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Narayaniyam Dashaka 99 (नारायणीयं दशक 99)
नारायणीयं दशक 99 (Narayaniyam Dashaka 99)
विष्णोर्वीर्याणि को वा कथयतु धरणेः कश्च रेणून्मिमीते
यस्यैवांघ्रित्रयेण त्रिजगदभिमितं मोदते पूर्णसंपत्
योसौ विश्वानि धत्ते प्रियमिह परमं धाम तस्याभियायां
त्वद्भक्ता यत्र माद्यंत्यमृतरसमरंदस्य यत्र प्रवाहः ॥1॥
आद्यायाशेषकर्त्रे प्रतिनिमिषनवीनाय भर्त्रे विभूते-
र्भक्तात्मा विष्णवे यः प्रदिशति हविरादीनि यज्ञार्चनादौ ।
कृष्णाद्यं जन्म यो वा महदिह महतो वर्णयेत्सोऽयमेव
प्रीतः पूर्णो यशोभिस्त्वरितमभिसरेत् प्राप्यमंते पदं ते ॥2॥
हे स्तोतारः कवींद्रास्तमिह खलु यथा चेतयध्वे तथैव
व्यक्तं वेदस्य सारं प्रणुवत जननोपात्तलीलाकथाभिः ।
जानंतश्चास्य नामान्यखिलसुखकराणीति संकीर्तयध्वं
हे विष्णो कीर्तनाद्यैस्तव खलु महतस्तत्त्वबोधं भजेयम् ॥3॥
विष्णोः कर्माणि संपश्यत मनसि सदा यैः स धर्मानबध्नाद्
यानींद्रस्यैष भृत्यः प्रियसख इव च व्यातनोत् क्षेमकारी ।
वीक्षंते योगसिद्धाः परपदमनिशं यस्य सम्यक्प्रकाशं
विप्रेंद्रा जागरूकाः कृतबहुनुतयो यच्च निर्भासयंते ॥4॥
नो जातो जायमानोऽपि च समधिगतस्त्वन्महिम्नोऽवसानं
देव श्रेयांसि विद्वान् प्रतिमुहुरपि ते नाम शंसामि विष्णो ।
तं त्वां संस्तौमि नानाविधनुतिवचनैरस्य लोकत्रयस्या-
प्यूर्ध्वं विभ्राजमाने विरचितवसतिं तत्र वैकुंठलोके ॥5॥
आपः सृष्ट्यादिजन्याः प्रथममयि विभो गर्भदेशे दधुस्त्वां
यत्र त्वय्येव जीवा जलशयन हरे संगता ऐक्यमापन् ।
तस्याजस्य प्रभो ते विनिहितमभवत् पद्ममेकं हि नाभौ
दिक्पत्रं यत् किलाहुः कनकधरणिभृत् कर्णिकं लोकरूपम् ॥6॥
हे लोका विष्णुरेतद्भुवनमजनयत्तन्न जानीथ यूयं
युष्माकं ह्यंतरस्थं किमपि तदपरं विद्यते विष्णुरूपम् ।
नीहारप्रख्यमायापरिवृतमनसो मोहिता नामरूपैः
प्राणप्रीत्येकतृप्ताश्चरथ मखपरा हंत नेच्छा मुकुंदे ॥7॥
मूर्ध्नामक्ष्णां पदानां वहसि खलु सहस्राणि संपूर्य विश्वं
तत्प्रोत्क्रम्यापि तिष्ठन् परिमितविवरे भासि चित्तांतरेऽपि ।
भूतं भव्यं च सर्वं परपुरुष भवान् किंच देहेंद्रियादि-
ष्वाविष्टोऽप्युद्गतत्वादमृतसुखरसं चानुभुंक्षे त्वमेव ॥8॥
यत्तु त्रैलोक्यरूपं दधदपि च ततो निर्गतोऽनंतशुद्ध-
ज्ञानात्मा वर्तसे त्वं तव खलु महिमा सोऽपि तावान् किमन्यत् ।
स्तोकस्ते भाग एवाखिलभुवनतया दृश्यते त्र्यंशकल्पं
भूयिष्ठं सांद्रमोदात्मकमुपरि ततो भाति तस्मै नमस्ते ॥9॥
अव्यक्तं ते स्वरूपं दुरधिगमतमं तत्तु शुद्धैकसत्त्वं
व्यक्तं चाप्येतदेव स्फुटममृतरसांभोधिकल्लोलतुल्यम् ।
सर्वोत्कृष्टामभीष्टां तदिह गुणरसेनैव चित्तं हरंतीं
मूर्तिं ते संश्रयेऽहं पवनपुरपते पाहि मां कृष्ण रोगात् ॥10॥
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Shri Deenbandhu Ashtakam (श्री दीनबन्धु अष्टकम्)
Shri Deenbandhu Ashtakam (श्री दीनबन्धु अष्टकम्): श्री दीनबंधु अष्टकम् का नियमित पाठ करने से सभी दुख, दरिद्रता आदि दूर हो जाते हैं। सुख और समृद्धि की प्राप्ति होती है। श्री दीनबंधु अष्टकम् को किसी भी शुक्ल पक्ष की पंचमी से शुरू करके अगले शुक्ल पक्ष तक प्रत्येक दिन चार मण्यों के साथ तुलसी की माला से दीप जलाकर करना चाहिए। दीनबंधु वह अष्टक है जो गरीबों की नम्रता को हराता है। इस स्तोत्र का पाठ तुलसी की माला से दीप जलाकर और अगले चंद्र मास के शुक्ल पक्ष से प्रारंभ करने से सभी प्रकार के दुख, दरिद्रता, और दुःख समाप्त होते हैं और हर प्रकार की सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है। श्री दीनबंधु अष्टकम् उन भक्तों के लिए है जिन्होंने प्रपत्ति की है और प्रपन्न बन गए हैं, और साथ ही उन लोगों के लिए भी जो प्रपत्ति की इच्छा रखते हैं। भगवान की त्वरा (जल्दी से मदद करने की क्षमता) का उल्लेख पहले और आखिरी श्लोकों में किया गया है, जो संकट में फंसे लोगों की रक्षा के लिए है। इस अष्टकम् में, रचनाकार भगवान के ऐश्वर्य, मोक्ष-प्रदाता होने, आदि का उल्लेख करते हुए हमें भगवान के पास जाने की प्रेरणा देते हैं, और बताते हैं कि भगवान के अलावा किसी और से मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। यह एक ऐसा अष्टकम् है जिसमें पूर्ण आत्मसमर्पण (प्रपत्ति) और इसके प्रभाव को बहुत संक्षेप में आठ श्लोकों में प्रस्तुत किया गया है। पहले श्लोक में, रचनाकार हमारे जीवन की तुलना उस व्यक्ति से करते हैं जिसे हमारी इंद्रियां चारों ओर से हमला कर रही हैं और जो उन्हें अपनी ओर खींच रही हैं, जैसे कि वह किसी जंगली मगरमच्छ द्वारा खींचा जा रहा हो, और भगवान की कृपा और रक्षा की प्रार्थना करते हैं। दूसरे श्लोक में, रचनाकार हमें यह महसूस करने की आवश्यकता बताते हैं कि हम हमेशा भगवान के निर्भर हैं और हम उनसे स्वतंत्र नहीं हैं। यह प्रपत्ति के अंगों में से एक अंग है – कर्पण्य। जब हम प्रपत्ति के अंगों का पालन करते हैं, तब भगवान हमें अपने चरणों में समर्पण करने की इच्छा देते हैं, जो भगवान को प्राप्त करने का अगला कदम है। तीसरे श्लोक में, रचनाकार भगवान की महानता का गुणगान करते हैं, जो निम्नतम प्राणियों के साथ भी सहजता से मिल जाते हैं। हम सभी उनके द्वारा दी गई पाड़ा-पूजा की याद कर सकते हैं, जिसमें महालक्ष्मी जल का कलश लेकर उनके चरणों की पूजा करती हैं और फिर उस जल को भगवान और महालक्ष्मी के सिर पर छिड़कती हैं। इस प्रकार, प्रत्येक श्लोक में दीनबंधु की महानता का वर्णन किया गया है और इसके पाठ के प्रभावों का भी उल्लेख किया गया है।Ashtakam