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Shri Ram Mantras || श्री राम मंत्र : Devotional Chants that are highly effective to remove negative Energy
Shri Ram Mantra (श्री राम मंत्र)
भगवान श्रीराम के मंत्रों का जाप करने से मनचाही कामना पूरी होती है। साधारण से दिखने वाले इन मंत्रों में जो शक्ति छिपी हुई है, वह हर कोई नहीं पहचान सकता। अत: प्रभु श्रीराम के इन 5 सरल मंत्रों का जाप आपके जीवन को परेशानियों से उबार सकता है। इतना ही नहीं, ये मंत्र अपार धन-संपदा की प्राप्ति भी कराते हैं।Shri Ram Mantra (श्री राम मंत्र)
1. Rama Moola Mantra (राम मूल मंत्र)
ॐ श्री रामाय नमः॥
2. Rama Taraka Mantra (राम तारक मंत्र)
श्री राम जय राम जय जय राम॥
3. Rama Gayatri Mantra (राम गायत्री मंत्र)
ॐ दाशरथये विद्महे सीतावल्लभाय धीमहि,
तन्नो राम प्रचोदयात्॥
4. Rama Meditation Mantra (राम ध्यान मंत्र)
ॐ आपदामपहर्तारम् दाताराम् सर्वसम्पदाम्।
लोकाभिरामम् श्रीरामम् भूयो-भूयो नमाम्यहम्॥
5. Kodanda Rama Mantra (कोदंड राम मंत्र)
श्री राम जय राम कोदण्ड राम॥
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Shri Ram Charit Manas (श्री राम चरित मानस) अरण्यकाण्ड(Aranyakanda)
श्री राम चरित मानस (Shri Ram Charit Manas) श्री राम चरित मानस - अरण्यकाण्ड श्री गणेशाय नमः श्री जानकीवल्लभो विजयते श्री रामचरितमानस तृतीय सोपान (अरण्यकाण्ड) मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्। मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शङ्करं वन्दे ब्रह्मकुलं कलङ्कशमनं श्रीरामभूपप्रियम् ॥ 1 ॥ सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम् राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे ॥ 2 ॥ सो. उमा राम गुन गूढ़ पण्डित मुनि पावहिं बिरति। पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति ॥ पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई ॥ अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन ॥ एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए ॥ सीतहि पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुन्दर ॥ सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा ॥ जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मन्दमति पावन चाहा ॥ सीता चरन चौञ्च हति भागा। मूढ़ मन्दमति कारन कागा ॥ चला रुधिर रघुनायक जाना। सीङ्क धनुष सायक सन्धाना ॥ दो. अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह। ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह ॥ 1 ॥ प्रेरित मन्त्र ब्रह्मसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा ॥ धरि निज रुप गयु पितु पाहीं। राम बिमुख राखा तेहि नाहीम् ॥ भा निरास उपजी मन त्रासा। जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा ॥ ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका। फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका ॥ काहूँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकि राम कर द्रोही ॥ मातु मृत्यु पितु समन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना ॥ मित्र करि सत रिपु कै करनी। ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी ॥ सब जगु ताहि अनलहु ते ताता। जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता ॥ नारद देखा बिकल जयन्ता। लागि दया कोमल चित सन्ता ॥ पठवा तुरत राम पहिं ताही। कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही ॥ आतुर सभय गहेसि पद जाई। त्राहि त्राहि दयाल रघुराई ॥ अतुलित बल अतुलित प्रभुताई। मैं मतिमन्द जानि नहिं पाई ॥ निज कृत कर्म जनित फल पायुँ। अब प्रभु पाहि सरन तकि आयुँ ॥ सुनि कृपाल अति आरत बानी। एकनयन करि तजा भवानी ॥ सो. कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित। प्रभु छाड़एउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम ॥ 2 ॥ रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किए श्रुति सुधा समाना ॥ बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भीर सबहिं मोहि जाना ॥ सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई। सीता सहित चले द्वौ भाई ॥ अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयू। सुनत महामुनि हरषित भयू ॥ पुलकित गात अत्रि उठि धाए। देखि रामु आतुर चलि आए ॥ करत दण्डवत मुनि उर लाए। प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए ॥ देखि राम छबि नयन जुड़आने। सादर निज आश्रम तब आने ॥ करि पूजा कहि बचन सुहाए। दिए मूल फल प्रभु मन भाए ॥ सो. प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि। मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत ॥ 3 ॥ छं. नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलम् ॥ भजामि ते पदाम्बुजं। अकामिनां स्वधामदम् ॥ निकाम श्याम सुन्दरं। भवाम्बुनाथ मन्दरम् ॥ प्रफुल्ल कञ्ज लोचनं। मदादि दोष मोचनम् ॥ प्रलम्ब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवम् ॥ निषङ्ग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकम् ॥ दिनेश वंश मण्डनं। महेश चाप खण्डनम् ॥ मुनीन्द्र सन्त रञ्जनं। सुरारि वृन्द भञ्जनम् ॥ मनोज वैरि वन्दितं। अजादि देव सेवितम् ॥ विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहम् ॥ नमामि इन्दिरा पतिं। सुखाकरं सतां गतिम् ॥ भजे सशक्ति सानुजं। शची पतिं प्रियानुजम् ॥ त्वदङ्घ्रि मूल ये नराः। भजन्ति हीन मत्सरा ॥ पतन्ति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि सङ्कुले ॥ विविक्त वासिनः सदा। भजन्ति मुक्तये मुदा ॥ निरस्य इन्द्रियादिकं। प्रयान्ति ते गतिं स्वकम् ॥ तमेकमभ्दुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुम् ॥ जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलम् ॥ भजामि भाव वल्लभं। कुयोगिनां सुदुर्लभम् ॥ स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहम् ॥ अनूप रूप भूपतिं। नतोऽहमुर्विजा पतिम् ॥ प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥ पठन्ति ये स्तवं इदं। नरादरेण ते पदम् ॥ व्रजन्ति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुता ॥ दो. बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि। चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि ॥ 4 ॥ श्री गणेशाय नमः श्री जानकीवल्लभो विजयते श्री रामचरितमानस ---------- तृतीय सोपान (अरण्यकाण्ड) श्लोक मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्। मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शङ्करं वन्दे ब्रह्मकुलं कलङ्कशमनं श्रीरामभूपप्रियम् ॥ 1 ॥ सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम् राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे ॥ 2 ॥ सो. उमा राम गुन गूढ़ पण्डित मुनि पावहिं बिरति। पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति ॥ पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई ॥ अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन ॥ एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए ॥ सीतहि पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुन्दर ॥ सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा ॥ जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मन्दमति पावन चाहा ॥ सीता चरन चौञ्च हति भागा। मूढ़ मन्दमति कारन कागा ॥ चला रुधिर रघुनायक जाना। सीङ्क धनुष सायक सन्धाना ॥ दो. अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह। ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह ॥ 1 ॥ प्रेरित मन्त्र ब्रह्मसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा ॥ धरि निज रुप गयु पितु पाहीं। राम बिमुख राखा तेहि नाहीम् ॥ भा निरास उपजी मन त्रासा। जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा ॥ ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका। फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका ॥ काहूँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकि राम कर द्रोही ॥ मातु मृत्यु पितु समन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना ॥ मित्र करि सत रिपु कै करनी। ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी ॥ सब जगु ताहि अनलहु ते ताता। जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता ॥ नारद देखा बिकल जयन्ता। लागि दया कोमल चित सन्ता ॥ पठवा तुरत राम पहिं ताही। कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही ॥ आतुर सभय गहेसि पद जाई। त्राहि त्राहि दयाल रघुराई ॥ अतुलित बल अतुलित प्रभुताई। मैं मतिमन्द जानि नहिं पाई ॥ निज कृत कर्म जनित फल पायुँ। अब प्रभु पाहि सरन तकि आयुँ ॥ सुनि कृपाल अति आरत बानी। एकनयन करि तजा भवानी ॥ सो. कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित। प्रभु छाड़एउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम ॥ 2 ॥ रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किए श्रुति सुधा समाना ॥ बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भीर सबहिं मोहि जाना ॥ सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई। सीता सहित चले द्वौ भाई ॥ अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयू। सुनत महामुनि हरषित भयू ॥ पुलकित गात अत्रि उठि धाए। देखि रामु आतुर चलि आए ॥ करत दण्डवत मुनि उर लाए। प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए ॥ देखि राम छबि नयन जुड़आने। सादर निज आश्रम तब आने ॥ करि पूजा कहि बचन सुहाए। दिए मूल फल प्रभु मन भाए ॥ सो. प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि। मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत ॥ 3 ॥ छं. नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलम् ॥ भजामि ते पदाम्बुजं। अकामिनां स्वधामदम् ॥ निकाम श्याम सुन्दरं। भवाम्बुनाथ मन्दरम् ॥ प्रफुल्ल कञ्ज लोचनं। मदादि दोष मोचनम् ॥ प्रलम्ब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवम् ॥ निषङ्ग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकम् ॥ दिनेश वंश मण्डनं। महेश चाप खण्डनम् ॥ मुनीन्द्र सन्त रञ्जनं। सुरारि वृन्द भञ्जनम् ॥ मनोज वैरि वन्दितं। अजादि देव सेवितम् ॥ विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहम् ॥ नमामि इन्दिरा पतिं। सुखाकरं सतां गतिम् ॥ भजे सशक्ति सानुजं। शची पतिं प्रियानुजम् ॥ त्वदङ्घ्रि मूल ये नराः। भजन्ति हीन मत्सरा ॥ पतन्ति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि सङ्कुले ॥ विविक्त वासिनः सदा। भजन्ति मुक्तये मुदा ॥ निरस्य इन्द्रियादिकं। प्रयान्ति ते गतिं स्वकम् ॥ तमेकमभ्दुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुम् ॥ जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलम् ॥ भजामि भाव वल्लभं। कुयोगिनां सुदुर्लभम् ॥ स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहम् ॥ अनूप रूप भूपतिं। नतोऽहमुर्विजा पतिम् ॥ प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥ पठन्ति ये स्तवं इदं। नरादरेण ते पदम् ॥ व्रजन्ति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुता ॥ दो. बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि। चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि ॥ 4 ॥ अनुसुइया के पद गहि सीता। मिली बहोरि सुसील बिनीता ॥ रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई। आसिष देइ निकट बैठाई ॥ दिब्य बसन भूषन पहिराए। जे नित नूतन अमल सुहाए ॥ कह रिषिबधू सरस मृदु बानी। नारिधर्म कछु ब्याज बखानी ॥ मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुनु राजकुमारी ॥ अमित दानि भर्ता बयदेही। अधम सो नारि जो सेव न तेही ॥ धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी ॥ बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अधं बधिर क्रोधी अति दीना ॥ ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना ॥ एकि धर्म एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा ॥ जग पति ब्रता चारि बिधि अहहिं। बेद पुरान सन्त सब कहहिम् ॥ उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीम् ॥ मध्यम परपति देखि कैसें। भ्राता पिता पुत्र निज जैंसेम् ॥ धर्म बिचारि समुझि कुल रही। सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कही ॥ बिनु अवसर भय तें रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई ॥ पति बञ्चक परपति रति करी। रौरव नरक कल्प सत परी ॥ छन सुख लागि जनम सत कोटि। दुख न समुझ तेहि सम को खोटी ॥ बिनु श्रम नारि परम गति लही। पतिब्रत धर्म छाड़इ छल गही ॥ पति प्रतिकुल जनम जहँ जाई। बिधवा होई पाई तरुनाई ॥ सो. सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहि। जसु गावत श्रुति चारि अजहु तुलसिका हरिहि प्रिय ॥ 5क ॥ सनु सीता तव नाम सुमिर नारि पतिब्रत करहि। तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित ॥ 5ख ॥ सुनि जानकीं परम सुखु पावा। सादर तासु चरन सिरु नावा ॥ तब मुनि सन कह कृपानिधाना। आयसु होइ जाउँ बन आना ॥ सन्तत मो पर कृपा करेहू। सेवक जानि तजेहु जनि नेहू ॥ धर्म धुरन्धर प्रभु कै बानी। सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी ॥ जासु कृपा अज सिव सनकादी। चहत सकल परमारथ बादी ॥ ते तुम्ह राम अकाम पिआरे। दीन बन्धु मृदु बचन उचारे ॥ अब जानी मैं श्री चतुराई। भजी तुम्हहि सब देव बिहाई ॥ जेहि समान अतिसय नहिं कोई। ता कर सील कस न अस होई ॥ केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी। कहहु नाथ तुम्ह अन्तरजामी ॥ अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा। लोचन जल बह पुलक सरीरा ॥ छं. तन पुलक निर्भर प्रेम पुरन नयन मुख पङ्कज दिए। मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए ॥ जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावी। रधुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावी ॥ दो. कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल। सादर सुनहि जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल ॥ 6(क) ॥ सो. कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप। परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर ॥ 6(ख) ॥ मुनि पद कमल नाइ करि सीसा। चले बनहि सुर नर मुनि ईसा ॥ आगे राम अनुज पुनि पाछें। मुनि बर बेष बने अति काछेम् ॥ उमय बीच श्री सोहि कैसी। ब्रह्म जीव बिच माया जैसी ॥ सरिता बन गिरि अवघट घाटा। पति पहिचानी देहिं बर बाटा ॥ जहँ जहँ जाहि देव रघुराया। करहिं मेध तहँ तहँ नभ छाया ॥ मिला असुर बिराध मग जाता। आवतहीं रघुवीर निपाता ॥ तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा। देखि दुखी निज धाम पठावा ॥ पुनि आए जहँ मुनि सरभङ्गा। सुन्दर अनुज जानकी सङ्गा ॥ दो. देखी राम मुख पङ्कज मुनिबर लोचन भृङ्ग। सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभङ्ग ॥ 7 ॥ कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला। सङ्कर मानस राजमराला ॥ जात रहेउँ बिरञ्चि के धामा। सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा ॥ चितवत पन्थ रहेउँ दिन राती। अब प्रभु देखि जुड़आनी छाती ॥ नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना ॥ सो कछु देव न मोहि निहोरा। निज पन राखेउ जन मन चोरा ॥ तब लगि रहहु दीन हित लागी। जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी ॥ जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा। प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा ॥ एहि बिधि सर रचि मुनि सरभङ्गा। बैठे हृदयँ छाड़इ सब सङ्गा ॥ दो. सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम। मम हियँ बसहु निरन्तर सगुनरुप श्रीराम ॥ 8 ॥ अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। राम कृपाँ बैकुण्ठ सिधारा ॥ ताते मुनि हरि लीन न भयू। प्रथमहिं भेद भगति बर लयू ॥ रिषि निकाय मुनिबर गति देखि। सुखी भे निज हृदयँ बिसेषी ॥ अस्तुति करहिं सकल मुनि बृन्दा। जयति प्रनत हित करुना कन्दा ॥ पुनि रघुनाथ चले बन आगे। मुनिबर बृन्द बिपुल सँग लागे ॥ अस्थि समूह देखि रघुराया। पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया ॥ जानतहुँ पूछिअ कस स्वामी। सबदरसी तुम्ह अन्तरजामी ॥ निसिचर निकर सकल मुनि खाए। सुनि रघुबीर नयन जल छाए ॥ दो. निसिचर हीन करुँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह। सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह ॥ 9 ॥ मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना ॥ मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक ॥ प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा। करत मनोरथ आतुर धावा ॥ हे बिधि दीनबन्धु रघुराया। मो से सठ पर करिहहिं दाया ॥ सहित अनुज मोहि राम गोसाई। मिलिहहिं निज सेवक की नाई ॥ मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं। भगति बिरति न ग्यान मन माहीम् ॥ नहिं सतसङ्ग जोग जप जागा। नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा ॥ एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥ होइहैं सुफल आजु मम लोचन। देखि बदन पङ्कज भव मोचन ॥ निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी ॥ दिसि अरु बिदिसि पन्थ नहिं सूझा। को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा ॥ कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करि गुन गाई ॥ अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई। प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई ॥ अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा ॥ मुनि मग माझ अचल होइ बैसा। पुलक सरीर पनस फल जैसा ॥ तब रघुनाथ निकट चलि आए। देखि दसा निज जन मन भाए ॥ मुनिहि राम बहु भाँति जगावा। जाग न ध्यानजनित सुख पावा ॥ भूप रूप तब राम दुरावा। हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा ॥ मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें। बिकल हीन मनि फनि बर जैसेम् ॥ आगें देखि राम तन स्यामा। सीता अनुज सहित सुख धामा ॥ परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी। प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी ॥ भुज बिसाल गहि लिए उठाई। परम प्रीति राखे उर लाई ॥ मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला। कनक तरुहि जनु भेण्ट तमाला ॥ राम बदनु बिलोक मुनि ठाढ़आ। मानहुँ चित्र माझ लिखि काढ़आ ॥ दो. तब मुनि हृदयँ धीर धीर गहि पद बारहिं बार। निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार ॥ 10 ॥ कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी ॥ महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी ॥ श्याम तामरस दाम शरीरं। जटा मुकुट परिधन मुनिचीरम् ॥ पाणि चाप शर कटि तूणीरं। नौमि निरन्तर श्रीरघुवीरम् ॥ मोह विपिन घन दहन कृशानुः। सन्त सरोरुह कानन भानुः ॥ निशिचर करि वरूथ मृगराजः। त्रातु सदा नो भव खग बाजः ॥ अरुण नयन राजीव सुवेशं। सीता नयन चकोर निशेशम् ॥ हर ह्रदि मानस बाल मरालं। नौमि राम उर बाहु विशालम् ॥ संशय सर्प ग्रसन उरगादः। शमन सुकर्कश तर्क विषादः ॥ भव भञ्जन रञ्जन सुर यूथः। त्रातु सदा नो कृपा वरूथः ॥ निर्गुण सगुण विषम सम रूपं। ज्ञान गिरा गोतीतमनूपम् ॥ अमलमखिलमनवद्यमपारं। नौमि राम भञ्जन महि भारम् ॥ भक्त कल्पपादप आरामः। तर्जन क्रोध लोभ मद कामः ॥ अति नागर भव सागर सेतुः। त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः ॥ अतुलित भुज प्रताप बल धामः। कलि मल विपुल विभञ्जन नामः ॥ धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः। सन्तत शं तनोतु मम रामः ॥ जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी। सब के हृदयँ निरन्तर बासी ॥ तदपि अनुज श्री सहित खरारी। बसतु मनसि मम काननचारी ॥ जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी। सगुन अगुन उर अन्तरजामी ॥ जो कोसल पति राजिव नयना। करु सो राम हृदय मम अयना। अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे ॥ सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए ॥ परम प्रसन्न जानु मुनि मोही। जो बर मागहु देउ सो तोही ॥ मुनि कह मै बर कबहुँ न जाचा। समुझि न परि झूठ का साचा ॥ तुम्हहि नीक लागै रघुराई। सो मोहि देहु दास सुखदाई ॥ अबिरल भगति बिरति बिग्याना। होहु सकल गुन ग्यान निधाना ॥ प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा। अब सो देहु मोहि जो भावा ॥ दो. अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम। मम हिय गगन इन्दु इव बसहु सदा निहकाम ॥ 11 ॥ एवमस्तु करि रमानिवासा। हरषि चले कुभञ्ज रिषि पासा ॥ बहुत दिवस गुर दरसन पाएँ। भे मोहि एहिं आश्रम आएँ ॥ अब प्रभु सङ्ग जाउँ गुर पाहीं। तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीम् ॥ देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए सङ्ग बिहसै द्वौ भाई ॥ पन्थ कहत निज भगति अनूपा। मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा ॥ तुरत सुतीछन गुर पहिं गयू। करि दण्डवत कहत अस भयू ॥ नाथ कौसलाधीस कुमारा। आए मिलन जगत आधारा ॥ राम अनुज समेत बैदेही। निसि दिनु देव जपत हहु जेही ॥ सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए। हरि बिलोकि लोचन जल छाए ॥ मुनि पद कमल परे द्वौ भाई। रिषि अति प्रीति लिए उर लाई ॥ सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी। आसन बर बैठारे आनी ॥ पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा। मोहि सम भाग्यवन्त नहिं दूजा ॥ जहँ लगि रहे अपर मुनि बृन्दा। हरषे सब बिलोकि सुखकन्दा ॥ दो. मुनि समूह महँ बैठे सन्मुख सब की ओर। सरद इन्दु तन चितवत मानहुँ निकर चकोर ॥ 12 ॥ तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं। तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाही ॥ तुम्ह जानहु जेहि कारन आयुँ। ताते तात न कहि समुझायुँ ॥ अब सो मन्त्र देहु प्रभु मोही। जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही ॥ मुनि मुसकाने सुनि प्रभु बानी। पूछेहु नाथ मोहि का जानी ॥ तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी। जानुँ महिमा कछुक तुम्हारी ॥ ऊमरि तरु बिसाल तव माया। फल ब्रह्माण्ड अनेक निकाया ॥ जीव चराचर जन्तु समाना। भीतर बसहि न जानहिं आना ॥ ते फल भच्छक कठिन कराला। तव भयँ डरत सदा सौ काला ॥ ते तुम्ह सकल लोकपति साईं। पूँछेहु मोहि मनुज की नाईम् ॥ यह बर मागुँ कृपानिकेता। बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता ॥ अबिरल भगति बिरति सतसङ्गा। चरन सरोरुह प्रीति अभङ्गा ॥ जद्यपि ब्रह्म अखण्ड अनन्ता। अनुभव गम्य भजहिं जेहि सन्ता ॥ अस तव रूप बखानुँ जानुँ। फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानुँ ॥ सन्तत दासन्ह देहु बड़आई। तातें मोहि पूँछेहु रघुराई ॥ है प्रभु परम मनोहर ठ्AUँ। पावन पञ्चबटी तेहि न्AUँ ॥ दण्डक बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र साप मुनिबर कर हरहू ॥ बास करहु तहँ रघुकुल राया। कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया ॥ चले राम मुनि आयसु पाई। तुरतहिं पञ्चबटी निअराई ॥ दो. गीधराज सैं भैण्ट भि बहु बिधि प्रीति बढ़आइ ॥ गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ ॥ 13 ॥ जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भे मुनि बीती त्रासा ॥ गिरि बन नदीं ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति हौहिं सुहाए ॥ खग मृग बृन्द अनन्दित रहहीं। मधुप मधुर गञ्जत छबि लहहीम् ॥ सो बन बरनि न सक अहिराजा। जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा ॥ एक बार प्रभु सुख आसीना। लछिमन बचन कहे छलहीना ॥ सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछुँ निज प्रभु की नाई ॥ मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा ॥ कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया ॥ दो. ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ ॥ जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ ॥ 14 ॥ थोरेहि महँ सब कहुँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित लाई ॥ मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ॥ गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई ॥ तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ ॥ एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा। जा बस जीव परा भवकूपा ॥ एक रचि जग गुन बस जाकें। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकेम् ॥ ग्यान मान जहँ एकु नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माही ॥ कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी ॥ दो. माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव। बन्ध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव ॥ 15 ॥ धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना ॥ जातें बेगि द्रवुँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई ॥ सो सुतन्त्र अवलम्ब न आना। तेहि आधीन ग्यान बिग्याना ॥ भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलि जो सन्त होइँ अनुकूला ॥ भगति कि साधन कहुँ बखानी। सुगम पन्थ मोहि पावहिं प्रानी ॥ प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती ॥ एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा ॥ श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़आहीं। मम लीला रति अति मन माहीम् ॥ सन्त चरन पङ्कज अति प्रेमा। मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा ॥ गुरु पितु मातु बन्धु पति देवा। सब मोहि कहँ जाने दृढ़ सेवा ॥ मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा ॥ काम आदि मद दम्भ न जाकें। तात निरन्तर बस मैं ताकेम् ॥ दो. बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम ॥ तिन्ह के हृदय कमल महुँ करुँ सदा बिश्राम ॥ 16 ॥ भगति जोग सुनि अति सुख पावा। लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा ॥ एहि बिधि गे कछुक दिन बीती। कहत बिराग ग्यान गुन नीती ॥ सूपनखा रावन कै बहिनी। दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी ॥ पञ्चबटी सो गि एक बारा। देखि बिकल भि जुगल कुमारा ॥ भ्राता पिता पुत्र उरगारी। पुरुष मनोहर निरखत नारी ॥ होइ बिकल सक मनहि न रोकी। जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी ॥ रुचिर रुप धरि प्रभु पहिं जाई। बोली बचन बहुत मुसुकाई ॥ तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी। यह सँजोग बिधि रचा बिचारी ॥ मम अनुरूप पुरुष जग माहीं। देखेउँ खोजि लोक तिहु नाहीम् ॥ ताते अब लगि रहिउँ कुमारी। मनु माना कछु तुम्हहि निहारी ॥ सीतहि चिति कही प्रभु बाता। अहि कुआर मोर लघु भ्राता ॥ गि लछिमन रिपु भगिनी जानी। प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी ॥ सुन्दरि सुनु मैं उन्ह कर दासा। पराधीन नहिं तोर सुपासा ॥ प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा। जो कछु करहिं उनहि सब छाजा ॥ सेवक सुख चह मान भिखारी। ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी ॥ लोभी जसु चह चार गुमानी। नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी ॥ पुनि फिरि राम निकट सो आई। प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई ॥ लछिमन कहा तोहि सो बरी। जो तृन तोरि लाज परिहरी ॥ तब खिसिआनि राम पहिं गी। रूप भयङ्कर प्रगटत भी ॥ सीतहि सभय देखि रघुराई। कहा अनुज सन सयन बुझाई ॥ दो. लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि। ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि ॥ 17 ॥ नाक कान बिनु भि बिकरारा। जनु स्त्रव सैल गैरु कै धारा ॥ खर दूषन पहिं गि बिलपाता। धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता ॥ तेहि पूछा सब कहेसि बुझाई। जातुधान सुनि सेन बनाई ॥ धाए निसिचर निकर बरूथा। जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा ॥ नाना बाहन नानाकारा। नानायुध धर घोर अपारा ॥ सुपनखा आगें करि लीनी। असुभ रूप श्रुति नासा हीनी ॥ असगुन अमित होहिं भयकारी। गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी ॥ गर्जहि तर्जहिं गगन उड़आहीं। देखि कटकु भट अति हरषाहीम् ॥ कौ कह जिअत धरहु द्वौ भाई। धरि मारहु तिय लेहु छड़आई ॥ धूरि पूरि नभ मण्डल रहा। राम बोलाइ अनुज सन कहा ॥ लै जानकिहि जाहु गिरि कन्दर। आवा निसिचर कटकु भयङ्कर ॥ रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी। चले सहित श्री सर धनु पानी ॥ देखि राम रिपुदल चलि आवा। बिहसि कठिन कोदण्ड चढ़आवा ॥ छं. कोदण्ड कठिन चढ़आइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों। मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्योम् ॥ कटि कसि निषङ्ग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै ॥ चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै ॥ सो. आइ गे बगमेल धरहु धरहु धावत सुभट। जथा बिलोकि अकेल बाल रबिहि घेरत दनुज ॥ 18 ॥ प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी। थकित भी रजनीचर धारी ॥ सचिव बोलि बोले खर दूषन। यह कौ नृपबालक नर भूषन ॥ नाग असुर सुर नर मुनि जेते। देखे जिते हते हम केते ॥ हम भरि जन्म सुनहु सब भाई। देखी नहिं असि सुन्दरताई ॥ जद्यपि भगिनी कीन्ह कुरूपा। बध लायक नहिं पुरुष अनूपा ॥ देहु तुरत निज नारि दुराई। जीअत भवन जाहु द्वौ भाई ॥ मोर कहा तुम्ह ताहि सुनावहु। तासु बचन सुनि आतुर आवहु ॥ दूतन्ह कहा राम सन जाई। सुनत राम बोले मुसकाई ॥ हम छत्री मृगया बन करहीं। तुम्ह से खल मृग खौजत फिरहीम् ॥ रिपु बलवन्त देखि नहिं डरहीं। एक बार कालहु सन लरहीम् ॥ जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक। मुनि पालक खल सालक बालक ॥ जौं न होइ बल घर फिरि जाहू। समर बिमुख मैं हतुँ न काहू ॥ रन चढ़इ करिअ कपट चतुराई। रिपु पर कृपा परम कदराई ॥ दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ। सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ ॥ छं. उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा। सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा ॥ प्रभु कीन्ह धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा। भे बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा ॥ दो. सावधान होइ धाए जानि सबल आराति। लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहु भाँति ॥ 19(क) ॥ तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर। तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँड़ए निज तीर ॥ 19(ख) ॥ छं. तब चले जान बबान कराल। फुङ्करत जनु बहु ब्याल ॥ कोपेउ समर श्रीराम। चले बिसिख निसित निकाम ॥ अवलोकि खरतर तीर। मुरि चले निसिचर बीर ॥ भे क्रुद्ध तीनिउ भाइ। जो भागि रन ते जाइ ॥ तेहि बधब हम निज पानि। फिरे मरन मन महुँ ठानि ॥ आयुध अनेक प्रकार। सनमुख ते करहिं प्रहार ॥ रिपु परम कोपे जानि। प्रभु धनुष सर सन्धानि ॥ छाँड़ए बिपुल नाराच। लगे कटन बिकट पिसाच ॥ उर सीस भुज कर चरन। जहँ तहँ लगे महि परन ॥ चिक्करत लागत बान। धर परत कुधर समान ॥ भट कटत तन सत खण्ड। पुनि उठत करि पाषण्ड ॥ नभ उड़त बहु भुज मुण्ड। बिनु मौलि धावत रुण्ड ॥ खग कङ्क काक सृगाल। कटकटहिं कठिन कराल ॥ छं. कटकटहिं ज़म्बुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर सञ्चहीं। बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नञ्चहीम् ॥ रघुबीर बान प्रचण्ड खण्डहिं भटन्ह के उर भुज सिरा। जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयकर गिरा ॥ अन्तावरीं गहि उड़त गीध पिसाच कर गहि धावहीम् ॥ सङ्ग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुड़ई उड़आवहीम् ॥ मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे। अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे ॥ सर सक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं। करि कोप श्रीरघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीम् ॥ प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका। दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका ॥ महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी। सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी ॥ सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर् यो। देखहि परसपर राम करि सङ्ग्राम रिपुदल लरि मर् यो ॥ दो. राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान। करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान ॥ 20(क) ॥ हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान। अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान ॥ 20(ख) ॥ जब रघुनाथ समर रिपु जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते ॥ तब लछिमन सीतहि लै आए। प्रभु पद परत हरषि उर लाए। सीता चितव स्याम मृदु गाता। परम प्रेम लोचन न अघाता ॥ पञ्चवटीं बसि श्रीरघुनायक। करत चरित सुर मुनि सुखदायक ॥ धुआँ देखि खरदूषन केरा। जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा ॥ बोलि बचन क्रोध करि भारी। देस कोस कै सुरति बिसारी ॥ करसि पान सोवसि दिनु राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती ॥ राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा ॥ बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढ़ए किएँ अरु पाएँ ॥ सङ्ग ते जती कुमन्त्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा ॥ प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहि बेगि नीति अस सुनी ॥ सो. रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि। अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन ॥ 21(क) ॥ दो. सभा माझ परि ब्याकुल बहु प्रकार कह रोइ। तोहि जिअत दसकन्धर मोरि कि असि गति होइ ॥ 21(ख) ॥ सुनत सभासद उठे अकुलाई। समुझाई गहि बाहँ उठाई ॥ कह लङ्केस कहसि निज बाता। केँइँ तव नासा कान निपाता ॥ अवध नृपति दसरथ के जाए। पुरुष सिङ्घ बन खेलन आए ॥ समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी। रहित निसाचर करिहहिं धरनी ॥ जिन्ह कर भुजबल पाइ दसानन। अभय भे बिचरत मुनि कानन ॥ देखत बालक काल समाना। परम धीर धन्वी गुन नाना ॥ अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता। खल बध रत सुर मुनि सुखदाता ॥ सोभाधाम राम अस नामा। तिन्ह के सङ्ग नारि एक स्यामा ॥ रुप रासि बिधि नारि सँवारी। रति सत कोटि तासु बलिहारी ॥ तासु अनुज काटे श्रुति नासा। सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा ॥ खर दूषन सुनि लगे पुकारा। छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा ॥ खर दूषन तिसिरा कर घाता। सुनि दससीस जरे सब गाता ॥ दो. सुपनखहि समुझाइ करि बल बोलेसि बहु भाँति। गयु भवन अति सोचबस नीद परि नहिं राति ॥ 22 ॥ सुर नर असुर नाग खग माहीं। मोरे अनुचर कहँ कौ नाहीम् ॥ खर दूषन मोहि सम बलवन्ता। तिन्हहि को मारि बिनु भगवन्ता ॥ सुर रञ्जन भञ्जन महि भारा। जौं भगवन्त लीन्ह अवतारा ॥ तौ मै जाइ बैरु हठि करूँ। प्रभु सर प्रान तजें भव तरूँ ॥ होइहि भजनु न तामस देहा। मन क्रम बचन मन्त्र दृढ़ एहा ॥ जौं नररुप भूपसुत कोऊ। हरिहुँ नारि जीति रन दोऊ ॥ चला अकेल जान चढि तहवाँ। बस मारीच सिन्धु तट जहवाँ ॥ इहाँ राम जसि जुगुति बनाई। सुनहु उमा सो कथा सुहाई ॥ दो. लछिमन गे बनहिं जब लेन मूल फल कन्द। जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृन्द ॥ 23 ॥ सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला ॥ तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा ॥ जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी ॥ निज प्रतिबिम्ब राखि तहँ सीता। तैसि सील रुप सुबिनीता ॥ लछिमनहूँ यह मरमु न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना ॥ दसमुख गयु जहाँ मारीचा। नाइ माथ स्वारथ रत नीचा ॥ नवनि नीच कै अति दुखदाई। जिमि अङ्कुस धनु उरग बिलाई ॥ भयदायक खल कै प्रिय बानी। जिमि अकाल के कुसुम भवानी ॥ दो. करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात। कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात ॥ 24 ॥ दसमुख सकल कथा तेहि आगें। कही सहित अभिमान अभागेम् ॥ होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी। जेहि बिधि हरि आनौ नृपनारी ॥ तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा। ते नररुप चराचर ईसा ॥ तासों तात बयरु नहिं कीजे। मारें मरिअ जिआएँ जीजै ॥ मुनि मख राखन गयु कुमारा। बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा ॥ सत जोजन आयुँ छन माहीं। तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीम् ॥ भि मम कीट भृङ्ग की नाई। जहँ तहँ मैं देखुँ दौ भाई ॥ जौं नर तात तदपि अति सूरा। तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा ॥ दो. जेहिं ताड़का सुबाहु हति खण्डेउ हर कोदण्ड ॥ खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबण्ड ॥ 25 ॥ जाहु भवन कुल कुसल बिचारी। सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी ॥ गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा। कहु जग मोहि समान को जोधा ॥ तब मारीच हृदयँ अनुमाना। नवहि बिरोधें नहिं कल्याना ॥ सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी। बैद बन्दि कबि भानस गुनी ॥ उभय भाँति देखा निज मरना। तब ताकिसि रघुनायक सरना ॥ उतरु देत मोहि बधब अभागें। कस न मरौं रघुपति सर लागेम् ॥ अस जियँ जानि दसानन सङ्गा। चला राम पद प्रेम अभङ्गा ॥ मन अति हरष जनाव न तेही। आजु देखिहुँ परम सनेही ॥ छं. निज परम प्रीतम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं। श्री सहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौम् ॥ निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी। निज पानि सर सन्धानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी ॥ दो. मम पाछें धर धावत धरें सरासन बान। फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहुँ धन्य न मो सम आन ॥ 26 ॥ तेहि बन निकट दसानन गयू। तब मारीच कपटमृग भयू ॥ अति बिचित्र कछु बरनि न जाई। कनक देह मनि रचित बनाई ॥ सीता परम रुचिर मृग देखा। अङ्ग अङ्ग सुमनोहर बेषा ॥ सुनहु देव रघुबीर कृपाला। एहि मृग कर अति सुन्दर छाला ॥ सत्यसन्ध प्रभु बधि करि एही। आनहु चर्म कहति बैदेही ॥ तब रघुपति जानत सब कारन। उठे हरषि सुर काजु सँवारन ॥ मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा। करतल चाप रुचिर सर साँधा ॥ प्रभु लछिमनिहि कहा समुझाई। फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई ॥ सीता केरि करेहु रखवारी। बुधि बिबेक बल समय बिचारी ॥ प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी। धाए रामु सरासन साजी ॥ निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछें सो धावा ॥ कबहुँ निकट पुनि दूरि पराई। कबहुँक प्रगटि कबहुँ छपाई ॥ प्रगटत दुरत करत छल भूरी। एहि बिधि प्रभुहि गयु लै दूरी ॥ तब तकि राम कठिन सर मारा। धरनि परेउ करि घोर पुकारा ॥ लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा। पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा ॥ प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा। सुमिरेसि रामु समेत सनेहा ॥ अन्तर प्रेम तासु पहिचाना। मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना ॥ दो. बिपुल सुमन सुर बरषहिं गावहिं प्रभु गुन गाथ। निज पद दीन्ह असुर कहुँ दीनबन्धु रघुनाथ ॥ 27 ॥ खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा। सोह चाप कर कटि तूनीरा ॥ आरत गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता ॥ जाहु बेगि सङ्कट अति भ्राता। लछिमन बिहसि कहा सुनु माता ॥ भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ सङ्कट परि कि सोई ॥ मरम बचन जब सीता बोला। हरि प्रेरित लछिमन मन डोला ॥ बन दिसि देव सौम्पि सब काहू। चले जहाँ रावन ससि राहू ॥ सून बीच दसकन्धर देखा। आवा निकट जती कें बेषा ॥ जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीम् ॥ सो दससीस स्वान की नाई। इत उत चिति चला भड़इहाई ॥ इमि कुपन्थ पग देत खगेसा। रह न तेज बुधि बल लेसा ॥ नाना बिधि करि कथा सुहाई। राजनीति भय प्रीति देखाई ॥ कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईम् ॥ तब रावन निज रूप देखावा। भी सभय जब नाम सुनावा ॥ कह सीता धरि धीरजु गाढ़आ। आइ गयु प्रभु रहु खल ठाढ़आ ॥ जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा। भेसि कालबस निसिचर नाहा ॥ सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महुँ चरन बन्दि सुख माना ॥ दो. क्रोधवन्त तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ। चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ ॥ 28 ॥ हा जग एक बीर रघुराया। केहिं अपराध बिसारेहु दाया ॥ आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक ॥ हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा। सो फलु पायुँ कीन्हेउँ रोसा ॥ बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही ॥ बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा। पुरोडास चह रासभ खावा ॥ सीता कै बिलाप सुनि भारी। भे चराचर जीव दुखारी ॥ गीधराज सुनि आरत बानी। रघुकुलतिलक नारि पहिचानी ॥ अधम निसाचर लीन्हे जाई। जिमि मलेछ बस कपिला गाई ॥ सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा। करिहुँ जातुधान कर नासा ॥ धावा क्रोधवन्त खग कैसें। छूटि पबि परबत कहुँ जैसे ॥ रे रे दुष्ट ठाढ़ किन होही। निर्भय चलेसि न जानेहि मोही ॥ आवत देखि कृतान्त समाना। फिरि दसकन्धर कर अनुमाना ॥ की मैनाक कि खगपति होई। मम बल जान सहित पति सोई ॥ जाना जरठ जटायू एहा। मम कर तीरथ छाँड़इहि देहा ॥ सुनत गीध क्रोधातुर धावा। कह सुनु रावन मोर सिखावा ॥ तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू। नाहिं त अस होइहि बहुबाहू ॥ राम रोष पावक अति घोरा। होइहि सकल सलभ कुल तोरा ॥ उतरु न देत दसानन जोधा। तबहिं गीध धावा करि क्रोधा ॥ धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा। सीतहि राखि गीध पुनि फिरा ॥ चौचन्ह मारि बिदारेसि देही। दण्ड एक भि मुरुछा तेही ॥ तब सक्रोध निसिचर खिसिआना। काढ़एसि परम कराल कृपाना ॥ काटेसि पङ्ख परा खग धरनी। सुमिरि राम करि अदभुत करनी ॥ सीतहि जानि चढ़आइ बहोरी। चला उताइल त्रास न थोरी ॥ करति बिलाप जाति नभ सीता। ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता ॥ गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी। कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी ॥ एहि बिधि सीतहि सो लै गयू। बन असोक महँ राखत भयू ॥ दो. हारि परा खल बहु बिधि भय अरु प्रीति देखाइ। तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ ॥ 29(क) ॥ नवान्हपारायण, छठा विश्राम जेहि बिधि कपट कुरङ्ग सँग धाइ चले श्रीराम। सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम ॥ 29(ख) ॥ रघुपति अनुजहि आवत देखी। बाहिज चिन्ता कीन्हि बिसेषी ॥ जनकसुता परिहरिहु अकेली। आयहु तात बचन मम पेली ॥ निसिचर निकर फिरहिं बन माहीं। मम मन सीता आश्रम नाहीम् ॥ गहि पद कमल अनुज कर जोरी। कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी ॥ अनुज समेत गे प्रभु तहवाँ। गोदावरि तट आश्रम जहवाँ ॥ आश्रम देखि जानकी हीना। भे बिकल जस प्राकृत दीना ॥ हा गुन खानि जानकी सीता। रूप सील ब्रत नेम पुनीता ॥ लछिमन समुझाए बहु भाँती। पूछत चले लता तरु पाँती ॥ हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी ॥ खञ्जन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना ॥ कुन्द कली दाड़इम दामिनी। कमल सरद ससि अहिभामिनी ॥ बरुन पास मनोज धनु हंसा। गज केहरि निज सुनत प्रसंसा ॥ श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं। नेकु न सङ्क सकुच मन माहीम् ॥ सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू ॥ किमि सहि जात अनख तोहि पाहीम् । प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीम् ॥ एहि बिधि खौजत बिलपत स्वामी। मनहुँ महा बिरही अति कामी ॥ पूरनकाम राम सुख रासी। मनुज चरित कर अज अबिनासी ॥ आगे परा गीधपति देखा। सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा ॥ दो. कर सरोज सिर परसेउ कृपासिन्धु रधुबीर ॥ निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भी सब पीर ॥ 30 ॥ तब कह गीध बचन धरि धीरा । सुनहु राम भञ्जन भव भीरा ॥ नाथ दसानन यह गति कीन्ही। तेहि खल जनकसुता हरि लीन्ही ॥ लै दच्छिन दिसि गयु गोसाई। बिलपति अति कुररी की नाई ॥ दरस लागी प्रभु राखेंउँ प्राना। चलन चहत अब कृपानिधाना ॥ राम कहा तनु राखहु ताता। मुख मुसकाइ कही तेहिं बाता ॥ जा कर नाम मरत मुख आवा। अधमु मुकुत होई श्रुति गावा ॥ सो मम लोचन गोचर आगें। राखौं देह नाथ केहि खाँगेँ ॥ जल भरि नयन कहहिँ रघुराई। तात कर्म निज ते गतिं पाई ॥ परहित बस जिन्ह के मन माहीँ। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीँ ॥ तनु तजि तात जाहु मम धामा। देउँ काह तुम्ह पूरनकामा ॥ दो. सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ ॥ जौँ मैँ राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ ॥ 31 ॥ गीध देह तजि धरि हरि रुपा। भूषन बहु पट पीत अनूपा ॥ स्याम गात बिसाल भुज चारी। अस्तुति करत नयन भरि बारी ॥ छं. जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही। दससीस बाहु प्रचण्ड खण्डन चण्ड सर मण्डन मही ॥ पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं। नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनम् ॥ 1 ॥ बलमप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचरं। गोबिन्द गोपर द्वन्द्वहर बिग्यानघन धरनीधरम् ॥ जे राम मन्त्र जपन्त सन्त अनन्त जन मन रञ्जनं। नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गञ्जनम् ॥ 2। जेहि श्रुति निरञ्जन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीम् ॥ करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीम् ॥ सो प्रगट करुना कन्द सोभा बृन्द अग जग मोही। मम हृदय पङ्कज भृङ्ग अङ्ग अनङ्ग बहु छबि सोही ॥ 3 ॥ जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा। पस्यन्ति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा ॥ सो राम रमा निवास सन्तत दास बस त्रिभुवन धनी। मम उर बसु सो समन संसृति जासु कीरति पावनी ॥ 4 ॥ दो. अबिरल भगति मागि बर गीध गयु हरिधाम। तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम ॥ 32 ॥ कोमल चित अति दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला ॥ गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्हि जो जाचत जोगी ॥ सुनहु उमा ते लोग अभागी। हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी ॥ पुनि सीतहि खोजत द्वौ भाई। चले बिलोकत बन बहुताई ॥ सङ्कुल लता बिटप घन कानन। बहु खग मृग तहँ गज पञ्चानन ॥ आवत पन्थ कबन्ध निपाता। तेहिं सब कही साप कै बाता ॥ दुरबासा मोहि दीन्ही सापा। प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा ॥ सुनु गन्धर्ब कहुँ मै तोही। मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही ॥ दो. मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव। मोहि समेत बिरञ्चि सिव बस ताकें सब देव ॥ 33 ॥ सापत ताड़त परुष कहन्ता। बिप्र पूज्य अस गावहिं सन्ता ॥ पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना ॥ कहि निज धर्म ताहि समुझावा। निज पद प्रीति देखि मन भावा ॥ रघुपति चरन कमल सिरु नाई। गयु गगन आपनि गति पाई ॥ ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी कें आश्रम पगु धारा ॥ सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए ॥ सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला ॥ स्याम गौर सुन्दर दौ भाई। सबरी परी चरन लपटाई ॥ प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा ॥ सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुन्दर आसन बैठारे ॥ दो. कन्द मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि। प्रेम सहित प्रभु खाए बारम्बार बखानि ॥ 34 ॥ पानि जोरि आगें भि ठाढ़ई। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ई ॥ केहि बिधि अस्तुति करौ तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी ॥ अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमन्द अघारी ॥ कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानुँ एक भगति कर नाता ॥ जाति पाँति कुल धर्म बड़आई। धन बल परिजन गुन चतुराई ॥ भगति हीन नर सोहि कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ॥ नवधा भगति कहुँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीम् ॥ प्रथम भगति सन्तन्ह कर सङ्गा। दूसरि रति मम कथा प्रसङ्गा ॥ दो. गुर पद पङ्कज सेवा तीसरि भगति अमान। चौथि भगति मम गुन गन करि कपट तजि गान ॥ 35 ॥ मन्त्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पञ्चम भजन सो बेद प्रकासा ॥ छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरन्तर सज्जन धरमा ॥ सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें सन्त अधिक करि लेखा ॥ आठवँ जथालाभ सन्तोषा। सपनेहुँ नहिं देखि परदोषा ॥ नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना ॥ नव महुँ एकु जिन्ह के होई। नारि पुरुष सचराचर कोई ॥ सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरेम् ॥ जोगि बृन्द दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भि सोई ॥ मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा ॥ जनकसुता कि सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी ॥ पम्पा सरहि जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई ॥ सो सब कहिहि देव रघुबीरा। जानतहूँ पूछहु मतिधीरा ॥ बार बार प्रभु पद सिरु नाई। प्रेम सहित सब कथा सुनाई ॥ छं. कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदयँ पद पङ्कज धरे। तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भि जहँ नहिं फिरे ॥ नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू। बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू ॥ दो. जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि। महामन्द मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि ॥ 36 ॥ चले राम त्यागा बन सोऊ। अतुलित बल नर केहरि दोऊ ॥ बिरही इव प्रभु करत बिषादा। कहत कथा अनेक सम्बादा ॥ लछिमन देखु बिपिन कि सोभा। देखत केहि कर मन नहिं छोभा ॥ नारि सहित सब खग मृग बृन्दा। मानहुँ मोरि करत हहिं निन्दा ॥ हमहि देखि मृग निकर पराहीं। मृगीं कहहिं तुम्ह कहँ भय नाहीम् ॥ तुम्ह आनन्द करहु मृग जाए। कञ्चन मृग खोजन ए आए ॥ सङ्ग लाइ करिनीं करि लेहीं। मानहुँ मोहि सिखावनु देहीम् ॥ सास्त्र सुचिन्तित पुनि पुनि देखिअ। भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ ॥ राखिअ नारि जदपि उर माहीं। जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीम् ॥ देखहु तात बसन्त सुहावा। प्रिया हीन मोहि भय उपजावा ॥ दो. बिरह बिकल बलहीन मोहि जानेसि निपट अकेल। सहित बिपिन मधुकर खग मदन कीन्ह बगमेल ॥ 37(क) ॥ देखि गयु भ्राता सहित तासु दूत सुनि बात। डेरा कीन्हेउ मनहुँ तब कटकु हटकि मनजात ॥ 37(ख) ॥ बिटप बिसाल लता अरुझानी। बिबिध बितान दिए जनु तानी ॥ कदलि ताल बर धुजा पताका। दैखि न मोह धीर मन जाका ॥ बिबिध भाँति फूले तरु नाना। जनु बानैत बने बहु बाना ॥ कहुँ कहुँ सुन्दर बिटप सुहाए। जनु भट बिलग बिलग होइ छाए ॥ कूजत पिक मानहुँ गज माते। ढेक महोख ऊँट बिसराते ॥ मोर चकोर कीर बर बाजी। पारावत मराल सब ताजी ॥ तीतिर लावक पदचर जूथा। बरनि न जाइ मनोज बरुथा ॥ रथ गिरि सिला दुन्दुभी झरना। चातक बन्दी गुन गन बरना ॥ मधुकर मुखर भेरि सहनाई। त्रिबिध बयारि बसीठीं आई ॥ चतुरङ्गिनी सेन सँग लीन्हें। बिचरत सबहि चुनौती दीन्हेम् ॥ लछिमन देखत काम अनीका। रहहिं धीर तिन्ह कै जग लीका ॥ एहि कें एक परम बल नारी। तेहि तें उबर सुभट सोइ भारी ॥ दो. तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ। मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ ॥ 38(क) ॥ लोभ कें इच्छा दम्भ बल काम कें केवल नारि। क्रोध के परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि ॥ 38(ख) ॥ गुनातीत सचराचर स्वामी। राम उमा सब अन्तरजामी ॥ कामिन्ह कै दीनता देखाई। धीरन्ह कें मन बिरति दृढ़आई ॥ क्रोध मनोज लोभ मद माया। छूटहिं सकल राम कीं दाया ॥ सो नर इन्द्रजाल नहिं भूला। जा पर होइ सो नट अनुकूला ॥ उमा कहुँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत सब सपना ॥ पुनि प्रभु गे सरोबर तीरा। पम्पा नाम सुभग गम्भीरा ॥ सन्त हृदय जस निर्मल बारी। बाँधे घाट मनोहर चारी ॥ जहँ तहँ पिअहिं बिबिध मृग नीरा। जनु उदार गृह जाचक भीरा ॥ दो. पुरिनि सबन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म। मायाछन्न न देखिऐ जैसे निर्गुन ब्रह्म ॥ 39(क) ॥ सुखि मीन सब एकरस अति अगाध जल माहिं। जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख सञ्जुत जाहिम् ॥ 39(ख) ॥ बिकसे सरसिज नाना रङ्गा। मधुर मुखर गुञ्जत बहु भृङ्गा ॥ बोलत जलकुक्कुट कलहंसा। प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा ॥ चक्रवाक बक खग समुदाई। देखत बनि बरनि नहिं जाई ॥ सुन्दर खग गन गिरा सुहाई। जात पथिक जनु लेत बोलाई ॥ ताल समीप मुनिन्ह गृह छाए। चहु दिसि कानन बिटप सुहाए ॥ चम्पक बकुल कदम्ब तमाला। पाटल पनस परास रसाला ॥ नव पल्लव कुसुमित तरु नाना। चञ्चरीक पटली कर गाना ॥ सीतल मन्द सुगन्ध सुभ्AU। सन्तत बहि मनोहर ब्AU ॥ कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं। सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीम् ॥ दो. फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ। पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसम्पति पाइ ॥ 40 ॥ देखि राम अति रुचिर तलावा। मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा ॥ देखी सुन्दर तरुबर छाया। बैठे अनुज सहित रघुराया ॥ तहँ पुनि सकल देव मुनि आए। अस्तुति करि निज धाम सिधाए ॥ बैठे परम प्रसन्न कृपाला। कहत अनुज सन कथा रसाला ॥ बिरहवन्त भगवन्तहि देखी। नारद मन भा सोच बिसेषी ॥ मोर साप करि अङ्गीकारा। सहत राम नाना दुख भारा ॥ ऐसे प्रभुहि बिलोकुँ जाई। पुनि न बनिहि अस अवसरु आई ॥ यह बिचारि नारद कर बीना। गे जहाँ प्रभु सुख आसीना ॥ गावत राम चरित मृदु बानी। प्रेम सहित बहु भाँति बखानी ॥ करत दण्डवत लिए उठाई। राखे बहुत बार उर लाई ॥ स्वागत पूँछि निकट बैठारे। लछिमन सादर चरन पखारे ॥ दो. नाना बिधि बिनती करि प्रभु प्रसन्न जियँ जानि। नारद बोले बचन तब जोरि सरोरुह पानि ॥ 41 ॥ सुनहु उदार सहज रघुनायक। सुन्दर अगम सुगम बर दायक ॥ देहु एक बर मागुँ स्वामी। जद्यपि जानत अन्तरजामी ॥ जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभ्AU। जन सन कबहुँ कि करुँ दुर्AU ॥ कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी। जो मुनिबर न सकहु तुम्ह मागी ॥ जन कहुँ कछु अदेय नहिं मोरें। अस बिस्वास तजहु जनि भोरेम् ॥ तब नारद बोले हरषाई । अस बर मागुँ करुँ ढिठाई ॥ जद्यपि प्रभु के नाम अनेका। श्रुति कह अधिक एक तें एका ॥ राम सकल नामन्ह ते अधिका। हौ नाथ अघ खग गन बधिका ॥ दो. राका रजनी भगति तव राम नाम सोइ सोम। अपर नाम उडगन बिमल बसुहुँ भगत उर ब्योम ॥ 42(क) ॥ एवमस्तु मुनि सन कहेउ कृपासिन्धु रघुनाथ। तब नारद मन हरष अति प्रभु पद नायु माथ ॥ 42(ख) ॥ अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी। पुनि नारद बोले मृदु बानी ॥ राम जबहिं प्रेरेउ निज माया। मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया ॥ तब बिबाह मैं चाहुँ कीन्हा। प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा ॥ सुनु मुनि तोहि कहुँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा ॥ करुँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखि महतारी ॥ गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई। तहँ राखि जननी अरगाई ॥ प्रौढ़ भेँ तेहि सुत पर माता। प्रीति करि नहिं पाछिलि बाता ॥ मोरे प्रौढ़ तनय सम ग्यानी। बालक सुत सम दास अमानी ॥ जनहि मोर बल निज बल ताही। दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही ॥ यह बिचारि पण्डित मोहि भजहीं। पाएहुँ ग्यान भगति नहिं तजहीम् ॥ दो. काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि। तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि ॥ 43 ॥ सुनि मुनि कह पुरान श्रुति सन्ता। मोह बिपिन कहुँ नारि बसन्ता ॥ जप तप नेम जलाश्रय झारी। होइ ग्रीषम सोषि सब नारी ॥ काम क्रोध मद मत्सर भेका। इन्हहि हरषप्रद बरषा एका ॥ दुर्बासना कुमुद समुदाई। तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई ॥ धर्म सकल सरसीरुह बृन्दा। होइ हिम तिन्हहि दहि सुख मन्दा ॥ पुनि ममता जवास बहुताई। पलुहि नारि सिसिर रितु पाई ॥ पाप उलूक निकर सुखकारी। नारि निबिड़ रजनी अँधिआरी ॥ बुधि बल सील सत्य सब मीना। बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना ॥ दो. अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि। ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि ॥ 44 ॥ सुनि रघुपति के बचन सुहाए। मुनि तन पुलक नयन भरि आए ॥ कहहु कवन प्रभु कै असि रीती। सेवक पर ममता अरु प्रीती ॥ जे न भजहिं अस प्रभु भ्रम त्यागी। ग्यान रङ्क नर मन्द अभागी ॥ पुनि सादर बोले मुनि नारद। सुनहु राम बिग्यान बिसारद ॥ सन्तन्ह के लच्छन रघुबीरा। कहहु नाथ भव भञ्जन भीरा ॥ सुनु मुनि सन्तन्ह के गुन कहूँ। जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहूँ ॥ षट बिकार जित अनघ अकामा। अचल अकिञ्चन सुचि सुखधामा ॥ अमितबोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी ॥ सावधान मानद मदहीना। धीर धर्म गति परम प्रबीना ॥ दो. गुनागार संसार दुख रहित बिगत सन्देह ॥ तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह ॥ 45 ॥ निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीम् ॥ सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती ॥ जप तप ब्रत दम सञ्जम नेमा। गुरु गोबिन्द बिप्र पद प्रेमा ॥ श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया ॥ बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। बोध जथारथ बेद पुराना ॥ दम्भ मान मद करहिं न क्AU। भूलि न देहिं कुमारग प्AU ॥ गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला ॥ मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते ॥ छं. कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पङ्कज गहे। अस दीनबन्धु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे ॥ सिरु नाह बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गे ॥ ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए ॥ दो. रावनारि जसु पावन गावहिं सुनहिं जे लोग। राम भगति दृढ़ पावहिं बिनु बिराग जप जोग ॥ 46(क) ॥ दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतङ्ग। भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसङ्ग ॥ 46(ख) ॥ मासपारायण, बाईसवाँ विश्राम इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने तृतीयः सोपानः समाप्तः। (अरण्यकाण्ड समाप्त)Ramcharit-Manas
Shri Ram Arti (श्री राम आरती)
श्री राम आरती भगवान श्रीराम की स्तुति में गाया जाने वाला एक भक्ति गीत है, जो उनके दिव्य रूप, मर्यादा, आदर्श चरित्र और धर्म की स्थापना को समर्पित है।Arti
Shri Ram Vandana (श्री राम-वन्दना)
श्री राम वंदना भगवान श्रीराम की महिमा का गान है, जिसमें उनके आदर्श चरित्र, धर्म पालन और लोक कल्याणकारी कार्यों का वर्णन किया गया है।Vandana
Shri Ram Chalisa
राम चालीसा एक भक्ति गीत है जो भगवान राम के जीवन, आदर्शों और गुणों पर आधारित है। यह 40 छन्दों से मिलकर बनी एक प्रसिद्ध प्रार्थना है। राम चालीसा का पाठ भगवान राम की कृपा पाने, शांति, सुख, और आध्यात्मिक ऊर्जा के लिए किया जाता है। इसे विशेष रूप से राम नवमी, दशहरा, दीपावली, और अन्य रामभक्त त्योहारों पर गाया जाता है। राम चालीसा का पाठ करने से भक्तों को श्रीरामचरितमानस, संपूर्ण रामायण, और हनुमान चालीसा के समान आध्यात्मिक लाभ मिलता है। यह भगवान राम के गुणों जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम, धैर्य, और त्याग को उजागर करता है। इस प्रार्थना को सुबह और शाम के समय, राम आरती, राम मंत्र जप, या राम कथा के साथ जोड़कर पाठ करना अत्यधिक शुभ माना गया है।Chalisa
Mrit Sanjeevani Kavach (मृत संजीवनी कवच)
मृतसंजीवनी स्त्रोत्र ऐसा माना जाता है कि इसे परमपिता ब्रह्मा के पुत्र महर्षि वशिष्ठ ने लिखा था। 30 श्लोकों का यह स्त्रोत्र भगवान शिव को समर्पित है और उनके कई अनजाने पहलुओं पर प्रकाश डालता है। जो कोई भी इस स्त्रोत्र का पूर्ण चित्त से पाठ करता है, उसे जीवन में किसी भी कष्ट का सामना नहीं करना पड़ता।Kavacha
Ram Vandana (राम वन्दना)
राम वंदना भगवान राम (Lord Rama), जिन्हें "Maryada Purushottam" और "embodiment of dharma" कहा जाता है, की महिमा का वर्णन करती है। यह वंदना उनके "ideal character," "divine leadership," और "symbol of righteousness" को उजागर करती है। श्रीराम भक्तों को "spiritual guidance," "inner peace," और "moral strength" प्रदान करते हैं। राम वंदना का पाठ जीवन में "harmony," "prosperity," और "divine blessings" लाने का मार्ग है।Vandana
Shri Ram Charit Manas (श्री राम चरित मानस) किष्किन्धाकाण्ड(Kishkindhakanda)
श्री राम चरित मानस(Shri Ram Charit Manas) श्री राम चरित मानस - किष्किन्धाकाण्ड श्रीगणेशाय नमः श्रीजानकीवल्लभो विजयते श्रीरामचरितमानस चतुर्थ सोपान (किष्किन्धाकाण्ड) कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौ शोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ। मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौं हितौ सीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि नः ॥ 1 ॥ ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं चाव्ययं श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा। संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम् ॥ 2 ॥ सो. मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खानि अघ हानि कर जहँ बस सम्भु भवानि सो कासी सेइअ कस न ॥ जरत सकल सुर बृन्द बिषम गरल जेहिं पान किय। तेहि न भजसि मन मन्द को कृपाल सङ्कर सरिस ॥ आगें चले बहुरि रघुराया। रिष्यमूक परवत निअराया ॥ तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा। आवत देखि अतुल बल सींवा ॥ अति सभीत कह सुनु हनुमाना। पुरुष जुगल बल रूप निधाना ॥ धरि बटु रूप देखु तैं जाई। कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई ॥ पठे बालि होहिं मन मैला। भागौं तुरत तजौं यह सैला ॥ बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयू। माथ नाइ पूछत अस भयू ॥ को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा। छत्री रूप फिरहु बन बीरा ॥ कठिन भूमि कोमल पद गामी। कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी ॥ मृदुल मनोहर सुन्दर गाता। सहत दुसह बन आतप बाता ॥ की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ। नर नारायन की तुम्ह दोऊ ॥ दो. जग कारन तारन भव भञ्जन धरनी भार। की तुम्ह अकिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार ॥ 1 ॥ कोसलेस दसरथ के जाए । हम पितु बचन मानि बन आए ॥ नाम राम लछिमन दू भाई। सङ्ग नारि सुकुमारि सुहाई ॥ इहाँ हरि निसिचर बैदेही। बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही ॥ आपन चरित कहा हम गाई। कहहु बिप्र निज कथा बुझाई ॥ प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा नहिं बरना ॥ पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना ॥ पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही। हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही ॥ मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईम् ॥ तव माया बस फिरुँ भुलाना। ता ते मैं नहिं प्रभु पहिचाना ॥ दो. एकु मैं मन्द मोहबस कुटिल हृदय अग्यान। पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबन्धु भगवान ॥ 2 ॥ जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। सेवक प्रभुहि परै जनि भोरेम् ॥ नाथ जीव तव मायाँ मोहा। सो निस्तरि तुम्हारेहिं छोहा ॥ ता पर मैं रघुबीर दोहाई। जानुँ नहिं कछु भजन उपाई ॥ सेवक सुत पति मातु भरोसें। रहि असोच बनि प्रभु पोसेम् ॥ अस कहि परेउ चरन अकुलाई। निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई ॥ तब रघुपति उठाइ उर लावा। निज लोचन जल सीञ्चि जुड़आवा ॥ सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना। तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना ॥ समदरसी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ ॥ दो. सो अनन्य जाकें असि मति न टरि हनुमन्त। मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवन्त ॥ 3 ॥ देखि पवन सुत पति अनुकूला। हृदयँ हरष बीती सब सूला ॥ नाथ सैल पर कपिपति रही। सो सुग्रीव दास तव अही ॥ तेहि सन नाथ मयत्री कीजे। दीन जानि तेहि अभय करीजे ॥ सो सीता कर खोज कराइहि। जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि ॥ एहि बिधि सकल कथा समुझाई। लिए दुऔ जन पीठि चढ़आई ॥ जब सुग्रीवँ राम कहुँ देखा। अतिसय जन्म धन्य करि लेखा ॥ सादर मिलेउ नाइ पद माथा। भैण्टेउ अनुज सहित रघुनाथा ॥ कपि कर मन बिचार एहि रीती। करिहहिं बिधि मो सन ए प्रीती ॥ दो. तब हनुमन्त उभय दिसि की सब कथा सुनाइ ॥ पावक साखी देइ करि जोरी प्रीती दृढ़आइ ॥ 4 ॥ कीन्ही प्रीति कछु बीच न राखा। लछमिन राम चरित सब भाषा ॥ कह सुग्रीव नयन भरि बारी। मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी ॥ मन्त्रिन्ह सहित इहाँ एक बारा। बैठ रहेउँ मैं करत बिचारा ॥ गगन पन्थ देखी मैं जाता। परबस परी बहुत बिलपाता ॥ राम राम हा राम पुकारी। हमहि देखि दीन्हेउ पट डारी ॥ मागा राम तुरत तेहिं दीन्हा। पट उर लाइ सोच अति कीन्हा ॥ कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। तजहु सोच मन आनहु धीरा ॥ सब प्रकार करिहुँ सेवकाई। जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई ॥ दो. सखा बचन सुनि हरषे कृपासिधु बलसींव। कारन कवन बसहु बन मोहि कहहु सुग्रीव ॥ 5 ॥ नात बालि अरु मैं द्वौ भाई। प्रीति रही कछु बरनि न जाई ॥ मय सुत मायावी तेहि न्AUँ। आवा सो प्रभु हमरें ग्AUँ ॥ अर्ध राति पुर द्वार पुकारा। बाली रिपु बल सहै न पारा ॥ धावा बालि देखि सो भागा। मैं पुनि गयुँ बन्धु सँग लागा ॥ गिरिबर गुहाँ पैठ सो जाई। तब बालीं मोहि कहा बुझाई ॥ परिखेसु मोहि एक पखवारा। नहिं आवौं तब जानेसु मारा ॥ मास दिवस तहँ रहेउँ खरारी। निसरी रुधिर धार तहँ भारी ॥ बालि हतेसि मोहि मारिहि आई। सिला देइ तहँ चलेउँ पराई ॥ मन्त्रिन्ह पुर देखा बिनु साईं। दीन्हेउ मोहि राज बरिआई ॥ बालि ताहि मारि गृह आवा। देखि मोहि जियँ भेद बढ़आवा ॥ रिपु सम मोहि मारेसि अति भारी। हरि लीन्हेसि सर्बसु अरु नारी ॥ ताकें भय रघुबीर कृपाला। सकल भुवन मैं फिरेउँ बिहाला ॥ इहाँ साप बस आवत नाहीं। तदपि सभीत रहुँ मन माहीँ ॥ सुनि सेवक दुख दीनदयाला। फरकि उठीं द्वै भुजा बिसाला ॥ दो. सुनु सुग्रीव मारिहुँ बालिहि एकहिं बान। ब्रह्म रुद्र सरनागत गेँ न उबरिहिं प्रान ॥ 6 ॥ जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ॥ निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना ॥ जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई ॥ कुपथ निवारि सुपन्थ चलावा। गुन प्रगटे अवगुनन्हि दुरावा ॥ देत लेत मन सङ्क न धरी। बल अनुमान सदा हित करी ॥ बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह सन्त मित्र गुन एहा ॥ आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई ॥ जा कर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहि भलाई ॥ सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी ॥ सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरेम् ॥ कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। बालि महाबल अति रनधीरा ॥ दुन्दुभी अस्थि ताल देखराए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए ॥ देखि अमित बल बाढ़ई प्रीती। बालि बधब इन्ह भि परतीती ॥ बार बार नावि पद सीसा। प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा ॥ उपजा ग्यान बचन तब बोला। नाथ कृपाँ मन भयु अलोला ॥ सुख सम्पति परिवार बड़आई। सब परिहरि करिहुँ सेवकाई ॥ ए सब रामभगति के बाधक। कहहिं सन्त तब पद अवराधक ॥ सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं। माया कृत परमारथ नाहीम् ॥ बालि परम हित जासु प्रसादा। मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा ॥ सपनें जेहि सन होइ लराई। जागें समुझत मन सकुचाई ॥ अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती। सब तजि भजनु करौं दिन राती ॥ सुनि बिराग सञ्जुत कपि बानी। बोले बिहँसि रामु धनुपानी ॥ जो कछु कहेहु सत्य सब सोई। सखा बचन मम मृषा न होई ॥ नट मरकट इव सबहि नचावत। रामु खगेस बेद अस गावत ॥ लै सुग्रीव सङ्ग रघुनाथा। चले चाप सायक गहि हाथा ॥ तब रघुपति सुग्रीव पठावा। गर्जेसि जाइ निकट बल पावा ॥ सुनत बालि क्रोधातुर धावा। गहि कर चरन नारि समुझावा ॥ सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा। ते द्वौ बन्धु तेज बल सींवा ॥ कोसलेस सुत लछिमन रामा। कालहु जीति सकहिं सङ्ग्रामा ॥ दो. कह बालि सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ। जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि हौँ सनाथ ॥ 7 ॥ अस कहि चला महा अभिमानी। तृन समान सुग्रीवहि जानी ॥ भिरे उभौ बाली अति तर्जा । मुठिका मारि महाधुनि गर्जा ॥ तब सुग्रीव बिकल होइ भागा। मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा ॥ मैं जो कहा रघुबीर कृपाला। बन्धु न होइ मोर यह काला ॥ एकरूप तुम्ह भ्राता दोऊ। तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ ॥ कर परसा सुग्रीव सरीरा। तनु भा कुलिस गी सब पीरा ॥ मेली कण्ठ सुमन कै माला। पठवा पुनि बल देइ बिसाला ॥ पुनि नाना बिधि भी लराई। बिटप ओट देखहिं रघुराई ॥ दो. बहु छल बल सुग्रीव कर हियँ हारा भय मानि। मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि ॥ 8 ॥ परा बिकल महि सर के लागें। पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगेम् ॥ स्याम गात सिर जटा बनाएँ। अरुन नयन सर चाप चढ़आएँ ॥ पुनि पुनि चिति चरन चित दीन्हा। सुफल जन्म माना प्रभु चीन्हा ॥ हृदयँ प्रीति मुख बचन कठोरा। बोला चिति राम की ओरा ॥ धर्म हेतु अवतरेहु गोसाई। मारेहु मोहि ब्याध की नाई ॥ मैं बैरी सुग्रीव पिआरा। अवगुन कबन नाथ मोहि मारा ॥ अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी ॥ इन्हहि कुद्दष्टि बिलोकि जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई ॥ मुढ़ तोहि अतिसय अभिमाना। नारि सिखावन करसि न काना ॥ मम भुज बल आश्रित तेहि जानी। मारा चहसि अधम अभिमानी ॥ दो. सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि। प्रभु अजहूँ मैं पापी अन्तकाल गति तोरि ॥ 9 ॥ सुनत राम अति कोमल बानी। बालि सीस परसेउ निज पानी ॥ अचल करौं तनु राखहु प्राना। बालि कहा सुनु कृपानिधाना ॥ जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अन्त राम कहि आवत नाहीम् ॥ जासु नाम बल सङ्कर कासी। देत सबहि सम गति अविनासी ॥ मम लोचन गोचर सोइ आवा। बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा ॥ छं. सो नयन गोचर जासु गुन नित नेति कहि श्रुति गावहीं। जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुँक पावहीम् ॥ मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही। अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबूरही ॥ 1 ॥ अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागूँ। जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागूँ ॥ यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिऐ। गहि बाहँ सुर नर नाह आपन दास अङ्गद कीजिऐ ॥ 2 ॥ दो. राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग। सुमन माल जिमि कण्ठ ते गिरत न जानि नाग ॥ 10 ॥ राम बालि निज धाम पठावा। नगर लोग सब ब्याकुल धावा ॥ नाना बिधि बिलाप कर तारा। छूटे केस न देह सँभारा ॥ तारा बिकल देखि रघुराया । दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया ॥ छिति जल पावक गगन समीरा। पञ्च रचित अति अधम सरीरा ॥ प्रगट सो तनु तव आगें सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ॥ उपजा ग्यान चरन तब लागी। लीन्हेसि परम भगति बर मागी ॥ उमा दारु जोषित की नाई। सबहि नचावत रामु गोसाई ॥ तब सुग्रीवहि आयसु दीन्हा। मृतक कर्म बिधिबत सब कीन्हा ॥ राम कहा अनुजहि समुझाई। राज देहु सुग्रीवहि जाई ॥ रघुपति चरन नाइ करि माथा। चले सकल प्रेरित रघुनाथा ॥ दो. लछिमन तुरत बोलाए पुरजन बिप्र समाज। राजु दीन्ह सुग्रीव कहँ अङ्गद कहँ जुबराज ॥ 11 ॥ उमा राम सम हित जग माहीं। गुरु पितु मातु बन्धु प्रभु नाहीम् ॥ सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ॥ बालि त्रास ब्याकुल दिन राती। तन बहु ब्रन चिन्ताँ जर छाती ॥ सोइ सुग्रीव कीन्ह कपिर्AU। अति कृपाल रघुबीर सुभ्AU ॥ जानतहुँ अस प्रभु परिहरहीं। काहे न बिपति जाल नर परहीम् ॥ पुनि सुग्रीवहि लीन्ह बोलाई। बहु प्रकार नृपनीति सिखाई ॥ कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा। पुर न जाउँ दस चारि बरीसा ॥ गत ग्रीषम बरषा रितु आई। रहिहुँ निकट सैल पर छाई ॥ अङ्गद सहित करहु तुम्ह राजू। सन्तत हृदय धरेहु मम काजू ॥ जब सुग्रीव भवन फिरि आए। रामु प्रबरषन गिरि पर छाए ॥ दो. प्रथमहिं देवन्ह गिरि गुहा राखेउ रुचिर बनाइ। राम कृपानिधि कछु दिन बास करहिङ्गे आइ ॥ 12 ॥ सुन्दर बन कुसुमित अति सोभा। गुञ्जत मधुप निकर मधु लोभा ॥ कन्द मूल फल पत्र सुहाए। भे बहुत जब ते प्रभु आए ॥ देखि मनोहर सैल अनूपा। रहे तहँ अनुज सहित सुरभूपा ॥ मधुकर खग मृग तनु धरि देवा। करहिं सिद्ध मुनि प्रभु कै सेवा ॥ मङ्गलरुप भयु बन तब ते । कीन्ह निवास रमापति जब ते ॥ फटिक सिला अति सुभ्र सुहाई। सुख आसीन तहाँ द्वौ भाई ॥ कहत अनुज सन कथा अनेका। भगति बिरति नृपनीति बिबेका ॥ बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए ॥ दो. लछिमन देखु मोर गन नाचत बारिद पैखि। गृही बिरति रत हरष जस बिष्नु भगत कहुँ देखि ॥ 13 ॥ घन घमण्ड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा ॥ दामिनि दमक रह न घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीम् ॥ बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ ॥ बूँद अघात सहहिं गिरि कैंसेम् । खल के बचन सन्त सह जैसेम् ॥ छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई ॥ भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी ॥ समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा ॥ सरिता जल जलनिधि महुँ जाई। होई अचल जिमि जिव हरि पाई ॥ दो. हरित भूमि तृन सङ्कुल समुझि परहिं नहिं पन्थ। जिमि पाखण्ड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रन्थ ॥ 14 ॥ दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ॥ नव पल्लव भे बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका ॥ अर्क जबास पात बिनु भयू। जस सुराज खल उद्यम गयू ॥ खोजत कतहुँ मिलि नहिं धूरी। करि क्रोध जिमि धरमहि दूरी ॥ ससि सम्पन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै सम्पति जैसी ॥ निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दम्भिन्ह कर मिला समाजा ॥ महाबृष्टि चलि फूटि किआरीम् । जिमि सुतन्त्र भेँ बिगरहिं नारीम् ॥ कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना ॥ देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीम् ॥ ऊषर बरषि तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा ॥ बिबिध जन्तु सङ्कुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा ॥ जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना। जिमि इन्द्रिय गन उपजें ग्याना ॥ दो. कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं। जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिम् ॥ 15(क) ॥ कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतङ्ग। बिनसि उपजि ग्यान जिमि पाइ कुसङ्ग सुसङ्ग ॥ 15(ख) ॥ बरषा बिगत सरद रितु आई। लछिमन देखहु परम सुहाई ॥ फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़आई ॥ उदित अगस्ति पन्थ जल सोषा। जिमि लोभहि सोषि सन्तोषा ॥ सरिता सर निर्मल जल सोहा। सन्त हृदय जस गत मद मोहा ॥ रस रस सूख सरित सर पानी। ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी ॥ जानि सरद रितु खञ्जन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए ॥ पङ्क न रेनु सोह असि धरनी। नीति निपुन नृप कै जसि करनी ॥ जल सङ्कोच बिकल भिँ मीना। अबुध कुटुम्बी जिमि धनहीना ॥ बिनु धन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा ॥ कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी। कौ एक पाव भगति जिमि मोरी ॥ दो. चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि। जिमि हरिभगत पाइ श्रम तजहि आश्रमी चारि ॥ 16 ॥ सुखी मीन जे नीर अगाधा। जिमि हरि सरन न एकु बाधा ॥ फूलें कमल सोह सर कैसा। निर्गुन ब्रह्म सगुन भेँ जैसा ॥ गुञ्जत मधुकर मुखर अनूपा। सुन्दर खग रव नाना रूपा ॥ चक्रबाक मन दुख निसि पैखी। जिमि दुर्जन पर सम्पति देखी ॥ चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहि न सङ्करद्रोही ॥ सरदातप निसि ससि अपहरी। सन्त दरस जिमि पातक टरी ॥ देखि इन्दु चकोर समुदाई। चितवतहिं जिमि हरिजन हरि पाई ॥ मसक दंस बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा ॥ दो. भूमि जीव सङ्कुल रहे गे सरद रितु पाइ। सदगुर मिले जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ ॥ 17 ॥ बरषा गत निर्मल रितु आई। सुधि न तात सीता कै पाई ॥ एक बार कैसेहुँ सुधि जानौं। कालहु जीत निमिष महुँ आनौम् ॥ कतहुँ रहु जौं जीवति होई। तात जतन करि आनेउँ सोई ॥ सुग्रीवहुँ सुधि मोरि बिसारी। पावा राज कोस पुर नारी ॥ जेहिं सायक मारा मैं बाली। तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली ॥ जासु कृपाँ छूटहीं मद मोहा। ता कहुँ उमा कि सपनेहुँ कोहा ॥ जानहिं यह चरित्र मुनि ग्यानी। जिन्ह रघुबीर चरन रति मानी ॥ लछिमन क्रोधवन्त प्रभु जाना। धनुष चढ़आइ गहे कर बाना ॥ दो. तब अनुजहि समुझावा रघुपति करुना सींव ॥ भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव ॥ 18 ॥ इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा। राम काजु सुग्रीवँ बिसारा ॥ निकट जाइ चरनन्हि सिरु नावा। चारिहु बिधि तेहि कहि समुझावा ॥ सुनि सुग्रीवँ परम भय माना। बिषयँ मोर हरि लीन्हेउ ग्याना ॥ अब मारुतसुत दूत समूहा। पठवहु जहँ तहँ बानर जूहा ॥ कहहु पाख महुँ आव न जोई। मोरें कर ता कर बध होई ॥ तब हनुमन्त बोलाए दूता। सब कर करि सनमान बहूता ॥ भय अरु प्रीति नीति देखाई। चले सकल चरनन्हि सिर नाई ॥ एहि अवसर लछिमन पुर आए। क्रोध देखि जहँ तहँ कपि धाए ॥ दो. धनुष चढ़आइ कहा तब जारि करुँ पुर छार। ब्याकुल नगर देखि तब आयु बालिकुमार ॥ 19 ॥ चरन नाइ सिरु बिनती कीन्ही। लछिमन अभय बाँह तेहि दीन्ही ॥ क्रोधवन्त लछिमन सुनि काना। कह कपीस अति भयँ अकुलाना ॥ सुनु हनुमन्त सङ्ग लै तारा। करि बिनती समुझाउ कुमारा ॥ तारा सहित जाइ हनुमाना। चरन बन्दि प्रभु सुजस बखाना ॥ करि बिनती मन्दिर लै आए। चरन पखारि पलँग बैठाए ॥ तब कपीस चरनन्हि सिरु नावा। गहि भुज लछिमन कण्ठ लगावा ॥ नाथ बिषय सम मद कछु नाहीं। मुनि मन मोह करि छन माहीम् ॥ सुनत बिनीत बचन सुख पावा। लछिमन तेहि बहु बिधि समुझावा ॥ पवन तनय सब कथा सुनाई। जेहि बिधि गे दूत समुदाई ॥ दो. हरषि चले सुग्रीव तब अङ्गदादि कपि साथ। रामानुज आगें करि आए जहँ रघुनाथ ॥ 20 ॥ नाइ चरन सिरु कह कर जोरी। नाथ मोहि कछु नाहिन खोरी ॥ अतिसय प्रबल देव तब माया। छूटि राम करहु जौं दाया ॥ बिषय बस्य सुर नर मुनि स्वामी। मैं पावँर पसु कपि अति कामी ॥ नारि नयन सर जाहि न लागा। घोर क्रोध तम निसि जो जागा ॥ लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया। सो नर तुम्ह समान रघुराया ॥ यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपाँ पाव कोइ कोई ॥ तब रघुपति बोले मुसकाई। तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई ॥ अब सोइ जतनु करहु मन लाई। जेहि बिधि सीता कै सुधि पाई ॥ दो. एहि बिधि होत बतकही आए बानर जूथ। नाना बरन सकल दिसि देखिअ कीस बरुथ ॥ 21 ॥ बानर कटक उमा में देखा। सो मूरुख जो करन चह लेखा ॥ आइ राम पद नावहिं माथा। निरखि बदनु सब होहिं सनाथा ॥ अस कपि एक न सेना माहीं। राम कुसल जेहि पूछी नाहीम् ॥ यह कछु नहिं प्रभु कि अधिकाई। बिस्वरूप ब्यापक रघुराई ॥ ठाढ़ए जहँ तहँ आयसु पाई। कह सुग्रीव सबहि समुझाई ॥ राम काजु अरु मोर निहोरा। बानर जूथ जाहु चहुँ ओरा ॥ जनकसुता कहुँ खोजहु जाई। मास दिवस महँ आएहु भाई ॥ अवधि मेटि जो बिनु सुधि पाएँ। आवि बनिहि सो मोहि मराएँ ॥ दो. बचन सुनत सब बानर जहँ तहँ चले तुरन्त । तब सुग्रीवँ बोलाए अङ्गद नल हनुमन्त ॥ 22 ॥ सुनहु नील अङ्गद हनुमाना। जामवन्त मतिधीर सुजाना ॥ सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू। सीता सुधि पूँछेउ सब काहू ॥ मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु। रामचन्द्र कर काजु सँवारेहु ॥ भानु पीठि सेइअ उर आगी। स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी ॥ तजि माया सेइअ परलोका। मिटहिं सकल भव सम्भव सोका ॥ देह धरे कर यह फलु भाई। भजिअ राम सब काम बिहाई ॥ सोइ गुनग्य सोई बड़भागी । जो रघुबीर चरन अनुरागी ॥ आयसु मागि चरन सिरु नाई। चले हरषि सुमिरत रघुराई ॥ पाछें पवन तनय सिरु नावा। जानि काज प्रभु निकट बोलावा ॥ परसा सीस सरोरुह पानी। करमुद्रिका दीन्हि जन जानी ॥ बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु। कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु ॥ हनुमत जन्म सुफल करि माना। चलेउ हृदयँ धरि कृपानिधाना ॥ जद्यपि प्रभु जानत सब बाता। राजनीति राखत सुरत्राता ॥ दो. चले सकल बन खोजत सरिता सर गिरि खोह। राम काज लयलीन मन बिसरा तन कर छोह ॥ 23 ॥ कतहुँ होइ निसिचर सैं भेटा। प्रान लेहिं एक एक चपेटा ॥ बहु प्रकार गिरि कानन हेरहिं। कौ मुनि मिलत ताहि सब घेरहिम् ॥ लागि तृषा अतिसय अकुलाने। मिलि न जल घन गहन भुलाने ॥ मन हनुमान कीन्ह अनुमाना। मरन चहत सब बिनु जल पाना ॥ चढ़इ गिरि सिखर चहूँ दिसि देखा। भूमि बिबिर एक कौतुक पेखा ॥ चक्रबाक बक हंस उड़आहीं। बहुतक खग प्रबिसहिं तेहि माहीम् ॥ गिरि ते उतरि पवनसुत आवा। सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा ॥ आगें कै हनुमन्तहि लीन्हा। पैठे बिबर बिलम्बु न कीन्हा ॥ दो. दीख जाइ उपवन बर सर बिगसित बहु कञ्ज। मन्दिर एक रुचिर तहँ बैठि नारि तप पुञ्ज ॥ 24 ॥ दूरि ते ताहि सबन्हि सिर नावा। पूछें निज बृत्तान्त सुनावा ॥ तेहिं तब कहा करहु जल पाना। खाहु सुरस सुन्दर फल नाना ॥ मज्जनु कीन्ह मधुर फल खाए। तासु निकट पुनि सब चलि आए ॥ तेहिं सब आपनि कथा सुनाई। मैं अब जाब जहाँ रघुराई ॥ मूदहु नयन बिबर तजि जाहू। पैहहु सीतहि जनि पछिताहू ॥ नयन मूदि पुनि देखहिं बीरा। ठाढ़ए सकल सिन्धु कें तीरा ॥ सो पुनि गी जहाँ रघुनाथा। जाइ कमल पद नाएसि माथा ॥ नाना भाँति बिनय तेहिं कीन्ही। अनपायनी भगति प्रभु दीन्ही ॥ दो. बदरीबन कहुँ सो गी प्रभु अग्या धरि सीस । उर धरि राम चरन जुग जे बन्दत अज ईस ॥ 25 ॥ इहाँ बिचारहिं कपि मन माहीं। बीती अवधि काज कछु नाहीम् ॥ सब मिलि कहहिं परस्पर बाता। बिनु सुधि लेँ करब का भ्राता ॥ कह अङ्गद लोचन भरि बारी। दुहुँ प्रकार भि मृत्यु हमारी ॥ इहाँ न सुधि सीता कै पाई। उहाँ गेँ मारिहि कपिराई ॥ पिता बधे पर मारत मोही। राखा राम निहोर न ओही ॥ पुनि पुनि अङ्गद कह सब पाहीं। मरन भयु कछु संसय नाहीम् ॥ अङ्गद बचन सुनत कपि बीरा। बोलि न सकहिं नयन बह नीरा ॥ छन एक सोच मगन होइ रहे। पुनि अस वचन कहत सब भे ॥ हम सीता कै सुधि लिन्हें बिना। नहिं जैंहैं जुबराज प्रबीना ॥ अस कहि लवन सिन्धु तट जाई। बैठे कपि सब दर्भ डसाई ॥ जामवन्त अङ्गद दुख देखी। कहिं कथा उपदेस बिसेषी ॥ तात राम कहुँ नर जनि मानहु। निर्गुन ब्रह्म अजित अज जानहु ॥ दो. निज इच्छा प्रभु अवतरि सुर महि गो द्विज लागि। सगुन उपासक सङ्ग तहँ रहहिं मोच्छ सब त्यागि ॥ 26 ॥ एहि बिधि कथा कहहि बहु भाँती गिरि कन्दराँ सुनी सम्पाती ॥ बाहेर होइ देखि बहु कीसा। मोहि अहार दीन्ह जगदीसा ॥ आजु सबहि कहँ भच्छन करूँ। दिन बहु चले अहार बिनु मरूँ ॥ कबहुँ न मिल भरि उदर अहारा। आजु दीन्ह बिधि एकहिं बारा ॥ डरपे गीध बचन सुनि काना। अब भा मरन सत्य हम जाना ॥ कपि सब उठे गीध कहँ देखी। जामवन्त मन सोच बिसेषी ॥ कह अङ्गद बिचारि मन माहीं। धन्य जटायू सम कौ नाहीम् ॥ राम काज कारन तनु त्यागी । हरि पुर गयु परम बड़ भागी ॥ सुनि खग हरष सोक जुत बानी । आवा निकट कपिन्ह भय मानी ॥ तिन्हहि अभय करि पूछेसि जाई। कथा सकल तिन्ह ताहि सुनाई ॥ सुनि सम्पाति बन्धु कै करनी। रघुपति महिमा बधुबिधि बरनी ॥ दो. मोहि लै जाहु सिन्धुतट देउँ तिलाञ्जलि ताहि । बचन सहाइ करवि मैं पैहहु खोजहु जाहि ॥ 27 ॥ अनुज क्रिया करि सागर तीरा। कहि निज कथा सुनहु कपि बीरा ॥ हम द्वौ बन्धु प्रथम तरुनाई । गगन गे रबि निकट उडाई ॥ तेज न सहि सक सो फिरि आवा । मै अभिमानी रबि निअरावा ॥ जरे पङ्ख अति तेज अपारा । परेउँ भूमि करि घोर चिकारा ॥ मुनि एक नाम चन्द्रमा ओही। लागी दया देखी करि मोही ॥ बहु प्रकार तेंहि ग्यान सुनावा । देहि जनित अभिमानी छड़आवा ॥ त्रेताँ ब्रह्म मनुज तनु धरिही। तासु नारि निसिचर पति हरिही ॥ तासु खोज पठिहि प्रभू दूता। तिन्हहि मिलें तैं होब पुनीता ॥ जमिहहिं पङ्ख करसि जनि चिन्ता । तिन्हहि देखाइ देहेसु तैं सीता ॥ मुनि कि गिरा सत्य भि आजू । सुनि मम बचन करहु प्रभु काजू ॥ गिरि त्रिकूट ऊपर बस लङ्का । तहँ रह रावन सहज असङ्का ॥ तहँ असोक उपबन जहँ रही ॥ सीता बैठि सोच रत अही ॥ दो. मैं देखुँ तुम्ह नाहि गीघहि दष्टि अपार ॥ बूढ भयुँ न त करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार ॥ 28 ॥ जो नाघि सत जोजन सागर । करि सो राम काज मति आगर ॥ मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा । राम कृपाँ कस भयु सरीरा ॥ पापिउ जा कर नाम सुमिरहीं। अति अपार भवसागर तरहीम् ॥ तासु दूत तुम्ह तजि कदराई। राम हृदयँ धरि करहु उपाई ॥ अस कहि गरुड़ गीध जब गयू। तिन्ह कें मन अति बिसमय भयू ॥ निज निज बल सब काहूँ भाषा। पार जाइ कर संसय राखा ॥ जरठ भयुँ अब कहि रिछेसा। नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा ॥ जबहिं त्रिबिक्रम भे खरारी। तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी ॥ दो. बलि बाँधत प्रभु बाढेउ सो तनु बरनि न जाई। उभय धरी महँ दीन्ही सात प्रदच्छिन धाइ ॥ 29 ॥ अङ्गद कहि जाउँ मैं पारा। जियँ संसय कछु फिरती बारा ॥ जामवन्त कह तुम्ह सब लायक। पठिअ किमि सब ही कर नायक ॥ कहि रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना ॥ पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना ॥ कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीम् ॥ राम काज लगि तब अवतारा। सुनतहिं भयु पर्वताकारा ॥ कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहु अपर गिरिन्ह कर राजा ॥ सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहीं नाषुँ जलनिधि खारा ॥ सहित सहाय रावनहि मारी। आनुँ इहाँ त्रिकूट उपारी ॥ जामवन्त मैं पूँछुँ तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही ॥ एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई ॥ तब निज भुज बल राजिव नैना। कौतुक लागि सङ्ग कपि सेना ॥ छं. -कपि सेन सङ्ग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं। त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैम् ॥ जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पावी। रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावी ॥ दो. भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहि जे नर अरु नारि। तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करिहि त्रिसिरारि ॥ 30(क) ॥ सो. नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक। सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक ॥ 30(ख) ॥ मासपारायण, तेईसवाँ विश्राम इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने चतुर्थ सोपानः समाप्तः। (किष्किन्धाकाण्ड समाप्त)Ramcharit-Manas
Raghav Stuti (राघव स्तुति)
Shri Raghav Stuti (राघव स्तुति) भगवान Shri Ram की महिमा का गुणगान करने वाला एक अत्यंत प्रभावशाली स्तोत्र है। यह स्तुति श्रीराम के divine virtues, strength, compassion, और righteousness का वर्णन करती है। सनातन धर्म में श्रीराम को Maryada Purushottam कहा गया है, जो धर्म और आदर्शों के प्रतीक हैं। श्रीराम की भक्ति से peace, prosperity, और spiritual growth प्राप्त होती है। इस स्तुति का नियमित पाठ करने से जीवन की सभी बाधाएँ दूर होती हैं और मन को inner strength एवं devotion प्राप्त होती है। Shri Raghav Stuti का पाठ करने से भगवान श्रीराम की विशेष कृपा प्राप्त होती है और जीवन में सुख-शांति बनी रहती है।Stuti