प्रचण्डा। सुल कृपान परिघ गिरिखण्डा ॥ जिमि अरुनोपल निकर निहारी। धावहिं सठ खग मांस अहारी ॥ चोञ्च भङ्ग दुख तिन्हहि न सूझा। तिमि धाए मनुजाद अबूझा ॥ दो. नानायुध सर चाप धर जातुधान बल बीर। कोट कँगूरन्हि चढ़इ गे कोटि कोटि रनधीर ॥ 40 ॥ कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे। मेरु के सृङ्गनि जनु घन बैसे ॥ बाजहिं ढोल निसान जुझ्AU। सुनि धुनि होइ भटन्हि मन च्AU ॥ बाजहिं भेरि नफीरि अपारा। सुनि कादर उर जाहिं दरारा ॥ देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा। अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा ॥ धावहिं गनहिं न अवघट घाटा। पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा ॥ कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं। दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिम् ॥ उत रावन इत राम दोहाई। जयति जयति जय परी लराई ॥ निसिचर सिखर समूह ढहावहिं। कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिम् ॥ दो. धरि कुधर खण्ड प्रचण्ड कर्कट भालु गढ़ पर डारहीं। झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीम् ॥ अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं तमकि गढ़ चढ़इ चढ़इ गे। कपि भालु चढ़इ मन्दिरन्ह जहँ तहँ राम जसु गावत भे ॥ दो. एकु एकु निसिचर गहि पुनि कपि चले पराइ। ऊपर आपु हेठ भट गिरहिं धरनि पर आइ ॥ 41 ॥ राम प्रताप प्रबल कपिजूथा। मर्दहिं निसिचर सुभट बरूथा ॥ चढ़ए दुर्ग पुनि जहँ तहँ बानर। जय रघुबीर प्रताप दिवाकर ॥ चले निसाचर निकर पराई। प्रबल पवन जिमि घन समुदाई ॥ हाहाकार भयु पुर भारी। रोवहिं बालक आतुर नारी ॥ सब मिलि देहिं रावनहि गारी। राज करत एहिं मृत्यु हँकारी ॥ निज दल बिचल सुनी तेहिं काना। फेरि सुभट लङ्केस रिसाना ॥ जो रन बिमुख सुना मैं काना। सो मैं हतब कराल कृपाना ॥ सर्बसु खाइ भोग करि नाना। समर भूमि भे बल्लभ प्राना ॥ उग्र बचन सुनि सकल डेराने। चले क्रोध करि सुभट लजाने ॥ सन्मुख मरन बीर कै सोभा। तब तिन्ह तजा प्रान कर लोभा ॥ दो. बहु आयुध धर सुभट सब भिरहिं पचारि पचारि। ब्याकुल किए भालु कपि परिघ त्रिसूलन्हि मारी ॥ 42 ॥ भय आतुर कपि भागन लागे। जद्यपि उमा जीतिहहिं आगे ॥ कौ कह कहँ अङ्गद हनुमन्ता। कहँ नल नील दुबिद बलवन्ता ॥ निज दल बिकल सुना हनुमाना। पच्छिम द्वार रहा बलवाना ॥ मेघनाद तहँ करि लराई। टूट न द्वार परम कठिनाई ॥ पवनतनय मन भा अति क्रोधा। गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा ॥ कूदि लङ्क गढ़ ऊपर आवा। गहि गिरि मेघनाद कहुँ धावा ॥ भञ्जेउ रथ सारथी निपाता। ताहि हृदय महुँ मारेसि लाता ॥ दुसरें सूत बिकल तेहि जाना। स्यन्दन घालि तुरत गृह आना ॥ दो. अङ्गद सुना पवनसुत गढ़ पर गयु अकेल। रन बाँकुरा बालिसुत तरकि चढ़एउ कपि खेल ॥ 43 ॥ जुद्ध बिरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बन्दर। राम प्रताप सुमिरि उर अन्तर ॥ रावन भवन चढ़ए द्वौ धाई। करहि कोसलाधीस दोहाई ॥ कलस सहित गहि भवनु ढहावा। देखि निसाचरपति भय पावा ॥ नारि बृन्द कर पीटहिं छाती। अब दुइ कपि आए उतपाती ॥ कपिलीला करि तिन्हहि डेरावहिं। रामचन्द्र कर सुजसु सुनावहिम् ॥ पुनि कर गहि कञ्चन के खम्भा। कहेन्हि करिअ उतपात अरम्भा ॥ गर्जि परे रिपु कटक मझारी। लागे मर्दै भुज बल भारी ॥ काहुहि लात चपेटन्हि केहू। भजहु न रामहि सो फल लेहू ॥ दो. एक एक सों मर्दहिं तोरि चलावहिं मुण्ड। रावन आगें परहिं ते जनु फूटहिं दधि कुण्ड ॥ 44 ॥ महा महा मुखिआ जे पावहिं। ते पद गहि प्रभु पास चलावहिम् ॥ कहि बिभीषनु तिन्ह के नामा। देहिं राम तिन्हहू निज धामा ॥ खल मनुजाद द्विजामिष भोगी। पावहिं गति जो जाचत जोगी ॥ उमा राम मृदुचित करुनाकर। बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर ॥ देहिं परम गति सो जियँ जानी। अस कृपाल को कहहु भवानी ॥ अस प्रभु सुनि न भजहिं भ्रम त्यागी। नर मतिमन्द ते परम अभागी ॥ अङ्गद अरु हनुमन्त प्रबेसा। कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा ॥ लङ्काँ द्वौ कपि सोहहिं कैसें। मथहि सिन्धु दुइ मन्दर जैसेम् ॥ दो. भुज बल रिपु दल दलमलि देखि दिवस कर अन्त। कूदे जुगल बिगत श्रम आए जहँ भगवन्त ॥ 45 ॥ प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए। देखि सुभट रघुपति मन भाए ॥ राम कृपा करि जुगल निहारे। भे बिगतश्रम परम सुखारे ॥ गे जानि अङ्गद हनुमाना। फिरे भालु मर्कट भट नाना ॥ जातुधान प्रदोष बल पाई। धाए करि दससीस दोहाई ॥ निसिचर अनी देखि कपि फिरे। जहँ तहँ कटकटाइ भट भिरे ॥ द्वौ दल प्रबल पचारि पचारी। लरत सुभट नहिं मानहिं हारी ॥ महाबीर निसिचर सब कारे। नाना बरन बलीमुख भारे ॥ सबल जुगल दल समबल जोधा। कौतुक करत लरत करि क्रोधा ॥ प्राबिट सरद पयोद घनेरे। लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे ॥ अनिप अकम्पन अरु अतिकाया। बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया ॥ भयु निमिष महँ अति अँधियारा। बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा ॥ दो. देखि निबिड़ तम दसहुँ दिसि कपिदल भयु खभार। एकहि एक न देखी जहँ तहँ करहिं पुकार ॥ 46 ॥ सकल मरमु रघुनायक जाना। लिए बोलि अङ्गद हनुमाना ॥ समाचार सब कहि समुझाए। सुनत कोऽपि कपिकुञ्जर धाए ॥ पुनि कृपाल हँसि चाप चढ़आवा। पावक सायक सपदि चलावा ॥ भयु प्रकास कतहुँ तम नाहीं। ग्यान उदयँ जिमि संसय जाहीम् ॥ भालु बलीमुख पाइ प्रकासा। धाए हरष बिगत श्रम त्रासा ॥ हनूमान अङ्गद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे ॥ भागत पट पटकहिं धरि धरनी। करहिं भालु कपि अद्भुत करनी ॥ गहि पद डारहिं सागर माहीं। मकर उरग झष धरि धरि खाहीम् ॥ दो. कछु मारे कछु घायल कछु गढ़ चढ़ए पराइ। गर्जहिं भालु बलीमुख रिपु दल बल बिचलाइ ॥ 47 ॥ निसा जानि कपि चारिउ अनी। आए जहाँ कोसला धनी ॥ राम कृपा करि चितवा सबही। भे बिगतश्रम बानर तबही ॥ उहाँ दसानन सचिव हँकारे। सब सन कहेसि सुभट जे मारे ॥ आधा कटकु कपिन्ह सङ्घारा। कहहु बेगि का करिअ बिचारा ॥ माल्यवन्त अति जरठ निसाचर। रावन मातु पिता मन्त्री बर ॥ बोला बचन नीति अति पावन। सुनहु तात कछु मोर सिखावन ॥ जब ते तुम्ह सीता हरि आनी। असगुन होहिं न जाहिं बखानी ॥ बेद पुरान जासु जसु गायो। राम बिमुख काहुँ न सुख पायो ॥ दो. हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान। जेहि मारे सोइ अवतरेउ कृपासिन्धु भगवान ॥ 48(क) ॥ मासपारायण, पचीसवाँ विश्राम कालरूप खल बन दहन गुनागार घनबोध। सिव बिरञ्चि जेहि सेवहिं तासों कवन बिरोध ॥ 48(ख) ॥ परिहरि बयरु देहु बैदेही। भजहु कृपानिधि परम सनेही ॥ ताके बचन बान सम लागे। करिआ मुह करि जाहि अभागे ॥ बूढ़ भेसि न त मरतेउँ तोही। अब जनि नयन देखावसि मोही ॥ तेहि अपने मन अस अनुमाना। बध्यो चहत एहि कृपानिधाना ॥ सो उठि गयु कहत दुर्बादा। तब सकोप बोलेउ घननादा ॥ कौतुक प्रात देखिअहु मोरा। करिहुँ बहुत कहौं का थोरा ॥ सुनि सुत बचन भरोसा आवा। प्रीति समेत अङ्क बैठावा ॥ करत बिचार भयु भिनुसारा। लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा ॥ कोऽपि कपिन्ह दुर्घट गढ़उ घेरा। नगर कोलाहलु भयु घनेरा ॥ बिबिधायुध धर निसिचर धाए। गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए ॥ छं. ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले। घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले ॥ मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भे। गहि सैल तेहि गढ़ पर चलावहिं जहँ सो तहँ निसिचर हे ॥ दो. मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ़उ पुनि छेङ्का आइ। उतर्यो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ ॥ 49 ॥ कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता। धन्वी सकल लोक बिख्याता ॥ कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा। अङ्गद हनूमन्त बल सींवा ॥ कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही। आजु सबहि हठि मारुँ ओही ॥ अस कहि कठिन बान सन्धाने। अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने ॥ सर समुह सो छाड़ऐ लागा। जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा ॥ जहँ तहँ परत देखिअहिं बानर। सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर ॥ जहँ तहँ भागि चले कपि रीछा। बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा ॥ सो कपि भालु न रन महँ देखा। कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा ॥ दो. दस दस सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर। सिंहनाद करि गर्जा मेघनाद बल धीर ॥ 50 ॥ देखि पवनसुत कटक बिहाला। क्रोधवन्त जनु धायु काला ॥ महासैल एक तुरत उपारा। अति रिस मेघनाद पर डारा ॥ आवत देखि गयु नभ सोई। रथ सारथी तुरग सब खोई ॥ बार बार पचार हनुमाना। निकट न आव मरमु सो जाना ॥ रघुपति निकट गयु घननादा। नाना भाँति करेसि दुर्बादा ॥ अस्त्र सस्त्र आयुध सब डारे। कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे ॥ देखि प्रताप मूढ़ खिसिआना। करै लाग माया बिधि नाना ॥ जिमि कौ करै गरुड़ सैं खेला। डरपावै गहि स्वल्प सपेला ॥ दो. जासु प्रबल माया बल सिव बिरञ्चि बड़ छोट। ताहि दिखावि निसिचर निज माया मति खोट ॥ 51 ॥ नभ चढ़इ बरष बिपुल अङ्गारा। महि ते प्रगट होहिं जलधारा ॥ नाना भाँति पिसाच पिसाची। मारु काटु धुनि बोलहिं नाची ॥ बिष्टा पूय रुधिर कच हाड़आ। बरषि कबहुँ उपल बहु छाड़आ ॥ बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा। सूझ न आपन हाथ पसारा ॥ कपि अकुलाने माया देखें। सब कर मरन बना एहि लेखेम् ॥ कौतुक देखि राम मुसुकाने। भे सभीत सकल कपि जाने ॥ एक बान काटी सब माया। जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया ॥ कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके। भे प्रबल रन रहहिं न रोके ॥ दो. आयसु मागि राम पहिं अङ्गदादि कपि साथ। लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ ॥ 52 ॥ छतज नयन उर बाहु बिसाला। हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला ॥ इहाँ दसानन सुभट पठाए। नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए ॥ भूधर नख बिटपायुध धारी। धाए कपि जय राम पुकारी ॥ भिरे सकल जोरिहि सन जोरी। इत उत जय इच्छा नहिं थोरी ॥ मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं। कपि जयसील मारि पुनि डाटहिम् ॥ मारु मारु धरु धरु धरु मारू। सीस तोरि गहि भुजा उपारू ॥ असि रव पूरि रही नव खण्डा। धावहिं जहँ तहँ रुण्ड प्रचण्डा ॥ देखहिं कौतुक नभ सुर बृन्दा। कबहुँक बिसमय कबहुँ अनन्दा ॥ दो. रुधिर गाड़ भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उड़आइ। जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ ॥ 53 ॥ घायल बीर बिराजहिं कैसे। कुसुमित किंसुक के तरु जैसे ॥ लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा। भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा ॥ एकहि एक सकि नहिं जीती। निसिचर छल बल करि अनीती ॥ क्रोधवन्त तब भयु अनन्ता। भञ्जेउ रथ सारथी तुरन्ता ॥ नाना बिधि प्रहार कर सेषा। राच्छस भयु प्रान अवसेषा ॥ रावन सुत निज मन अनुमाना। सङ्कठ भयु हरिहि मम प्राना ॥ बीरघातिनी छाड़इसि साँगी। तेज पुञ्ज लछिमन उर लागी ॥ मुरुछा भी सक्ति के लागें। तब चलि गयु निकट भय त्यागेम् ॥ दो. मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ। जगदाधार सेष किमि उठै चले खिसिआइ ॥ 54 ॥ सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू। जारि भुवन चारिदस आसू ॥ सक सङ्ग्राम जीति को ताही। सेवहिं सुर नर अग जग जाही ॥ यह कौतूहल जानि सोई। जा पर कृपा राम कै होई ॥ सन्ध्या भि फिरि द्वौ बाहनी। लगे सँभारन निज निज अनी ॥ ब्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर ॥ तब लगि लै आयु हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना ॥ जामवन्त कह बैद सुषेना। लङ्काँ रहि को पठी लेना ॥ धरि लघु रूप गयु हनुमन्ता। आनेउ भवन समेत तुरन्ता ॥ दो. राम पदारबिन्द सिर नायु आइ सुषेन। कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवनसुत लेन ॥ 55 ॥ राम चरन सरसिज उर राखी। चला प्रभञ्जन सुत बल भाषी ॥ उहाँ दूत एक मरमु जनावा। रावन कालनेमि गृह आवा ॥ दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना। पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना ॥ देखत तुम्हहि नगरु जेहिं जारा। तासु पन्थ को रोकन पारा ॥ भजि रघुपति करु हित आपना। छाँड़हु नाथ मृषा जल्पना ॥ नील कञ्ज तनु सुन्दर स्यामा। हृदयँ राखु लोचनाभिरामा ॥ मैं तैं मोर मूढ़ता त्यागू। महा मोह निसि सूतत जागू ॥ काल ब्याल कर भच्छक जोई। सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई ॥ दो. सुनि दसकण्ठ रिसान अति तेहिं मन कीन्ह बिचार। राम दूत कर मरौं बरु यह खल रत मल भार ॥ 56 ॥ अस कहि चला रचिसि मग माया। सर मन्दिर बर बाग बनाया ॥ मारुतसुत देखा सुभ आश्रम। मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम ॥ राच्छस कपट बेष तहँ सोहा। मायापति दूतहि चह मोहा ॥ जाइ पवनसुत नायु माथा। लाग सो कहै राम गुन गाथा ॥ होत महा रन रावन रामहिं। जितहहिं राम न संसय या महिम् ॥ इहाँ भेँ मैं देखेउँ भाई। ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई ॥ मागा जल तेहिं दीन्ह कमण्डल। कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल ॥ सर मज्जन करि आतुर आवहु। दिच्छा देउँ ग्यान जेहिं पावहु ॥ दो. सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान। मारी सो धरि दिव्य तनु चली गगन चढ़इ जान ॥ 57 ॥ कपि तव दरस भिउँ निष्पापा। मिटा तात मुनिबर कर सापा ॥ मुनि न होइ यह निसिचर घोरा। मानहु सत्य बचन कपि मोरा ॥ अस कहि गी अपछरा जबहीं। निसिचर निकट गयु कपि तबहीम् ॥ कह कपि मुनि गुरदछिना लेहू। पाछें हमहि मन्त्र तुम्ह देहू ॥ सिर लङ्गूर लपेटि पछारा। निज तनु प्रगटेसि मरती बारा ॥ राम राम कहि छाड़एसि प्राना। सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना ॥ देखा सैल न औषध चीन्हा। सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा ॥ गहि गिरि निसि नभ धावत भयू। अवधपुरी उपर कपि गयू ॥ दो. देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि। बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि ॥ 58 ॥ परेउ मुरुछि महि लागत सायक। सुमिरत राम राम रघुनायक ॥ सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए। कपि समीप अति आतुर आए ॥ बिकल बिलोकि कीस उर लावा। जागत नहिं बहु भाँति जगावा ॥ मुख मलीन मन भे दुखारी। कहत बचन भरि लोचन बारी ॥ जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा। तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा ॥ जौं मोरें मन बच अरु काया। प्रीति राम पद कमल अमाया ॥ तौ कपि हौ बिगत श्रम सूला। जौं मो पर रघुपति अनुकूला ॥ सुनत बचन उठि बैठ कपीसा। कहि जय जयति कोसलाधीसा ॥ सो. लीन्ह कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल। प्रीति न हृदयँ समाइ सुमिरि राम रघुकुल तिलक ॥ 59 ॥ तात कुसल कहु सुखनिधान की। सहित अनुज अरु मातु जानकी ॥ कपि सब चरित समास बखाने। भे दुखी मन महुँ पछिताने ॥ अहह दैव मैं कत जग जायुँ। प्रभु के एकहु काज न आयुँ ॥ जानि कुअवसरु मन धरि धीरा। पुनि कपि सन बोले बलबीरा ॥ तात गहरु होइहि तोहि जाता। काजु नसाइहि होत प्रभाता ॥ चढ़उ मम सायक सैल समेता। पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता ॥ सुनि कपि मन उपजा अभिमाना। मोरें भार चलिहि किमि बाना ॥ राम प्रभाव बिचारि बहोरी। बन्दि चरन कह कपि कर जोरी ॥ दो. तव प्रताप उर राखि प्रभु जेहुँ नाथ तुरन्त। अस कहि आयसु पाइ पद बन्दि चलेउ हनुमन्त ॥ 60(क) ॥ भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार। मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार ॥ 60(ख) ॥ उहाँ राम लछिमनहिं निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी ॥ अर्ध राति गि कपि नहिं आयु। राम उठाइ अनुज उर लायु ॥ सकहु न दुखित देखि मोहि क्AU। बन्धु सदा तव मृदुल सुभ्AU ॥ मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता ॥ सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई ॥ जौं जनतेउँ बन बन्धु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू ॥ सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा ॥ अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलि न जगत सहोदर भ्राता ॥ जथा पङ्ख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना ॥ अस मम जिवन बन्धु बिनु तोही। जौं जड़ दैव जिआवै मोही ॥ जैहुँ अवध कवन मुहु लाई। नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई ॥ बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीम् ॥ अब अपलोकु सोकु सुत तोरा। सहिहि निठुर कठोर उर मोरा ॥ निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा ॥ सौम्पेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी ॥ उतरु काह दैहुँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई ॥ बहु बिधि सिचत सोच बिमोचन। स्त्रवत सलिल राजिव दल लोचन ॥ उमा एक अखण्ड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई ॥ सो. प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भे बानर निकर। आइ गयु हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस ॥ 61 ॥ हरषि राम भेण्टेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना ॥ तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई ॥ हृदयँ लाइ प्रभु भेण्टेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता ॥ कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा। जेहि बिधि तबहिं ताहि लि आवा ॥ यह बृत्तान्त दसानन सुनेऊ। अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ ॥ ब्याकुल कुम्भकरन पहिं आवा। बिबिध जतन करि ताहि जगावा ॥ जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा ॥ कुम्भकरन बूझा कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई ॥ कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी ॥ तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महामहा जोधा सङ्घारे ॥ दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकम्पन भारी ॥ अपर महोदर आदिक बीरा। परे समर महि सब रनधीरा ॥ दो. सुनि दसकन्धर बचन तब कुम्भकरन बिलखान। जगदम्बा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान ॥ 62 ॥ भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा ॥ अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना ॥ हैं दससीस मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक ॥ अहह बन्धु तैं कीन्हि खोटाई। प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई ॥ कीन्हेहु प्रभू बिरोध तेहि देवक। सिव बिरञ्चि सुर जाके सेवक ॥ नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा। कहतेउँ तोहि समय निरबहा ॥ अब भरि अङ्क भेण्टु मोहि भाई। लोचन सूफल करौ मैं जाई ॥ स्याम गात सरसीरुह लोचन। देखौं जाइ ताप त्रय मोचन ॥ दो. राम रूप गुन सुमिरत मगन भयु छन एक। रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक ॥ 63 ॥ महिष खाइ करि मदिरा पाना। गर्जा बज्राघात समाना ॥ कुम्भकरन दुर्मद रन रङ्गा। चला दुर्ग तजि सेन न सङ्गा ॥ देखि बिभीषनु आगें आयु। परेउ चरन निज नाम सुनायु ॥ अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो। रघुपति भक्त जानि मन भायो ॥ तात लात रावन मोहि मारा। कहत परम हित मन्त्र बिचारा ॥ तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयुँ। देखि दीन प्रभु के मन भायुँ ॥ सुनु सुत भयु कालबस रावन। सो कि मान अब परम सिखावन ॥ धन्य धन्य तैं धन्य बिभीषन। भयहु तात निसिचर कुल भूषन ॥ बन्धु बंस तैं कीन्ह उजागर। भजेहु राम सोभा सुख सागर ॥ दो. बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर। जाहु न निज पर सूझ मोहि भयुँ कालबस बीर। 64 ॥ बन्धु बचन सुनि चला बिभीषन। आयु जहँ त्रैलोक बिभूषन ॥ नाथ भूधराकार सरीरा। कुम्भकरन आवत रनधीरा ॥ एतना कपिन्ह सुना जब काना। किलकिलाइ धाए बलवाना ॥ लिए उठाइ बिटप अरु भूधर। कटकटाइ डारहिं ता ऊपर ॥ कोटि कोटि गिरि सिखर प्रहारा। करहिं भालु कपि एक एक बारा ॥ मुर् यो न मन तनु टर् यो न टार् यो। जिमि गज अर्क फलनि को मार्यो ॥ तब मारुतसुत मुठिका हन्यो। पर् यो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो ॥ पुनि उठि तेहिं मारेउ हनुमन्ता। घुर्मित भूतल परेउ तुरन्ता ॥ पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि। जहँ तहँ पटकि पटकि भट डारेसि ॥ चली बलीमुख सेन पराई। अति भय त्रसित न कौ समुहाई ॥ दो. अङ्गदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव। काँख दाबि कपिराज कहुँ चला अमित बल सींव ॥ 65 ॥ उमा करत रघुपति नरलीला। खेलत गरुड़ जिमि अहिगन मीला ॥ भृकुटि भङ्ग जो कालहि खाई। ताहि कि सोहि ऐसि लराई ॥ जग पावनि कीरति बिस्तरिहहिं। गाइ गाइ भवनिधि नर तरिहहिम् ॥ मुरुछा गि मारुतसुत जागा। सुग्रीवहि तब खोजन लागा ॥ सुग्रीवहु कै मुरुछा बीती। निबुक गयु तेहि मृतक प्रतीती ॥ काटेसि दसन नासिका काना। गरजि अकास चलु तेहिं जाना ॥ गहेउ चरन गहि भूमि पछारा। अति लाघवँ उठि पुनि तेहि मारा ॥ पुनि आयसु प्रभु पहिं बलवाना। जयति जयति जय कृपानिधाना ॥ नाक कान काटे जियँ जानी। फिरा क्रोध करि भि मन ग्लानी ॥ सहज भीम पुनि बिनु श्रुति नासा। देखत कपि दल उपजी त्रासा ॥ दो. जय जय जय रघुबंस मनि धाए कपि दै हूह। एकहि बार तासु पर छाड़एन्हि गिरि तरु जूह ॥ 66 ॥ कुम्भकरन रन रङ्ग बिरुद्धा। सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा ॥ कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई। जनु टीड़ई गिरि गुहाँ समाई ॥ कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा। कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा ॥ मुख नासा श्रवनन्हि कीं बाटा। निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा ॥ रन मद मत्त निसाचर दर्पा। बिस्व ग्रसिहि जनु एहि बिधि अर्पा ॥ मुरे सुभट सब फिरहिं न फेरे। सूझ न नयन सुनहिं नहिं टेरे ॥ कुम्भकरन कपि फौज बिडारी। सुनि धाई रजनीचर धारी ॥ देखि राम बिकल कटकाई। रिपु अनीक नाना बिधि आई ॥ दो. सुनु सुग्रीव बिभीषन अनुज सँभारेहु सैन। मैं देखुँ खल बल दलहि बोले राजिवनैन ॥ 67 ॥ कर सारङ्ग साजि कटि भाथा। अरि दल दलन चले रघुनाथा ॥ प्रथम कीन्ह प्रभु धनुष टँकोरा। रिपु दल बधिर भयु सुनि सोरा ॥ सत्यसन्ध छाँड़ए सर लच्छा। कालसर्प जनु चले सपच्छा ॥ जहँ तहँ चले बिपुल नाराचा। लगे कटन भट बिकट पिसाचा ॥ कटहिं चरन उर सिर भुजदण्डा। बहुतक बीर होहिं सत खण्डा ॥ घुर्मि घुर्मि घायल महि परहीं। उठि सम्भारि सुभट पुनि लरहीम् ॥ लागत बान जलद जिमि गाजहीं। बहुतक देखी कठिन सर भाजहिम् ॥ रुण्ड प्रचण्ड मुण्ड बिनु धावहिं। धरु धरु मारू मारु धुनि गावहिम् ॥ दो. छन महुँ प्रभु के सायकन्हि काटे बिकट पिसाच। पुनि रघुबीर निषङ्ग महुँ प्रबिसे सब नाराच ॥ 68 ॥ कुम्भकरन मन दीख बिचारी। हति धन माझ निसाचर धारी ॥ भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा। कियो मृगनायक नाद गँभीरा ॥ कोऽपि महीधर लेइ उपारी। डारि जहँ मर्कट भट भारी ॥ आवत देखि सैल प्रभू भारे। सरन्हि काटि रज सम करि डारे ॥ । पुनि धनु तानि कोऽपि रघुनायक। छाँड़ए अति कराल बहु सायक ॥ तनु महुँ प्रबिसि निसरि सर जाहीं। जिमि दामिनि घन माझ समाहीम् ॥ सोनित स्त्रवत सोह तन कारे। जनु कज्जल गिरि गेरु पनारे ॥ बिकल बिलोकि भालु कपि धाए। बिहँसा जबहिं निकट कपि आए ॥ दो. महानाद करि गर्जा कोटि कोटि गहि कीस। महि पटकि गजराज इव सपथ करि दससीस ॥ 69 ॥ भागे भालु बलीमुख जूथा। बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा ॥ चले भागि कपि भालु भवानी। बिकल पुकारत आरत बानी ॥ यह निसिचर दुकाल सम अही। कपिकुल देस परन अब चही ॥ कृपा बारिधर राम खरारी। पाहि पाहि प्रनतारति हारी ॥ सकरुन बचन सुनत भगवाना। चले सुधारि सरासन बाना ॥ राम सेन निज पाछैं घाली। चले सकोप महा बलसाली ॥ खैञ्चि धनुष सर सत सन्धाने। छूटे तीर सरीर समाने ॥ लागत सर धावा रिस भरा। कुधर डगमगत डोलति धरा ॥ लीन्ह एक तेहिं सैल उपाटी। रघुकुल तिलक भुजा सोइ काटी ॥ धावा बाम बाहु गिरि धारी। प्रभु सौ भुजा काटि महि पारी ॥ काटें भुजा सोह खल कैसा। पच्छहीन मन्दर गिरि जैसा ॥ उग्र बिलोकनि प्रभुहि बिलोका। ग्रसन चहत मानहुँ त्रेलोका ॥ दो. करि चिक्कार घोर अति धावा बदनु पसारि। गगन सिद्ध सुर त्रासित हा हा हेति पुकारि ॥ 70 ॥ सभय देव करुनानिधि जान्यो। श्रवन प्रजन्त सरासनु तान्यो ॥ बिसिख निकर निसिचर मुख भरेऊ। तदपि महाबल भूमि न परेऊ ॥ सरन्हि भरा मुख सन्मुख धावा। काल त्रोन सजीव जनु आवा ॥ तब प्रभु कोऽपि तीब्र सर लीन्हा। धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा ॥ सो सिर परेउ दसानन आगें। बिकल भयु जिमि फनि मनि त्यागेम् ॥ धरनि धसि धर धाव प्रचण्डा। तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खण्डा ॥ परे भूमि जिमि नभ तें भूधर। हेठ दाबि कपि भालु निसाचर ॥ तासु तेज प्रभु बदन समाना। सुर मुनि सबहिं अचम्भव माना ॥ सुर दुन्दुभीं बजावहिं हरषहिं। अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिम् ॥ करि बिनती सुर सकल सिधाए। तेही समय देवरिषि आए ॥ गगनोपरि हरि गुन गन गाए। रुचिर बीररस प्रभु मन भाए ॥ बेगि हतहु खल कहि मुनि गे। राम समर महि सोभत भे ॥ छं. सङ्ग्राम भूमि बिराज रघुपति अतुल बल कोसल धनी। श्रम बिन्दु मुख राजीव लोचन अरुन तन सोनित कनी ॥ भुज जुगल फेरत सर सरासन भालु कपि चहु दिसि बने। कह दास तुलसी कहि न सक छबि सेष जेहि आनन घने ॥ दो. निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम। गिरिजा ते नर मन्दमति जे न भजहिं श्रीराम ॥ 71 ॥ दिन कें अन्त फिरीं दौ अनी। समर भी सुभटन्ह श्रम घनी ॥ राम कृपाँ कपि दल बल बाढ़आ। जिमि तृन पाइ लाग अति डाढ़आ ॥ छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती। निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती ॥ बहु बिलाप दसकन्धर करी। बन्धु सीस पुनि पुनि उर धरी ॥ रोवहिं नारि हृदय हति पानी। तासु तेज बल बिपुल बखानी ॥ मेघनाद तेहि अवसर आयु। कहि बहु कथा पिता समुझायु ॥ देखेहु कालि मोरि मनुसाई। अबहिं बहुत का करौं बड़आई ॥ इष्टदेव सैं बल रथ पायुँ। सो बल तात न तोहि देखायुँ ॥ एहि बिधि जल्पत भयु बिहाना। चहुँ दुआर लागे कपि नाना ॥ इत कपि भालु काल सम बीरा। उत रजनीचर अति रनधीरा ॥ लरहिं सुभट निज निज जय हेतू। बरनि न जाइ समर खगकेतू ॥ दो. मेघनाद मायामय रथ चढ़इ गयु अकास ॥ गर्जेउ अट्टहास करि भि कपि कटकहि त्रास ॥ 72 ॥ सक्ति सूल तरवारि कृपाना। अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना ॥ डारह परसु परिघ पाषाना। लागेउ बृष्टि करै बहु बाना ॥ दस दिसि रहे बान नभ छाई। मानहुँ मघा मेघ झरि लाई ॥ धरु धरु मारु सुनिअ धुनि काना। जो मारि तेहि कौ न जाना ॥ गहि गिरि तरु अकास कपि धावहिं। देखहि तेहि न दुखित फिरि आवहिम् ॥ अवघट घाट बाट गिरि कन्दर। माया बल कीन्हेसि सर पञ्जर ॥ जाहिं कहाँ ब्याकुल भे बन्दर। सुरपति बन्दि परे जनु मन्दर ॥ मारुतसुत अङ्गद नल नीला। कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला ॥ पुनि लछिमन सुग्रीव बिभीषन। सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन ॥ पुनि रघुपति सैं जूझे लागा। सर छाँड़इ होइ लागहिं नागा ॥ ब्याल पास बस भे खरारी। स्वबस अनन्त एक अबिकारी ॥ नट इव कपट चरित कर नाना। सदा स्वतन्त्र एक भगवाना ॥ रन सोभा लगि प्रभुहिं बँधायो। नागपास देवन्ह भय पायो ॥ दो. गिरिजा जासु नाम जपि मुनि काटहिं भव पास। सो कि बन्ध तर आवि ब्यापक बिस्व निवास ॥ 73 ॥ चरित राम के सगुन भवानी। तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी ॥ अस बिचारि जे तग्य बिरागी। रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी ॥ ब्याकुल कटकु कीन्ह घननादा। पुनि भा प्रगट कहि दुर्बादा ॥ जामवन्त कह खल रहु ठाढ़आ। सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढ़आ ॥ बूढ़ जानि सठ छाँड़एउँ तोही। लागेसि अधम पचारै मोही ॥ अस कहि तरल त्रिसूल चलायो। जामवन्त कर गहि सोइ धायो ॥ मारिसि मेघनाद कै छाती। परा भूमि घुर्मित सुरघाती ॥ पुनि रिसान गहि चरन फिरायौ। महि पछारि निज बल देखरायो ॥ बर प्रसाद सो मरि न मारा। तब गहि पद लङ्का पर डारा ॥ इहाँ देवरिषि गरुड़ पठायो। राम समीप सपदि सो आयो ॥ दो. खगपति सब धरि खाए माया नाग बरूथ। माया बिगत भे सब हरषे बानर जूथ। 74(क) ॥ गहि गिरि पादप उपल नख धाए कीस रिसाइ। चले तमीचर बिकलतर गढ़ पर चढ़ए पराइ ॥ 74(ख) ॥ मेघनाद के मुरछा जागी। पितहि बिलोकि लाज अति लागी ॥ तुरत गयु गिरिबर कन्दरा। करौं अजय मख अस मन धरा ॥ इहाँ बिभीषन मन्त्र बिचारा। सुनहु नाथ बल अतुल उदारा ॥ मेघनाद मख करि अपावन। खल मायावी देव सतावन ॥ जौं प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि। नाथ बेगि पुनि जीति न जाइहि ॥ सुनि रघुपति अतिसय सुख माना। बोले अङ्गदादि कपि नाना ॥ लछिमन सङ्ग जाहु सब भाई। करहु बिधंस जग्य कर जाई ॥ तुम्ह लछिमन मारेहु रन ओही। देखि सभय सुर दुख अति मोही ॥ मारेहु तेहि बल बुद्धि उपाई। जेहिं छीजै निसिचर सुनु भाई ॥ जामवन्त सुग्रीव बिभीषन। सेन समेत रहेहु तीनिउ जन ॥ जब रघुबीर दीन्हि अनुसासन। कटि निषङ्ग कसि साजि सरासन ॥ प्रभु प्रताप उर धरि रनधीरा। बोले घन इव गिरा गँभीरा ॥ जौं तेहि आजु बधें बिनु आवौं। तौ रघुपति सेवक न कहावौम् ॥ जौं सत सङ्कर करहिं सहाई। तदपि हतुँ रघुबीर दोहाई ॥ दो. रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरन्त अनन्त। अङ्गद नील मयन्द नल सङ्ग सुभट हनुमन्त ॥ 75 ॥ जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा। आहुति देत रुधिर अरु भैंसा ॥ कीन्ह कपिन्ह सब जग्य बिधंसा। जब न उठि तब करहिं प्रसंसा ॥ तदपि न उठि धरेन्हि कच जाई। लातन्हि हति हति चले पराई ॥ लै त्रिसुल धावा कपि भागे। आए जहँ रामानुज आगे ॥ आवा परम क्रोध कर मारा। गर्ज घोर रव बारहिं बारा ॥ कोऽपि मरुतसुत अङ्गद धाए। हति त्रिसूल उर धरनि गिराए ॥ प्रभु कहँ छाँड़एसि सूल प्रचण्डा। सर हति कृत अनन्त जुग खण्डा ॥ उठि बहोरि मारुति जुबराजा। हतहिं कोऽपि तेहि घाउ न बाजा ॥ फिरे बीर रिपु मरि न मारा। तब धावा करि घोर चिकारा ॥ आवत देखि क्रुद्ध जनु काला। लछिमन छाड़ए बिसिख कराला ॥ देखेसि आवत पबि सम बाना। तुरत भयु खल अन्तरधाना ॥ बिबिध बेष धरि करि लराई। कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई ॥ देखि अजय रिपु डरपे कीसा। परम क्रुद्ध तब भयु अहीसा ॥ लछिमन मन अस मन्त्र दृढ़आवा। एहि पापिहि मैं बहुत खेलावा ॥ सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा। सर सन्धान कीन्ह करि दापा ॥ छाड़आ बान माझ उर लागा। मरती बार कपटु सब त्यागा ॥ दो. रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँड़एसि प्रान। धन्य धन्य तव जननी कह अङ्गद हनुमान ॥ 76 ॥ बिनु प्रयास हनुमान उठायो। लङ्का द्वार राखि पुनि आयो ॥ तासु मरन सुनि सुर गन्धर्बा। चढ़इ बिमान आए नभ सर्बा ॥ बरषि सुमन दुन्दुभीं बजावहिं। श्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिम् ॥ जय अनन्त जय जगदाधारा। तुम्ह प्रभु सब देवन्हि निस्तारा ॥ अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाए। लछिमन कृपासिन्धु पहिं आए ॥ सुत बध सुना दसानन जबहीं। मुरुछित भयु परेउ महि तबहीम् ॥ मन्दोदरी रुदन कर भारी। उर ताड़न बहु भाँति पुकारी ॥ नगर लोग सब ब्याकुल सोचा। सकल कहहिं दसकन्धर पोचा ॥ दो. तब दसकण्ठ बिबिध बिधि समुझाईं सब नारि। नस्वर रूप जगत सब देखहु हृदयँ बिचारि ॥ 77 ॥ तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन। आपुन मन्द कथा सुभ पावन ॥ पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे ॥ निसा सिरानि भयु भिनुसारा। लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा ॥ सुभट बोलाइ दसानन बोला। रन सन्मुख जा कर मन डोला ॥ सो अबहीं बरु जाउ पराई। सञ्जुग बिमुख भेँ न भलाई ॥ निज भुज बल मैं बयरु बढ़आवा। देहुँ उतरु जो रिपु चढ़इ आवा ॥ अस कहि मरुत बेग रथ साजा। बाजे सकल जुझ्AU बाजा ॥ चले बीर सब अतुलित बली। जनु कज्जल कै आँधी चली ॥ असगुन अमित होहिं तेहि काला। गनि न भुजबल गर्ब बिसाला ॥ छं. अति गर्ब गनि न सगुन असगुन स्त्रवहिं आयुध हाथ ते। भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते ॥ गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने। जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने ॥ दो. ताहि कि सम्पति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम। भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम ॥ 78 ॥ चलेउ निसाचर कटकु अपारा। चतुरङ्गिनी अनी बहु धारा ॥ बिबिध भाँति बाहन रथ जाना। बिपुल बरन पताक ध्वज नाना ॥ चले मत्त गज जूथ घनेरे। प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे ॥ बरन बरद बिरदैत निकाया। समर सूर जानहिं बहु माया ॥ अति बिचित्र बाहिनी बिराजी। बीर बसन्त सेन जनु साजी ॥ चलत कटक दिगसिधुंर डगहीं। छुभित पयोधि कुधर डगमगहीम् ॥ उठी रेनु रबि गयु छपाई। मरुत थकित बसुधा अकुलाई ॥ पनव निसान घोर रव बाजहिं। प्रलय समय के घन जनु गाजहिम् ॥ भेरि नफीरि बाज सहनाई। मारू राग सुभट सुखदाई ॥ केहरि नाद बीर सब करहीं। निज निज बल पौरुष उच्चरहीम् ॥ कहि दसानन सुनहु सुभट्टा। मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा ॥ हौं मारिहुँ भूप द्वौ भाई। अस कहि सन्मुख फौज रेङ्गाई ॥ यह सुधि सकल कपिन्ह जब पाई। धाए करि रघुबीर दोहाई ॥ छं. धाए बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते। मानहुँ सपच्छ उड़आहिं भूधर बृन्द नाना बान ते ॥ नख दसन सैल महाद्रुमायुध सबल सङ्क न मानहीं। जय राम रावन मत्त गज मृगराज सुजसु बखानहीम् ॥ दो. दुहु दिसि जय जयकार करि निज निज जोरी जानि। भिरे बीर इत रामहि उत रावनहि बखानि ॥ 79 ॥ रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयु अधीरा ॥ अधिक प्रीति मन भा सन्देहा। बन्दि चरन कह सहित सनेहा ॥ नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना ॥ सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यन्दन आना ॥ सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका ॥ बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे ॥ ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म सन्तोष कृपाना ॥ दान परसु बुधि सक्ति प्रचण्ड़आ। बर बिग्यान कठिन कोदण्डा ॥ अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना ॥ कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा ॥ सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकेम् ॥ दो. महा अजय संसार रिपु जीति सकि सो बीर। जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर ॥ 80(क) ॥ सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कञ्ज। एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुञ्ज ॥ 80(ख) ॥ उत पचार दसकन्धर इत अङ्गद हनुमान। लरत निसाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आन ॥ 80(ग) ॥ सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ चढ़ए बिमाना ॥ हमहू उमा रहे तेहि सङ्गा। देखत राम चरित रन रङ्गा ॥ सुभट समर रस दुहु दिसि माते। कपि जयसील राम बल ताते ॥ एक एक सन भिरहिं पचारहिं। एकन्ह एक मर्दि महि पारहिम् ॥ मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं। सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिम् ॥ उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं। गहि पद अवनि पटकि भट डारहिम् ॥ निसिचर भट महि गाड़हि भालू। ऊपर ढारि देहिं बहु बालू ॥ बीर बलिमुख जुद्ध बिरुद्धे। देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे ॥ छं. क्रुद्धे कृतान्त समान कपि तन स्त्रवत सोनित राजहीं। मर्दहिं निसाचर कटक भट बलवन्त घन जिमि गाजहीम् ॥ मारहिं चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं। चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहिं खल छीजहीम् ॥ धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं। प्रहलादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अङ्गन खेलहीम् ॥ धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही। जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही ॥ दो. निज दल बिचलत देखेसि बीस भुजाँ दस चाप। रथ चढ़इ चलेउ दसानन फिरहु फिरहु करि दाप ॥ 81 ॥ धायु परम क्रुद्ध दसकन्धर। सन्मुख चले हूह दै बन्दर ॥ गहि कर पादप उपल पहारा। डारेन्हि ता पर एकहिं बारा ॥ लागहिं सैल बज्र तन तासू। खण्ड खण्ड होइ फूटहिं आसू ॥ चला न अचल रहा रथ रोपी। रन दुर्मद रावन अति कोपी ॥ इत उत झपटि दपटि कपि जोधा। मर्दै लाग भयु अति क्रोधा ॥ चले पराइ भालु कपि नाना। त्राहि त्राहि अङ्गद हनुमाना ॥ पाहि पाहि रघुबीर गोसाई। यह खल खाइ काल की नाई ॥ तेहि देखे कपि सकल पराने। दसहुँ चाप सायक सन्धाने ॥ छं. सन्धानि धनु सर निकर छाड़एसि उरग जिमि उड़इ लागहीं। रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदसि कहँ कपि भागहीम् ॥ भयो अति कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुरे। रघुबीर करुना सिन्धु आरत बन्धु जन रच्छक हरे ॥ दो. निज दल बिकल देखि कटि कसि निषङ्ग धनु हाथ। लछिमन चले क्रुद्ध होइ नाइ राम पद माथ ॥ 82 ॥ रे खल का मारसि कपि भालू। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू ॥ खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती। आजु निपाति जुड़आवुँ छाती ॥ अस कहि छाड़एसि बान प्रचण्डा। लछिमन किए सकल सत खण्डा ॥ कोटिन्ह आयुध रावन डारे। तिल प्रवान करि काटि निवारे ॥ पुनि निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा। स्यन्दनु भञ्जि सारथी मारा ॥ सत सत सर मारे दस भाला। गिरि सृङ्गन्ह जनु प्रबिसहिं ब्याला ॥ पुनि सत सर मारा उर माहीं। परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीम् ॥ उठा प्रबल पुनि मुरुछा जागी। छाड़इसि ब्रह्म दीन्हि जो साँगी ॥ छं. सो ब्रह्म दत्त प्रचण्ड सक्ति अनन्त उर लागी सही। पर्यो बीर बिकल उठाव दसमुख अतुल बल महिमा रही ॥ ब्रह्माण्ड भवन बिराज जाकें एक सिर जिमि रज कनी। तेहि चह उठावन मूढ़ रावन जान नहिं त्रिभुअन धनी ॥ दो. देखि पवनसुत धायु बोलत बचन कठोर। आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर ॥ 83 ॥ जानु टेकि कपि भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा ॥ मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा ॥ मुरुछा गै बहोरि सो जागा। कपि बल बिपुल सराहन लागा ॥ धिग धिग मम पौरुष धिग मोही। जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही ॥ अस कहि लछिमन कहुँ कपि ल्यायो। देखि दसानन बिसमय पायो ॥ कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता। तुम्ह कृतान्त भच्छक सुर त्राता ॥ सुनत बचन उठि बैठ कृपाला। गी गगन सो सकति कराला ॥ पुनि कोदण्ड बान गहि धाए। रिपु सन्मुख अति आतुर आए ॥ छं. आतुर बहोरि बिभञ्जि स्यन्दन सूत हति ब्याकुल कियो। गिर् यो धरनि दसकन्धर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो ॥ सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लङ्का लै गयो। रघुबीर बन्धु प्रताप पुञ्ज बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो ॥ दो. उहाँ दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य। राम बिरोध बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य ॥ 84 ॥ इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई ॥ नाथ करि रावन एक जागा। सिद्ध भेँ नहिं मरिहि अभागा ॥ पठवहु नाथ बेगि भट बन्दर। करहिं बिधंस आव दसकन्धर ॥ प्रात होत प्रभु सुभट पठाए। हनुमदादि अङ्गद सब धाए ॥ कौतुक कूदि चढ़ए कपि लङ्का। पैठे रावन भवन असङ्का ॥ जग्य करत जबहीं सो देखा। सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा ॥ रन ते निलज भाजि गृह आवा। इहाँ आइ बक ध्यान लगावा ॥ अस कहि अङ्गद मारा लाता। चितव न सठ स्वारथ मन राता ॥ छं. नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं। धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीम् ॥ तब उठेउ क्रुद्ध कृतान्त सम गहि चरन बानर डारी। एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारी ॥ दो. जग्य बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास। चलेउ निसाचर क्रुर्द्ध होइ त्यागि जिवन कै आस ॥ 85 ॥ चलत होहिं अति असुभ भयङ्कर। बैठहिं गीध उड़आइ सिरन्ह पर ॥ भयु कालबस काहु न माना। कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना ॥ चली तमीचर अनी अपारा। बहु गज रथ पदाति असवारा ॥ प्रभु सन्मुख धाए खल कैंसें। सलभ समूह अनल कहँ जैंसेम् ॥ इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही। दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही ॥ अब जनि राम खेलावहु एही। अतिसय दुखित होति बैदेही ॥ देव बचन सुनि प्रभु मुसकाना। उठि रघुबीर सुधारे बाना। जटा जूट दृढ़ बाँधै माथे। सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे ॥ अरुन नयन बारिद तनु स्यामा। अखिल लोक लोचनाभिरामा ॥ कटितट परिकर कस्यो निषङ्गा। कर कोदण्ड कठिन सारङ्गा ॥ छं. सारङ्ग कर सुन्दर निषङ्ग सिलीमुखाकर कटि कस्यो। भुजदण्ड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो ॥ कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे। ब्रह्माण्ड दिग्गज कमठ अहि महि सिन्धु भूधर डगमगे ॥ दो. सोभा देखि हरषि सुर बरषहिं सुमन अपार। जय जय जय करुनानिधि छबि बल गुन आगार ॥ 86 ॥ एहीं बीच निसाचर अनी। कसमसात आई अति घनी। देखि चले सन्मुख कपि भट्टा। प्रलयकाल के जनु घन घट्टा ॥ बहु कृपान तरवारि चमङ्कहिं। जनु दहँ दिसि दामिनीं दमङ्कहिम् ॥ गज रथ तुरग चिकार कठोरा। गर्जहिं मनहुँ बलाहक घोरा ॥ कपि लङ्गूर बिपुल नभ छाए। मनहुँ इन्द्रधनु उए सुहाए ॥ उठि धूरि मानहुँ जलधारा। बान बुन्द भै बृष्टि अपारा ॥ दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा। बज्रपात जनु बारहिं बारा ॥ रघुपति कोऽपि बान झरि लाई। घायल भै निसिचर समुदाई ॥ लागत बान बीर चिक्करहीं। घुर्मि घुर्मि जहँ तहँ महि परहीम् ॥ स्त्रवहिं सैल जनु निर्झर भारी। सोनित सरि कादर भयकारी ॥ छं. कादर भयङ्कर रुधिर सरिता चली परम अपावनी। दौ कूल दल रथ रेत चक्र अबर्त बहति भयावनी ॥ जल जन्तुगज पदचर तुरग खर बिबिध बाहन को गने। सर सक्ति तोमर सर्प चाप तरङ्ग चर्म कमठ घने ॥ दो. बीर परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन। कादर देखि डरहिं तहँ सुभटन्ह के मन चेन ॥ 87 ॥ मज्जहि भूत पिसाच बेताला। प्रमथ महा झोटिङ्ग कराला ॥ काक कङ्क लै भुजा उड़आहीं। एक ते छीनि एक लै खाहीम् ॥ एक कहहिं ऐसिउ सौङ्घाई। सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई ॥ कहँरत भट घायल तट गिरे। जहँ तहँ मनहुँ अर्धजल परे ॥ खैञ्चहिं गीध आँत तट भे। जनु बंसी खेलत चित दे ॥ बहु भट बहहिं चढ़ए खग जाहीं। जनु नावरि खेलहिं सरि माहीम् ॥ जोगिनि भरि भरि खप्पर सञ्चहिं। भूत पिसाच बधू नभ नञ्चहिम् ॥ भट कपाल करताल बजावहिं। चामुण्डा नाना बिधि गावहिम् ॥ जम्बुक निकर कटक्कट कट्टहिं। खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिम् ॥ कोटिन्ह रुण्ड मुण्ड बिनु डोल्लहिं। सीस परे महि जय जय बोल्लहिम् ॥ छं. बोल्लहिं जो जय जय मुण्ड रुण्ड प्रचण्ड सिर बिनु धावहीं। खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीम् ॥ बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भे। सङ्ग्राम अङ्गन सुभट सोवहिं राम सर निकरन्हि हे ॥ दो. रावन हृदयँ बिचारा भा निसिचर सङ्घार। मैं अकेल कपि भालु बहु माया करौं अपार ॥ 88 ॥ देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा। उपजा उर अति छोभ बिसेषा ॥ सुरपति निज रथ तुरत पठावा। हरष सहित मातलि लै आवा ॥ तेज पुञ्ज रथ दिब्य अनूपा। हरषि चढ़ए कोसलपुर भूपा ॥ चञ्चल तुरग मनोहर चारी। अजर अमर मन सम गतिकारी ॥ रथारूढ़ रघुनाथहि देखी। धाए कपि बलु पाइ बिसेषी ॥ सही न जाइ कपिन्ह कै मारी। तब रावन माया बिस्तारी ॥ सो माया रघुबीरहि बाँची। लछिमन कपिन्ह सो मानी साँची ॥ देखी कपिन्ह निसाचर अनी। अनुज सहित बहु कोसलधनी ॥ छं. बहु राम लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे। जनु चित्र लिखित समेत लछिमन जहँ सो तहँ चितवहिं खरे ॥ निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसल धनी। माया हरी हरि निमिष महुँ हरषी सकल मर्कट अनी ॥ दो. बहुरि राम सब तन चिति बोले बचन गँभीर। द्वन्दजुद्ध देखहु सकल श्रमित भे अति बीर ॥ 89 ॥ अस कहि रथ रघुनाथ चलावा। बिप्र चरन पङ्कज सिरु नावा ॥ तब लङ्केस क्रोध उर छावा। गर्जत तर्जत सन्मुख धावा ॥ जीतेहु जे भट सञ्जुग माहीं। सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीम् ॥ रावन नाम जगत जस जाना। लोकप जाकें बन्दीखाना ॥ खर दूषन बिराध तुम्ह मारा। बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा ॥ निसिचर निकर सुभट सङ्घारेहु। कुम्भकरन घननादहि मारेहु ॥ आजु बयरु सबु लेउँ निबाही। जौं रन भूप भाजि नहिं जाहीम् ॥ आजु करुँ खलु काल हवाले। परेहु कठिन रावन के पाले ॥ सुनि दुर्बचन कालबस जाना। बिहँसि बचन कह कृपानिधाना ॥ सत्य सत्य सब तव प्रभुताई। जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई ॥ छं. जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा। संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा ॥ एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलि केवल लागहीं। एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीम् ॥ दो. राम बचन सुनि बिहँसा मोहि सिखावत ग्यान। बयरु करत नहिं तब डरे अब लागे प्रिय प्रान ॥ 90 ॥ कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकन्धर। कुलिस समान लाग छाँड़ऐ सर ॥ नानाकार सिलीमुख धाए। दिसि अरु बिदिस गगन महि छाए ॥ पावक सर छाँड़एउ रघुबीरा। छन महुँ जरे निसाचर तीरा ॥ छाड़इसि तीब्र सक्ति खिसिआई। बान सङ्ग प्रभु फेरि चलाई ॥ कोटिक चक्र त्रिसूल पबारै। बिनु प्रयास प्रभु काटि निवारै ॥ निफल होहिं रावन सर कैसें। खल के सकल मनोरथ जैसेम् ॥ तब सत बान सारथी मारेसि। परेउ भूमि जय राम पुकारेसि ॥ राम कृपा करि सूत उठावा। तब प्रभु परम क्रोध कहुँ पावा ॥ छं. भे क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे। कोदण्ड धुनि अति चण्ड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रसे ॥ मँदोदरी उर कम्प कम्पति कमठ भू भूधर त्रसे। चिक्करहिं दिग्गज दसन गहि महि देखि कौतुक सुर हँसे ॥ दो. तानेउ चाप श्रवन लगि छाँड़ए बिसिख कराल। राम मारगन गन चले लहलहात जनु ब्याल ॥ 91 ॥ चले बान सपच्छ जनु उरगा। प्रथमहिं हतेउ सारथी तुरगा ॥ रथ बिभञ्जि हति केतु पताका। गर्जा अति अन्तर बल थाका ॥ तुरत आन रथ चढ़इ खिसिआना। अस्त्र सस्त्र छाँड़एसि बिधि नाना ॥ बिफल होहिं सब उद्यम ताके। जिमि परद्रोह निरत मनसा के ॥ तब रावन दस सूल चलावा। बाजि चारि महि मारि गिरावा ॥ तुरग उठाइ कोऽपि रघुनायक। खैञ्चि सरासन छाँड़ए सायक ॥ रावन सिर सरोज बनचारी। चलि रघुबीर सिलीमुख धारी ॥ दस दस बान भाल दस मारे। निसरि गे चले रुधिर पनारे ॥ स्त्रवत रुधिर धायु बलवाना। प्रभु पुनि कृत धनु सर सन्धाना ॥ तीस तीर रघुबीर पबारे। भुजन्हि समेत सीस महि पारे ॥ काटतहीं पुनि भे नबीने। राम बहोरि भुजा सिर छीने ॥ प्रभु बहु बार बाहु सिर हे। कटत झटिति पुनि नूतन भे ॥ पुनि पुनि प्रभु काटत भुज सीसा। अति कौतुकी कोसलाधीसा ॥ रहे छाइ नभ सिर अरु बाहू। मानहुँ अमित केतु अरु राहू ॥ छं. जनु राहु केतु अनेक नभ पथ स्त्रवत सोनित धावहीं। रघुबीर तीर प्रचण्ड लागहिं भूमि गिरन न पावहीम् ॥ एक एक सर सिर निकर छेदे नभ उड़त इमि सोहहीं। जनु कोऽपि दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुन्तुद पोहहीम् ॥ दो. जिमि जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि तिमि होहिं अपार। सेवत बिषय बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार ॥ 92 ॥ दसमुख देखि सिरन्ह कै बाढ़ई। बिसरा मरन भी रिस गाढ़ई ॥ गर्जेउ मूढ़ महा अभिमानी। धायु दसहु सरासन तानी ॥ समर भूमि दसकन्धर कोप्यो। बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो ॥ दण्ड एक रथ देखि न परेऊ। जनु निहार महुँ दिनकर दुरेऊ ॥ हाहाकार सुरन्ह जब कीन्हा। तब प्रभु कोऽपि कारमुक लीन्हा ॥ सर निवारि रिपु के सिर काटे। ते दिसि बिदिस गगन महि पाटे ॥ काटे सिर नभ मारग धावहिं। जय जय धुनि करि भय उपजावहिम् ॥ कहँ लछिमन सुग्रीव कपीसा। कहँ रघुबीर कोसलाधीसा ॥ छं. कहँ रामु कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले। सन्धानि धनु रघुबंसमनि हँसि सरन्हि सिर बेधे भले ॥ सिर मालिका कर कालिका गहि बृन्द बृन्दन्हि बहु मिलीं। करि रुधिर सरि मज्जनु मनहुँ सङ्ग्राम बट पूजन चलीम् ॥ दो. पुनि दसकण्ठ क्रुद्ध होइ छाँड़ई सक्ति प्रचण्ड। चली बिभीषन सन्मुख मनहुँ काल कर दण्ड ॥ 93 ॥ आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भञ्जन पन मोरा ॥ तुरत बिभीषन पाछें मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला ॥ लागि सक्ति मुरुछा कछु भी। प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकली ॥ देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो। गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो ॥ रे कुभाग्य सठ मन्द कुबुद्धे। तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे ॥ सादर सिव कहुँ सीस चढ़आए। एक एक के कोटिन्ह पाए ॥ तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो। अब तव कालु सीस पर नाच्यो ॥ राम बिमुख सठ चहसि सम्पदा। अस कहि हनेसि माझ उर गदा ॥ छं. उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि पर् यो। दस बदन सोनित स्त्रवत पुनि सम्भारि धायो रिस भर् यो ॥ द्वौ भिरे अतिबल मल्लजुद्ध बिरुद्ध एकु एकहि हनै। रघुबीर बल दर्पित बिभीषनु घालि नहिं ता कहुँ गनै ॥ दो. उमा बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ। सो अब भिरत काल ज्यों श्रीरघुबीर प्रभाउ ॥ 94 ॥ देखा श्रमित बिभीषनु भारी। धायु हनूमान गिरि धारी ॥ रथ तुरङ्ग सारथी निपाता। हृदय माझ तेहि मारेसि लाता ॥ ठाढ़ रहा अति कम्पित गाता। गयु बिभीषनु जहँ जनत्राता ॥ पुनि रावन कपि हतेउ पचारी। चलेउ गगन कपि पूँछ पसारी ॥ गहिसि पूँछ कपि सहित उड़आना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना ॥ लरत अकास जुगल सम जोधा। एकहि एकु हनत करि क्रोधा ॥ सोहहिं नभ छल बल बहु करहीं। कज्जल गिरि सुमेरु जनु लरहीम् ॥ बुधि बल निसिचर परि न पार् यो। तब मारुत सुत प्रभु सम्भार् यो ॥ छं. सम्भारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यो। महि परत पुनि उठि लरत देवन्ह जुगल कहुँ जय जय भन्यो ॥ हनुमन्त सङ्कट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले। रन मत्त रावन सकल सुभट प्रचण्ड भुज बल दलमले ॥ दो. तब रघुबीर पचारे धाए कीस प्रचण्ड। कपि बल प्रबल देखि तेहिं कीन्ह प्रगट पाषण्ड ॥ 95 ॥ अन्तरधान भयु छन एका। पुनि प्रगटे खल रूप अनेका ॥ रघुपति कटक भालु कपि जेते। जहँ तहँ प्रगट दसानन तेते ॥ देखे कपिन्ह अमित दससीसा। जहँ तहँ भजे भालु अरु कीसा ॥ भागे बानर धरहिं न धीरा। त्राहि त्राहि लछिमन रघुबीरा ॥ दहँ दिसि धावहिं कोटिन्ह रावन। गर्जहिं घोर कठोर भयावन ॥ डरे सकल सुर चले पराई। जय कै आस तजहु अब भाई ॥ सब सुर जिते एक दसकन्धर। अब बहु भे तकहु गिरि कन्दर ॥ रहे बिरञ्चि सम्भु मुनि ग्यानी। जिन्ह जिन्ह प्रभु महिमा कछु जानी ॥ छं. जाना प्रताप ते रहे निर्भय कपिन्ह रिपु माने फुरे। चले बिचलि मर्कट भालु सकल कृपाल पाहि भयातुरे ॥ हनुमन्त अङ्गद नील नल अतिबल लरत रन बाँकुरे। मर्दहिं दसानन कोटि कोटिन्ह कपट भू भट अङ्कुरे ॥ दो. सुर बानर देखे बिकल हँस्यो कोसलाधीस। सजि सारङ्ग एक सर हते सकल दससीस ॥ 96 ॥ प्रभु छन महुँ माया सब काटी। जिमि रबि उएँ जाहिं तम फाटी ॥ रावनु एकु देखि सुर हरषे। फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरषे ॥ भुज उठाइ रघुपति कपि फेरे। फिरे एक एकन्ह तब टेरे ॥ प्रभु बलु पाइ भालु कपि धाए। तरल तमकि सञ्जुग महि आए ॥ अस्तुति करत देवतन्हि देखें। भयुँ एक मैं इन्ह के लेखेम् ॥ सठहु सदा तुम्ह मोर मरायल। अस कहि कोऽपि गगन पर धायल ॥ हाहाकार करत सुर भागे। खलहु जाहु कहँ मोरें आगे ॥ देखि बिकल सुर अङ्गद धायो। कूदि चरन गहि भूमि गिरायो ॥ छं. गहि भूमि पार् यो लात मार् यो बालिसुत प्रभु पहिं गयो। सम्भारि उठि दसकण्ठ घोर कठोर रव गर्जत भयो ॥ करि दाप चाप चढ़आइ दस सन्धानि सर बहु बरषी। किए सकल भट घायल भयाकुल देखि निज बल हरषी ॥ दो. तब रघुपति रावन के सीस भुजा सर चाप। काटे बहुत बढ़ए पुनि जिमि तीरथ कर पाप। 97 ॥ सिर भुज बाढ़इ देखि रिपु केरी। भालु कपिन्ह रिस भी घनेरी ॥ मरत न मूढ़ कटेउ भुज सीसा। धाए कोऽपि भालु भट कीसा ॥ बालितनय मारुति नल नीला। बानरराज दुबिद बलसीला ॥ बिटप महीधर करहिं प्रहारा। सोइ गिरि तरु गहि कपिन्ह सो मारा ॥ एक नखन्हि रिपु बपुष बिदारी। भागि चलहिं एक लातन्ह मारी ॥ तब नल नील सिरन्हि चढ़इ गयू। नखन्हि लिलार बिदारत भयू ॥ रुधिर देखि बिषाद उर भारी। तिन्हहि धरन कहुँ भुजा पसारी ॥ गहे न जाहिं करन्हि पर फिरहीं। जनु जुग मधुप कमल बन चरहीम् ॥ कोऽपि कूदि द्वौ धरेसि बहोरी। महि पटकत भजे भुजा मरोरी ॥ पुनि सकोप दस धनु कर लीन्हे। सरन्हि मारि घायल कपि कीन्हे ॥ हनुमदादि मुरुछित करि बन्दर। पाइ प्रदोष हरष दसकन्धर ॥ मुरुछित देखि सकल कपि बीरा। जामवन्त धायु रनधीरा ॥ सङ्ग भालु भूधर तरु धारी। मारन लगे पचारि पचारी ॥ भयु क्रुद्ध रावन बलवाना। गहि पद महि पटकि भट नाना ॥ देखि भालुपति निज दल घाता। कोऽपि माझ उर मारेसि लाता ॥ छं. उर लात घात प्रचण्ड लागत बिकल रथ ते महि परा। गहि भालु बीसहुँ कर मनहुँ कमलन्हि बसे निसि मधुकरा ॥ मुरुछित बिलोकि बहोरि पद हति भालुपति प्रभु पहिं गयौ। निसि जानि स्यन्दन घालि तेहि तब सूत जतनु करत भयो ॥ दो. मुरुछा बिगत भालु कपि सब आए प्रभु पास। निसिचर सकल रावनहि घेरि रहे अति त्रास ॥ 98 ॥ मासपारायण, छब्बीसवाँ विश्राम तेही निसि सीता पहिं जाई। त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई ॥ सिर भुज बाढ़इ सुनत रिपु केरी। सीता उर भि त्रास घनेरी ॥ मुख मलीन उपजी मन चिन्ता। त्रिजटा सन बोली तब सीता ॥ होइहि कहा कहसि किन माता। केहि बिधि मरिहि बिस्व दुखदाता ॥ रघुपति सर सिर कटेहुँ न मरी। बिधि बिपरीत चरित सब करी ॥ मोर अभाग्य जिआवत ओही। जेहिं हौ हरि पद कमल बिछोही ॥ जेहिं कृत कपट कनक मृग झूठा। अजहुँ सो दैव मोहि पर रूठा ॥ जेहिं बिधि मोहि दुख दुसह सहाए। लछिमन कहुँ कटु बचन कहाए ॥ रघुपति बिरह सबिष सर भारी। तकि तकि मार बार बहु मारी ॥ ऐसेहुँ दुख जो राख मम प्राना। सोइ बिधि ताहि जिआव न आना ॥ बहु बिधि कर बिलाप जानकी। करि करि सुरति कृपानिधान की ॥ कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी। उर सर लागत मरि सुरारी ॥ प्रभु ताते उर हति न तेही। एहि के हृदयँ बसति बैदेही ॥ छं. एहि के हृदयँ बस जानकी जानकी उर मम बास है। मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है ॥ सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटाँ कहा। अब मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुन्दरि तजहि संसय महा ॥ दो. काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तव ध्यान। तब रावनहि हृदय महुँ मरिहहिं रामु सुजान ॥ 99 ॥ अस कहि बहुत भाँति समुझाई। पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई ॥ राम सुभाउ सुमिरि बैदेही। उपजी बिरह बिथा अति तेही ॥ निसिहि ससिहि निन्दति बहु भाँती। जुग सम भी सिराति न राती ॥ करति बिलाप मनहिं मन भारी। राम बिरहँ जानकी दुखारी ॥ जब अति भयु बिरह उर दाहू। फरकेउ बाम नयन अरु बाहू ॥ सगुन बिचारि धरी मन धीरा। अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा ॥ इहाँ अर्धनिसि रावनु जागा। निज सारथि सन खीझन लागा ॥ सठ रनभूमि छड़आइसि मोही। धिग धिग अधम मन्दमति तोही ॥ तेहिं पद गहि बहु बिधि समुझावा। भौरु भेँ रथ चढ़इ पुनि धावा ॥ सुनि आगवनु दसानन केरा। कपि दल खरभर भयु घनेरा ॥ जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी। धाए कटकटाइ भट भारी ॥ छं. धाए जो मर्कट बिकट भालु कराल कर भूधर धरा। अति कोप करहिं प्रहार मारत भजि चले रजनीचरा ॥ बिचलाइ दल बलवन्त कीसन्ह घेरि पुनि रावनु लियो। चहुँ दिसि चपेटन्हि मारि नखन्हि बिदारि तनु ब्याकुल कियो ॥ दो. देखि महा मर्कट प्रबल रावन कीन्ह बिचार। अन्तरहित होइ निमिष महुँ कृत माया बिस्तार ॥ 100 ॥ छं. जब कीन्ह तेहिं पाषण्ड। भे प्रगट जन्तु प्रचण्ड ॥ बेताल भूत पिसाच। कर धरें धनु नाराच ॥ 1 ॥ जोगिनि गहें करबाल। एक हाथ मनुज कपाल ॥ करि सद्य सोनित पान। नाचहिं करहिं बहु गान ॥ 2 ॥ धरु मारु बोलहिं घोर। रहि पूरि धुनि चहुँ ओर ॥ मुख बाइ धावहिं खान। तब लगे कीस परान ॥ 3 ॥ जहँ जाहिं मर्कट भागि। तहँ बरत देखहिं आगि ॥ भे बिकल बानर भालु। पुनि लाग बरषै बालु ॥ 4 ॥ जहँ तहँ थकित करि कीस। गर्जेउ बहुरि दससीस ॥ लछिमन कपीस समेत। भे सकल बीर अचेत ॥ 5 ॥ हा राम हा रघुनाथ। कहि सुभट मीजहिं हाथ ॥ एहि बिधि सकल बल तोरि। तेहिं कीन्ह कपट बहोरि ॥ 6 ॥ प्रगटेसि बिपुल हनुमान। धाए गहे पाषान ॥ तिन्ह रामु घेरे जाइ। चहुँ दिसि बरूथ बनाइ ॥ 7 ॥ मारहु धरहु जनि जाइ। कटकटहिं पूँछ उठाइ ॥ दहँ दिसि लँगूर बिराज। तेहिं मध्य कोसलराज ॥ 8 ॥ छं. तेहिं मध्य कोसलराज सुन्दर स्याम तन सोभा लही। जनु इन्द्रधनुष अनेक की बर बारि तुङ्ग तमालही ॥ प्रभु देखि हरष बिषाद उर सुर बदत जय जय जय करी। रघुबीर एकहि तीर कोऽपि निमेष महुँ माया हरी ॥ 1 ॥ माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे। सर निकर छाड़ए राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे ॥ श्रीराम रावन समर चरित अनेक कल्प जो गावहीं। सत सेष सारद निगम कबि तेउ तदपि पार न पावहीम् ॥ 2 ॥ दो. ताके गुन गन कछु कहे जड़मति तुलसीदास। जिमि निज बल अनुरूप ते माछी उड़इ अकास ॥ 101(क) ॥ काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लङ्केस। प्रभु क्रीड़त सुर सिद्ध मुनि ब्याकुल देखि कलेस ॥ 101(ख) ॥ काटत बढ़हिं सीस समुदाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ॥ मरि न रिपु श्रम भयु बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा ॥ उमा काल मर जाकीं ईछा। सो प्रभु जन कर प्रीति परीछा ॥ सुनु सरबग्य चराचर नायक। प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक ॥ नाभिकुण्ड पियूष बस याकें। नाथ जिअत रावनु बल ताकेम् ॥ सुनत बिभीषन बचन कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला ॥ असुभ होन लागे तब नाना। रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना ॥ बोलहि खग जग आरति हेतू। प्रगट भे नभ जहँ तहँ केतू ॥ दस दिसि दाह होन अति लागा। भयु परब बिनु रबि उपरागा ॥ मन्दोदरि उर कम्पति भारी। प्रतिमा स्त्रवहिं नयन मग बारी ॥ छं. प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही। बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभ अति सक को कही ॥ उतपात अमित बिलोकि नभ सुर बिकल बोलहि जय जे। सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भे ॥ दो. खैचि सरासन श्रवन लगि छाड़ए सर एकतीस। रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस ॥ 102 ॥ सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा ॥ लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुण्ड महि नाचा ॥ धरनि धसि धर धाव प्रचण्डा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खण्डा ॥ गर्जेउ मरत घोर रव भारी। कहाँ रामु रन हतौं पचारी ॥ डोली भूमि गिरत दसकन्धर। छुभित सिन्धु सरि दिग्गज भूधर ॥ धरनि परेउ द्वौ खण्ड बढ़आई। चापि भालु मर्कट समुदाई ॥ मन्दोदरि आगें भुज सीसा। धरि सर चले जहाँ जगदीसा ॥ प्रबिसे सब निषङ्ग महु जाई। देखि सुरन्ह दुन्दुभीं बजाई ॥ तासु तेज समान प्रभु आनन। हरषे देखि सम्भु चतुरानन ॥ जय जय धुनि पूरी ब्रह्मण्डा। जय रघुबीर प्रबल भुजदण्डा ॥ बरषहि सुमन देव मुनि बृन्दा। जय कृपाल जय जयति मुकुन्दा ॥ छं. जय कृपा कन्द मुकन्द द्वन्द हरन सरन सुखप्रद प्रभो। खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो ॥ सुर सुमन बरषहिं हरष सङ्कुल बाज दुन्दुभि गहगही। सङ्ग्राम अङ्गन राम अङ्ग अनङ्ग बहु सोभा लही ॥ सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं। जनु नीलगिरि पर तड़इत पटल समेत उड़उगन भ्राजहीम् ॥ भुजदण्ड सर कोदण्ड फेरत रुधिर कन तन अति बने। जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने ॥ दो. कृपादृष्टि करि प्रभु अभय किए सुर बृन्द। भालु कीस सब हरषे जय सुख धाम मुकन्द ॥ 103 ॥ पति सिर देखत मन्दोदरी। मुरुछित बिकल धरनि खसि परी ॥ जुबति बृन्द रोवत उठि धाईं। तेहि उठाइ रावन पहिं आई ॥ पति गति देखि ते करहिं पुकारा। छूटे कच नहिं बपुष सँभारा ॥ उर ताड़ना करहिं बिधि नाना। रोवत करहिं प्रताप बखाना ॥ तव बल नाथ डोल नित धरनी। तेज हीन पावक ससि तरनी ॥ सेष कमठ सहि सकहिं न भारा। सो तनु भूमि परेउ भरि छारा ॥ बरुन कुबेर सुरेस समीरा। रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा ॥ भुजबल जितेहु काल जम साईं। आजु परेहु अनाथ की नाईम् ॥ जगत बिदित तुम्हारी प्रभुताई। सुत परिजन बल बरनि न जाई ॥ राम बिमुख अस हाल तुम्हारा। रहा न कौ कुल रोवनिहारा ॥ तव बस बिधि प्रपञ्च सब नाथा। सभय दिसिप नित नावहिं माथा ॥ अब तव सिर भुज जम्बुक खाहीं। राम बिमुख यह अनुचित नाहीम् ॥ काल बिबस पति कहा न माना। अग जग नाथु मनुज करि जाना ॥ छं. जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं। जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयम् ॥ आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं। तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयम् ॥ दो. अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिन्धु नहिं आन। जोगि बृन्द दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान ॥ 104 ॥ मन्दोदरी बचन सुनि काना। सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना ॥ अज महेस नारद सनकादी। जे मुनिबर परमारथबादी ॥ भरि लोचन रघुपतिहि निहारी। प्रेम मगन सब भे सुखारी ॥ रुदन करत देखीं सब नारी। गयु बिभीषनु मन दुख भारी ॥ बन्धु दसा बिलोकि दुख कीन्हा। तब प्रभु अनुजहि आयसु दीन्हा ॥ लछिमन तेहि बहु बिधि समुझायो। बहुरि बिभीषन प्रभु पहिं आयो ॥ कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका। करहु क्रिया परिहरि सब सोका ॥ कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी। बिधिवत देस काल जियँ जानी ॥ दो. मन्दोदरी आदि सब देइ तिलाञ्जलि ताहि। भवन गी रघुपति गुन गन बरनत मन माहि ॥ 105 ॥ आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो। कृपासिन्धु तब अनुज बोलायो ॥ तुम्ह कपीस अङ्गद नल नीला। जामवन्त मारुति नयसीला ॥ सब मिलि जाहु बिभीषन साथा। सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा ॥ पिता बचन मैं नगर न आवुँ। आपु सरिस कपि अनुज पठावुँ ॥ तुरत चले कपि सुनि प्रभु बचना। कीन्ही जाइ तिलक की रचना ॥ सादर सिंहासन बैठारी। तिलक सारि अस्तुति अनुसारी ॥ जोरि पानि सबहीं सिर नाए। सहित बिभीषन प्रभु पहिं आए ॥ तब रघुबीर बोलि कपि लीन्हे। कहि प्रिय बचन सुखी सब कीन्हे ॥ छं. किए सुखी कहि बानी सुधा सम बल तुम्हारें रिपु हयो। पायो बिभीषन राज तिहुँ पुर जसु तुम्हारो नित नयो ॥ मोहि सहित सुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं। संसार सिन्धु अपार पार प्रयास बिनु नर पाइहैम् ॥ दो. प्रभु के बचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुञ्ज। बार बार सिर नावहिं गहहिं सकल पद कञ्ज ॥ 106 ॥ पुनि प्रभु बोलि लियु हनुमाना। लङ्का जाहु कहेउ भगवाना ॥ समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु ॥ तब हनुमन्त नगर महुँ आए। सुनि निसिचरी निसाचर धाए ॥ बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही। जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही ॥ दूरहि ते प्रनाम कपि कीन्हा। रघुपति दूत जानकीं चीन्हा ॥ कहहु तात प्रभु कृपानिकेता। कुसल अनुज कपि सेन समेता ॥ सब बिधि कुसल कोसलाधीसा। मातु समर जीत्यो दससीसा ॥ अबिचल राजु बिभीषन पायो। सुनि कपि बचन हरष उर छायो ॥ छं. अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा। का देउँ तोहि त्रेलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा ॥ सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं। रन जीति रिपुदल बन्धु जुत पस्यामि राममनामयम् ॥ दो. सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमन्त। सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनन्त ॥ 107 ॥ अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता। देखौं नयन स्याम मृदु गाता ॥ तब हनुमान राम पहिं जाई। जनकसुता कै कुसल सुनाई ॥ सुनि सन्देसु भानुकुलभूषन। बोलि लिए जुबराज बिभीषन ॥ मारुतसुत के सङ्ग सिधावहु। सादर जनकसुतहि लै आवहु ॥ तुरतहिं सकल गे जहँ सीता। सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता ॥ बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो। तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो ॥ बहु प्रकार भूषन पहिराए। सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए ॥ ता पर हरषि चढ़ई बैदेही। सुमिरि राम सुखधाम सनेही ॥ बेतपानि रच्छक चहुँ पासा। चले सकल मन परम हुलासा ॥ देखन भालु कीस सब आए। रच्छक कोऽपि निवारन धाए ॥ कह रघुबीर कहा मम मानहु। सीतहि सखा पयादें आनहु ॥ देखहुँ कपि जननी की नाईं। बिहसि कहा रघुनाथ गोसाई ॥ सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे। नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे ॥ सीता प्रथम अनल महुँ राखी। प्रगट कीन्हि चह अन्तर साखी ॥ दो. तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद। सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद ॥ 108 ॥ प्रभु के बचन सीस धरि सीता। बोली मन क्रम बचन पुनीता ॥ लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी ॥ सुनि लछिमन सीता कै बानी। बिरह बिबेक धरम निति सानी ॥ लोचन सजल जोरि कर दोऊ। प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ ॥ देखि राम रुख लछिमन धाए। पावक प्रगटि काठ बहु लाए ॥ पावक प्रबल देखि बैदेही। हृदयँ हरष नहिं भय कछु तेही ॥ जौं मन बच क्रम मम उर माहीं। तजि रघुबीर आन गति नाहीम् ॥ तौ कृसानु सब कै गति जाना। मो कहुँ हौ श्रीखण्ड समाना ॥ छं. श्रीखण्ड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली। जय कोसलेस महेस बन्दित चरन रति अति निर्मली ॥ प्रतिबिम्ब अरु लौकिक कलङ्क प्रचण्ड पावक महुँ जरे। प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे ॥ 1 ॥ धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग बिदित जो। जिमि छीरसागर इन्दिरा रामहि समर्पी आनि सो ॥ सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली। नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पङ्कज की कली ॥ 2 ॥ दो. बरषहिं सुमन हरषि सुन बाजहिं गगन निसान। गावहिं किन्नर सुरबधू नाचहिं चढ़ईं बिमान ॥ 109(क) ॥ जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार। देखि भालु कपि हरषे जय रघुपति सुख सार ॥ 109(ख) ॥ तब रघुपति अनुसासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिरु नाई ॥ आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी ॥ दीन बन्धु दयाल रघुराया। देव कीन्हि देवन्ह पर दाया ॥ बिस्व द्रोह रत यह खल कामी। निज अघ गयु कुमारगगामी ॥ तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी। सदा एकरस सहज उदासी ॥ अकल अगुन अज अनघ अनामय। अजित अमोघसक्ति करुनामय ॥ मीन कमठ सूकर नरहरी। बामन परसुराम बपु धरी ॥ जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो। नाना तनु धरि तुम्हिँ नसायो ॥ यह खल मलिन सदा सुरद्रोही। काम लोभ मद रत अति कोही ॥ अधम सिरोमनि तव पद पावा। यह हमरे मन बिसमय आवा ॥ हम देवता परम अधिकारी। स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी ॥ भव प्रबाहँ सन्तत हम परे। अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे ॥ दो. करि बिनती सुर सिद्ध सब रहे जहँ तहँ कर जोरि। अति सप्रेम तन पुलकि बिधि अस्तुति करत बहोरि ॥ 110 ॥ छं. जय राम सदा सुखधाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे ॥ भव बारन दारन सिंह प्रभो। गुन सागर नागर नाथ बिभो ॥ तन काम अनेक अनूप छबी। गुन गावत सिद्ध मुनीन्द्र कबी ॥ जसु पावन रावन नाग महा। खगनाथ जथा करि कोप गहा ॥ जन रञ्जन भञ्जन सोक भयं। गतक्रोध सदा प्रभु बोधमयम् ॥ अवतार उदार अपार गुनं। महि भार बिभञ्जन ग्यानघनम् ॥ अज ब्यापकमेकमनादि सदा। करुनाकर राम नमामि मुदा ॥ रघुबंस बिभूषन दूषन हा। कृत भूप बिभीषन दीन रहा ॥ गुन ग्यान निधान अमान अजं। नित राम नमामि बिभुं बिरजम् ॥ भुजदण्ड प्रचण्ड प्रताप बलं। खल बृन्द निकन्द महा कुसलम् ॥ बिनु कारन दीन दयाल हितं। छबि धाम नमामि रमा सहितम् ॥ भव तारन कारन काज परं। मन सम्भव दारुन दोष हरम् ॥ सर चाप मनोहर त्रोन धरं। जरजारुन लोचन भूपबरम् ॥ सुख मन्दिर सुन्दर श्रीरमनं। मद मार मुधा ममता समनम् ॥ अनवद्य अखण्ड न गोचर गो। सबरूप सदा सब होइ न गो ॥ इति बेद बदन्ति न दन्तकथा। रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा ॥ कृतकृत्य बिभो सब बानर ए। निरखन्ति तवानन सादर ए ॥ धिग जीवन देव सरीर हरे। तव भक्ति बिना भव भूलि परे ॥ अब दीन दयाल दया करिऐ। मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ ॥ जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ। दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ ॥ खल खण्डन मण्डन रम्य छमा। पद पङ्कज सेवित सम्भु उमा ॥ नृप नायक दे बरदानमिदं। चरनाम्बुज प्रेम सदा सुभदम् ॥ दो. बिनय कीन्हि चतुरानन प्रेम पुलक अति गात। सोभासिन्धु बिलोकत लोचन नहीं अघात ॥ 111 ॥ तेहि अवसर दसरथ तहँ आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए ॥ अनुज सहित प्रभु बन्दन कीन्हा। आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा ॥ तात सकल तव पुन्य प्रभ्AU। जीत्यों अजय निसाचर र्AU ॥ सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढ़ई। नयन सलिल रोमावलि ठाढ़ई ॥ रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना। चिति पितहि दीन्हेउ दृढ़ ग्याना ॥ ताते उमा मोच्छ नहिं पायो। दसरथ भेद भगति मन लायो ॥ सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं। तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीम् ॥ बार बार करि प्रभुहि प्रनामा। दसरथ हरषि गे सुरधामा ॥ दो. अनुज जानकी सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस। सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस ॥ 112 ॥ छं. जय राम सोभा धाम। दायक प्रनत बिश्राम ॥ धृत त्रोन बर सर चाप। भुजदण्ड प्रबल प्रताप ॥ 1 ॥ जय दूषनारि खरारि। मर्दन निसाचर धारि ॥ यह दुष्ट मारेउ नाथ। भे देव सकल सनाथ ॥ 2 ॥ जय हरन धरनी भार। महिमा उदार अपार ॥ जय रावनारि कृपाल। किए जातुधान बिहाल ॥ 3 ॥ लङ्केस अति बल गर्ब। किए बस्य सुर गन्धर्ब ॥ मुनि सिद्ध नर खग नाग। हठि पन्थ सब कें लाग ॥ 4 ॥ परद्रोह रत अति दुष्ट। पायो सो फलु पापिष्ट ॥ अब सुनहु दीन दयाल। राजीव नयन बिसाल ॥ 5 ॥ मोहि रहा अति अभिमान। नहिं कौ मोहि समान ॥ अब देखि प्रभु पद कञ्ज। गत मान प्रद दुख पुञ्ज ॥ 6 ॥ कौ ब्रह्म निर्गुन ध्याव। अब्यक्त जेहि श्रुति गाव ॥ मोहि भाव कोसल भूप। श्रीराम सगुन सरूप ॥ 7 ॥ बैदेहि अनुज समेत। मम हृदयँ करहु निकेत ॥ मोहि जानिए निज दास। दे भक्ति रमानिवास ॥ 8 ॥ दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन सरन सुखदायकं। सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकम् ॥ सुर बृन्द रञ्जन द्वन्द भञ्जन मनुज तनु अतुलितबलं। ब्रह्मादि सङ्कर सेब्य राम नमामि करुना कोमलम् ॥ दो. अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल। काह करौं सुनि प्रिय बचन बोले दीनदयाल ॥ 113 ॥ सुनु सुरपति कपि भालु हमारे। परे भूमि निसचरन्हि जे मारे ॥ मम हित लागि तजे इन्ह प्राना। सकल जिआउ सुरेस सुजाना ॥ सुनु खगेस प्रभु कै यह बानी। अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी ॥ प्रभु सक त्रिभुअन मारि जिआई। केवल सक्रहि दीन्हि बड़आई ॥ सुधा बरषि कपि भालु जिआए। हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए ॥ सुधाबृष्टि भै दुहु दल ऊपर। जिए भालु कपि नहिं रजनीचर ॥ रामाकार भे तिन्ह के मन। मुक्त भे छूटे भव बन्धन ॥ सुर अंसिक सब कपि अरु रीछा। जिए सकल रघुपति कीं ईछा ॥ राम सरिस को दीन हितकारी। कीन्हे मुकुत निसाचर झारी ॥ खल मल धाम काम रत रावन। गति पाई जो मुनिबर पाव न ॥ दो. सुमन बरषि सब सुर चले चढ़इ चढ़इ रुचिर बिमान। देखि सुअवसरु प्रभु पहिं आयु सम्भु सुजान ॥ 114(क) ॥ परम प्रीति कर जोरि जुग नलिन नयन भरि बारि। पुलकित तन गदगद गिराँ बिनय करत त्रिपुरारि ॥ 114(ख) ॥ छं. मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक ॥ मोह महा घन पटल प्रभञ्जन। संसय बिपिन अनल सुर रञ्जन ॥ 1 ॥ अगुन सगुन गुन मन्दिर सुन्दर। भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर ॥ काम क्रोध मद गज पञ्चानन। बसहु निरन्तर जन मन कानन ॥ 2 ॥ बिषय मनोरथ पुञ्ज कञ्ज बन। प्रबल तुषार उदार पार मन ॥ भव बारिधि मन्दर परमं दर। बारय तारय संसृति दुस्तर ॥ 3 ॥ स्याम गात राजीव बिलोचन। दीन बन्धु प्रनतारति मोचन ॥ अनुज जानकी सहित निरन्तर। बसहु राम नृप मम उर अन्तर ॥ 4 ॥ मुनि रञ्जन महि मण्डल मण्डन। तुलसिदास प्रभु त्रास बिखण्डन ॥ 5 ॥ दो. नाथ जबहिं कोसलपुरीं होइहि तिलक तुम्हार। कृपासिन्धु मैं आउब देखन चरित उदार ॥ 115 ॥ करि बिनती जब सम्भु सिधाए। तब प्रभु निकट बिभीषनु आए ॥ नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी। बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी ॥ सकुल सदल प्रभु रावन मार् यो। पावन जस त्रिभुवन बिस्तार् यो ॥ दीन मलीन हीन मति जाती। मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती ॥ अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे। मज्जनु करिअ समर श्रम छीजे ॥ देखि कोस मन्दिर सम्पदा। देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा ॥ सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ। पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ ॥ सुनत बचन मृदु दीनदयाला। सजल भे द्वौ नयन बिसाला ॥ दो. तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात। भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात ॥ 116(क) ॥ तापस बेष गात कृस जपत निरन्तर मोहि। देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरुँ तोहि ॥ 116(ख) ॥ बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावुँ बीर। सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर ॥ 116(ग) ॥ करेहु कल्प भरि राजु तुम्ह मोहि सुमिरेहु मन माहिं। पुनि मम धाम पाइहहु जहाँ सन्त सब जाहिम् ॥ 116(घ) ॥ सुनत बिभीषन बचन राम के। हरषि गहे पद कृपाधाम के ॥ बानर भालु सकल हरषाने। गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने ॥ बहुरि बिभीषन भवन सिधायो। मनि गन बसन बिमान भरायो ॥ लै पुष्पक प्रभु आगें राखा। हँसि करि कृपासिन्धु तब भाषा ॥ चढ़इ बिमान सुनु सखा बिभीषन। गगन जाइ बरषहु पट भूषन ॥ नभ पर जाइ बिभीषन तबही। बरषि दिए मनि अम्बर सबही ॥ जोइ जोइ मन भावि सोइ लेहीं। मनि मुख मेलि डारि कपि देहीम् ॥ हँसे रामु श्री अनुज समेता। परम कौतुकी कृपा निकेता ॥ दो. मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद। कृपासिन्धु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद ॥ 117(क) ॥ उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम। राम कृपा नहि करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम ॥ 117(ख) ॥ भालु कपिन्ह पट भूषन पाए। पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए ॥ नाना जिनस देखि सब कीसा। पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा ॥ चिति सबन्हि पर कीन्हि दाया। बोले मृदुल बचन रघुराया ॥ तुम्हरें बल मैं रावनु मार् यो। तिलक बिभीषन कहँ पुनि सार् यो ॥ निज निज गृह अब तुम्ह सब जाहू। सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू ॥ सुनत बचन प्रेमाकुल बानर। जोरि पानि बोले सब सादर ॥ प्रभु जोइ कहहु तुम्हहि सब सोहा। हमरे होत बचन सुनि मोहा ॥ दीन जानि कपि किए सनाथा। तुम्ह त्रेलोक ईस रघुनाथा ॥ सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं। मसक कहूँ खगपति हित करहीम् ॥ देखि राम रुख बानर रीछा। प्रेम मगन नहिं गृह कै ईछा ॥ दो. प्रभु प्रेरित कपि भालु सब राम रूप उर राखि। हरष बिषाद सहित चले बिनय बिबिध बिधि भाषि ॥ 118(क) ॥ कपिपति नील रीछपति अङ्गद नल हनुमान। सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान ॥ 118(ख) ॥ दो. कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि। सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि ॥ 118(ग) ॥ ऽ अतिसय प्रीति देख रघुराई। लिन्हे सकल बिमान चढ़आई ॥ मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो। उत्तर दिसिहि बिमान चलायो ॥ चलत बिमान कोलाहल होई। जय रघुबीर कहि सबु कोई ॥ सिंहासन अति उच्च मनोहर। श्री समेत प्रभु बैठै ता पर ॥ राजत रामु सहित भामिनी। मेरु सृङ्ग जनु घन दामिनी ॥ रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर। कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर ॥ परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी। सागर सर सरि निर्मल बारी ॥ सगुन होहिं सुन्दर चहुँ पासा। मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा ॥ कह रघुबीर देखु रन सीता। लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता ॥ हनूमान अङ्गद के मारे। रन महि परे निसाचर भारे ॥ कुम्भकरन रावन द्वौ भाई। इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई ॥ दो. इहाँ सेतु बाँध्यो अरु थापेउँ सिव सुख धाम। सीता सहित कृपानिधि सम्भुहि कीन्ह प्रनाम ॥ 119(क) ॥ जहँ जहँ कृपासिन्धु बन कीन्ह बास बिश्राम। सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम ॥ 119(ख) ॥ तुरत बिमान तहाँ चलि आवा। दण्डक बन जहँ परम सुहावा ॥ कुम्भजादि मुनिनायक नाना। गे रामु सब कें अस्थाना ॥ सकल रिषिन्ह सन पाइ असीसा। चित्रकूट आए जगदीसा ॥ तहँ करि मुनिन्ह केर सन्तोषा। चला बिमानु तहाँ ते चोखा ॥ बहुरि राम जानकिहि देखाई। जमुना कलि मल हरनि सुहाई ॥ पुनि देखी सुरसरी पुनीता। राम कहा प्रनाम करु सीता ॥ तीरथपति पुनि देखु प्रयागा। निरखत जन्म कोटि अघ भागा ॥ देखु परम पावनि पुनि बेनी। हरनि सोक हरि लोक निसेनी ॥ पुनि देखु अवधपुरी अति पावनि। त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि ॥ । दो. सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम। सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम ॥ 120(क) ॥ पुनि प्रभु आइ त्रिबेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह। कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह ॥ 120(ख) ॥ प्रभु हनुमन्तहि कहा बुझाई। धरि बटु रूप अवधपुर जाई ॥ भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु। समाचार लै तुम्ह चलि आएहु ॥ तुरत पवनसुत गवनत भयु। तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयू ॥ नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही। अस्तुती करि पुनि आसिष दीन्ही ॥ मुनि पद बन्दि जुगल कर जोरी। चढ़इ बिमान प्रभु चले बहोरी ॥ इहाँ निषाद सुना प्रभु आए। नाव नाव कहँ लोग बोलाए ॥ सुरसरि नाघि जान तब आयो। उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो ॥ तब सीताँ पूजी सुरसरी। बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी ॥ दीन्हि असीस हरषि मन गङ्गा। सुन्दरि तव अहिवात अभङ्गा ॥ सुनत गुहा धायु प्रेमाकुल। आयु निकट परम सुख सङ्कुल ॥ प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही। परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही ॥ प्रीति परम बिलोकि रघुराई। हरषि उठाइ लियो उर लाई ॥ छं. लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापती। बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती। अब कुसल पद पङ्कज बिलोकि बिरञ्चि सङ्कर सेब्य जे। सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते ॥ 1 ॥ सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो। मतिमन्द तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो ॥ यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा। कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा ॥ 2 ॥ दो. समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान। बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान ॥ 121(क) ॥ यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार। श्रीरघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार ॥ 121(ख) ॥ मासपारायण, सत्ताईसवाँ विश्राम इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने षष्ठः सोपानः समाप्तः। (लङ्काकाण्ड समाप्त)
Ramcharit-Manas

Shri Narayana Ashtakam (श्री नारायण अष्टकम् )

श्री नारायण अष्टकम्: हिंदू मान्यता के अनुसार, श्री नारायण अष्टकम का नियमित जाप भगवान विष्णु को प्रसन्न करने और उनकी कृपा प्राप्त करने का सबसे प्रभावी तरीका है। सर्वश्रेष्ठ परिणाम प्राप्त करने के लिए, श्री नारायण अष्टकम का पाठ सुबह स्नान के बाद भगवान विष्णु की मूर्ति या तस्वीर के सामने करना चाहिए। इसके प्रभाव को अधिकतम करने के लिए, पहले श्री नारायण अष्टकम का अर्थ हिंदी में समझना चाहिए।
Ashtakam

Kali Sahasranama Stotram (काली सहस्रनाम स्तोत्रम्)

कालीका देवी दस महाविद्याओं (Ten Mahavidyas) में से एक उग्र देवी (fierce goddess) हैं। उनकी पूजा (worship) आंतरिक (internal) और बाहरी शत्रुओं (external enemies) को पराजित (defeat) करने के लिए की जाती है। मां काली (Maa Kali), देवी दुर्गा (Goddess Durga) के उग्र रूपों (fierce forms) में से एक हैं। वह भगवान शिव (Lord Shiva) की अर्धांगिनी (consort) हैं, जो हिंदू त्रिमूर्ति (Hindu Trinity) में संहारक (destroyer) के रूप में पूजित (worshipped) हैं। मां काली की पारंपरिक छवि (traditional image) में उनकी जीभ (tongue) बाहर निकली होती है और उनके गले (neck) में खोपड़ियों की माला (garland of skulls) होती है। उनके हाथों (hands) में विनाशकारी शस्त्र (deadly weapons) होते हैं, जो दुष्ट (wicked) और पापी (evil) लोगों में भय (terror) उत्पन्न करते हैं। हालांकि, काली अपने भक्तों (devotees) के लिए अत्यंत दयालु (kind) और कृपालु (merciful) हैं। वह अपने भक्तों को सभी संकटों (harm) से बचाती हैं और उन्हें समृद्धि (prosperity) और सफलता (success) का आशीर्वाद देती हैं। मां काली के अवतार (incarnation) का मुख्य उद्देश्य (ultimate purpose) उन दुष्टों (evil-doers) और राक्षसों (demons) का विनाश (destruction) करना है, जिन्हें देवता (gods) भी पराजित नहीं कर सके। वह अजेय (invincible) हैं और शक्तिशाली (powerful) व दुष्ट राक्षसों के लिए एक गंभीर खतरा (severe threat) पैदा कर सकती हैं। चूंकि मां काली का अवतरण (emanation) देवताओं (deities) और ऋषियों (sages) की प्रार्थनाओं (prayers) के जवाब में हुआ था, इसलिए सभी देवताओं ने अपनी शक्तियां (powers) और शस्त्र मां काली को उनके दिव्य कार्य (divine mission) में सहायता के लिए प्रदान किए। इस कारण मां काली की शक्तियां (powers) अतुलनीय (incomparable) हैं। वह पापियों को पल भर में नष्ट कर सकती हैं और अपने भक्तों को हर तरह के संकट से बचा सकती हैं। देवी काली भौतिक प्रकृति (material nature) की अधीक्षक (superintendent) हैं। वह कृष्ण (Krishna) की महामाया (Mahamaya potency) शक्ति हैं और उनके कई प्रसिद्ध नाम (well-known names) हैं, जैसे दुर्गा (Durga)।
Sahasranama-Stotram

Tripura Bhairavi Kavacham (त्रिपुरभैरवी कवचम्)

त्रिपुर भैरवी माता को दस महाविद्याओं में से पांचवीं महाविद्या के रूप में जाना जाता है। यह कवच देवी भैरवी की साधना के लिए समर्पित है। त्रिपुर भैरवी कवच का पाठ साधक के लिए अत्यंत फलदायी माना गया है। इसे पढ़ने से जीवनयापन और व्यवसाय में अत्यधिक वृद्धि होती है। भले ही साधक दोनों हाथों से खर्च करे, लेकिन त्रिपुर भैरवी कवच का पाठ करने से धन की कोई कमी नहीं होती। इस कवच का पाठ करने से शरीर में आकर्षण उत्पन्न होता है, आँखों में सम्मोहन रहता है, और स्त्रियाँ उसकी ओर आकर्षित होती हैं। साधक बच्चों से लेकर वरिष्ठ मंत्री तक सभी को सम्मोहित कर सकता है। यदि त्रिपुर भैरवी यंत्र को कवच पाठ के दौरान सामने रखा जाए, तो साधक में सकारात्मक ऊर्जा का संचार शुरू हो जाता है। उसका आत्मविश्वास बढ़ने लगता है, जिससे वह हर कार्य में सफलता प्राप्त करता है। यह भी देखा गया है कि इस कवच का पाठ करने और त्रिपुर भैरवी गुटिका धारण करने से प्रेम जीवन की सभी बाधाएँ दूर होने लगती हैं। साधक को इच्छित वधु या वर से विवाह का सुख प्राप्त होता है। अच्छे जीवनसाथी का साथ मिलने से जीवन सुखमय हो जाता है।
Kavacha

Bilva Ashtakam (बिल्वाअष्टकम्)

Shri Shiva Bilvashtakam (बिल्वाअष्टकम्) को Jagad Guru Sri Adi Shankaracharya द्वारा रचित किया गया था। यह एक अत्यंत powerful stotra है जो Lord Shiva को Bilva leaves अर्पित करने की glory और power का वर्णन करता है। Bilva leaves को तीन पत्तियों के समूह में चढ़ाया जाता है और यह कहा जाता है कि इसमें ऐसे features होते हैं जो इसे स्वयं Lord Shiva से जोड़ते हैं। Bilva Patra का Lord Shiva से एक विशेष संबंध है। Shiva को Belpatra अथवा Bilva leaves अत्यंत प्रिय हैं। यदि कोई व्यक्ति pure mind से Lord Shiva की worship करता है और Shivalinga पर Belpatra अर्पित करता है, तो Lord Shiva उसे इच्छित blessings प्रदान करते हैं। अतः Belpatra Lord Shiva की puja का एक अत्यंत महत्वपूर्ण ingredient माना जाता है। Bilva leaves Wood Apple Tree से उत्पन्न होते हैं। यह trifoliate होते हैं, जो holy TrinityBrahma, Vishnu और Mahesh—का प्रतीक हैं। यह Lord Shiva के three eyes का भी प्रतिनिधित्व करता है। Shiva Purana के अनुसार, Bilva Lord Shiva का symbol माना जाता है। इसकी greatness को deities भी पूरी तरह नहीं समझ सकते। Blessed हैं वे जो Bilva अर्पित करते हैं। Shiva Purana में कहा गया है कि एक Bilva हजार lotus के समान फल देता है। जो भी sacred Bilvashtakam का पाठ Lord Shiva के समीप करता है, वह समस्त sins से मुक्त होकर Shiva Loka को प्राप्त करता है।
Ashtakam

Murari Stuti (मुरारि स्तुति)

Shri Murari Stuti (मुरारि स्तुति) का पाठ प्रातःकाल या संध्या के समय peaceful और spiritual atmosphere में करना श्रेष्ठ माना जाता है। इसे Shri Krishna की idol या image के सामने बैठकर गाया जा सकता है। पाठ करने से पहले मन को शांत करें और Lord Krishna के divine form का ध्यान करें। भक्त इसे soft voice में या with music भी गा सकते हैं। Murari Stuti का गायन करने से भक्तों के हृदय में deep devotion और love for Lord Krishna उत्पन्न होता है। ऐसा माना जाता है कि इस स्तुति का नियमित recitation करने से व्यक्ति को mental peace मिलती है और divine blessings प्राप्त होते हैं। यह स्तुति positive energy को बढ़ाती है और व्यक्ति को spiritual path पर प्रेरित करती है। जो भक्त regularly इस स्तुति का पाठ करते हैं, उनके जीवन से अनेक प्रकार के sufferings दूर हो जाते हैं और वे divine grace प्राप्त करते हैं।
Stuti

Shri Sita Kavacham (श्री सीता कवचम्)

श्री सीता कवचम् एक अद्भुत वैदिक स्तोत्र है, जो देवी सीता की महिमा और सुरक्षा प्रदान करने वाले गुणों का वर्णन करता है। यह कवच भगवान श्रीराम की परम प्रिया और त्याग, धैर्य, एवं निष्ठा की प्रतीक माता सीता की स्तुति करता है। यह कवच भक्तों को देवी सीता के समान साहस और धैर्य प्रदान करने में सहायक है। यह स्तोत्र उनके आशीर्वाद के साथ जीवन में सफलता, शांति और समृद्धि लाने की शक्ति रखता है। इस कवच का पाठ जीवन में "positivity", "spiritual growth" और "divine blessings" लाने के लिए अत्यंत लाभकारी माना गया है। "Protection mantra", "Hindu scriptures", और "devotional hymns" जैसे विषयों से जुड़ने वाले पाठकों के लिए यह कवच अत्यंत प्रभावी है।
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