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महाकुंभ का वैज्ञानिक महत्व

14 जनवरी मकर संक्रांति से प्रयागराज में महाकुंभ शुरू हो रहा है। हर 12 साल में होने वाला प्रयाग का यह कुंभ महाकुंभ है। 12 कुंभ होने के बाद 144 साल बाद यहां महाकुंभ आयोजित होता है। हर परिवार की तीसरी पीढ़ी को महाकुंभ देखने का मौका मिलता है।
शास्त्रों और किवदंतियों में वर्णित कुंभ के महत्व को देश और दुनिया के जाने-माने ध्यान गुरु रघुनाथ गुरु जी अध्यात्म में विज्ञान की खोज श्रृंखला में वह जानकारी दे रहे हैं जो सिद्ध करते हैं कि हजारों साल पहले भी भारतीय दर्शन और विज्ञान कितना उन्नत था और हमारे पूर्वज कितने प्रगतिशील गतिशील और ज्ञानी थे।
अध्यात्म में विज्ञान की खोज : ध्यानगुरु रघुनाथ गुरु जीं बताते हैं कि महाकुंभ का सिर्फ धार्मिक और आध्यात्मिक नहीं वैज्ञानिक महत्व भी है। हमारे ऋषि मुनि बहुत विद्वान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते थे। माना जाता है कि देवों और असुरों के बीच सागर मंथन से अमृत कलश निकला था उस दिव्य कलश को प्राप्त करने के लिए देव और दानव में 12 दिन महाभयंकर युद्ध हुआ था। उसी समय अमृत की चार बूंद पृथ्वी पर गिरी प्रायगराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक यह उन जगह के नाम है।
रघुनाथ गुरु जी बताते हैं कि देवताओं के 12 दिन पृथ्वी के 12 साल होते है। सूर्य, पृथ्वी, चंद्र और गुरु यह चारों ग्रह एक विशिष्ट संयोग में आते हैं तब सूर्य पृथ्वी के सबसे नजदीक 3 जनवरी को आता है। इसीके साथ 14 तारीख को मकर संक्रांति को सूर्य उत्तरायण होते है। पौष पौर्णिमा के दिन विशिष्ट संयोग से गुरु का कुंभ राशि में प्रवेश होता है। पूर्णिमा के दिन बृहस्पति वृषभ राशि में प्रवेश करते है।
रघुनाथ गुरु जी के अनुसार सूर्य हर 12 साल में सोलर सायकल सूर्य पूरी करता है। सूर्य जब नॉर्थ से साउथ पोल घूमता है उस समय सूर्य के मॅग्नेटिक फिल्ड से पृथ्वी का वातावरण प्रभावित होता है। पृथ्वी पर रहने वाले जीव जंतुओं और मानव के लिए यह मैग्नेटिक फील्ड अत्यधिक सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करती है'।
रघुनाथ गुरु जी बताते हैं कि सूर्य चक्र का समय भी कुंभ से जुडा हुआ होता है। ठंड के दिन में जब वातावरणमें ऑक्सीजन मॉलिक्यूल का घनत्व ज्यादा होता है। वातावरण और पानी में उसे समय ऑक्सीजन की मात्रा अधिक होती है। यह ऑक्सीजन मॉलक्युलस पवित्र मां गंगा नदी, यमुना नदी, सरस्वती नदी के संगम मे मिलते है। तब पानी में डिसॉल्व ऑक्सीजन की मात्रा बढती है। हमारे ऋषि मनियों ने इस वैज्ञानिक कारण को भी ध्यान में रखकर कुंभ की परंपरा विकसित की होगी ऐसा माना जा सकता है।
रघुनाथ गुरु जी बताते हैं कि गुरु ग्रह की गुरुत्वाकर्षण शक्ति, सूर्य का सूर्य चक्र और सोलर स्पॉट नॉर्थ पोल, साउथ पोल परिवर्तन के समय का मैग्नेटिक फील्ड बनती है। जो पृथ्वी पर सकारात्मक ऊर्जा सुमन रिसोनेंस फ्रिक्वान्सी से इंसान के दिमाग में अल्फा किरणों की वृद्धि करती है। इससे मनुष्य के मन को शांति मिलती है और शरीर को निरोगी जीवन देती है। सूर्य की गतिविधियों का पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र पर प्रभाव पड़ता है। जो इंसान की जैविक घड़ी जिसे नींद और जागने का चक्र कहते हैं उसे बेहतर बनाता है।
रघुनाथ गुरु जी बताते हैं कि पृथ्वी, सूर्य, चंद्र और गुरु के खगोलीय संयोग से एकत्रित होकर वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है। इस ऊर्जा के साथ सभी देवी-देवताओं का आशीर्वाद, साधु संतों और तपस्वियों की उपस्थिति का वातावरण ही अमृत तुल्य होता है। इस आशीर्वाद के कारण ही वातावरण में जो अमृत वर्षा होती है। पानी में PH, घुली हुई ऑक्सीजन और मिनरल्स सही मात्रा मे पानी मे मिलते है। जो पवित्र गंगा नदी के जल को आध्यात्मिक और वैज्ञानिक रूप से बहुत उपयोगी और लाभदायक बनाते हैं। इनका हमारे जीवन में बहुत फायदा होता है। आत्मिक शांति मिलती है और जीवन निरोगी होता है।
रघुनाथ गुरु जी कहते हैं कि आधुनिक विज्ञान हमारी हजारों साल पुरानी परंपराओं को सिद्ध कर रहा है और सही मान रहा है। यह भारतीय संस्कृति और सनातन की पुनर्स्थापना है।
जय श्री राम जय गोरखनाथ
हर हर गंगे।

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महा सरस्वती स्तवम् (Maha Saraswati Stavam) अश्वतर उवाच । जगद्धात्रीमहं देवीमारिराधयिषुः शुभाम् । स्तोष्ये प्रणम्य शिरसा ब्रह्मयोनिं सरस्वतीम् ॥ 1 ॥ सदसद्देवि यत्किञ्चिन्मोक्षवच्चार्थवत्पदम् । तत्सर्वं त्वय्यसंयोगं योगवद्देवि संस्थितम् ॥ 2 ॥ त्वमक्षरं परं देवि यत्र सर्वं प्रतिष्ठितम् । अक्षरं परमं देवि संस्थितं परमाणुवत् ॥ 3 ॥ अक्षरं परमं ब्रह्म विश्वञ्चैतत्क्षरात्मकम् । दारुण्यवस्थितो वह्निर्भौमाश्च परमाणवः ॥ 4 ॥ तथा त्वयि स्थितं ब्रह्म जगच्चेदमशेषतः । ओङ्काराक्षरसंस्थानं यत्तु देवि स्थिरास्थिरम् ॥ 5 ॥ तत्र मात्रात्रयं सर्वमस्ति यद्देवि नास्ति च । त्रयो लोकास्त्रयो वेदास्त्रैविद्यं पावकत्रयम् ॥ 6 ॥ त्रीणि ज्योतींषि वर्णाश्च त्रयो धर्मागमास्तथा । त्रयो गुणास्त्रयः शब्दस्त्रयो वेदास्तथाश्रमाः ॥ 7 ॥ त्रयः कालास्तथावस्थाः पितरोऽहर्निशादयः । एतन्मात्रात्रयं देवि तव रूपं सरस्वति ॥ 8 ॥ विभिन्नदर्शिनामाद्या ब्रह्मणो हि सनातनाः । सोमसंस्था हविः संस्थाः पाकसंस्थाश्च सप्त याः ॥ 9 ॥ तास्त्वदुच्चारणाद्देवि क्रियन्ते ब्रह्मवादिभिः । अनिर्देश्यं तथा चान्यदर्धमात्रान्वितं परम् ॥ 10 ॥ अविकार्यक्षयं दिव्यं परिणामविवर्जितम् । तवैतत्परमं रूपं यन्न शक्यं मयोदितुम् ॥ 11 ॥ न चास्येन च तज्जिह्वा ताम्रोष्ठादिभिरुच्यते । इन्द्रोऽपि वसवो ब्रह्मा चन्द्रार्कौ ज्योतिरेव च ॥ 12 ॥ विश्वावासं विश्वरूपं विश्वेशं परमेश्वरम् । साङ्ख्यवेदान्तवादोक्तं बहुशाखास्थिरीकृतम् ॥ 13 ॥ अनादिमध्यनिधनं सदसन्न सदेव यत् । एकन्त्वनेकं नाप्येकं भवभेदसमाश्रितम् ॥ 14 ॥ अनाख्यं षड्गुणाख्यञ्च वर्गाख्यं त्रिगुणाश्रयम् । नानाशक्तिमतामेकं शक्तिवैभविकं परम् ॥ 15 ॥ सुखासुखं महासौख्यरूपं त्वयि विभाव्यते । एवं देवि त्वया व्याप्तं सकलं निष्कलञ्च यत् । अद्वैतावस्थितं ब्रह्म यच्च द्वैते व्यवस्थितम् ॥ 16 ॥ येऽर्था नित्या ये विनश्यन्ति चान्ये ये वा स्थूला ये च सूक्ष्मातिसूक्ष्माः । ये वा भूमौ येऽन्तरीक्षेऽन्यतो वा तेषां तेषां त्वत्त एवोपलब्धिः ॥ 17 ॥ यच्चामूर्तं यच्च मूर्तं समस्तं यद्वा भूतेष्वेकमेकञ्च किञ्चित् । यद्दिव्यस्ति क्ष्मातले खेऽन्यतो वा त्वत्सम्बन्धं त्वत्स्वरैर्व्यञ्जनैश्च ॥ 18 ॥ इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे त्रयोविंशोऽध्याये अश्वतर प्रोक्त महासरस्वती स्तवम् ।
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