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Narayaniyam Dashaka 44 (नारायणीयं दशक 44)
नारायणीयं दशक 44 (Narayaniyam Dashaka 44)
गूढं वसुदेवगिरा कर्तुं ते निष्क्रियस्य संस्कारान् ।
हृद्गतहोरातत्त्वो गर्गमुनिस्त्वत् गृहं विभो गतवान् ॥1॥
नंदोऽथ नंदितात्मा वृंदिष्टं मानयन्नमुं यमिनाम् ।
मंदस्मितार्द्रमूचे त्वत्संस्कारान् विधातुमुत्सुकधीः ॥2॥
यदुवंशाचार्यत्वात् सुनिभृतमिदमार्य कार्यमिति कथयन् ।
गर्गो निर्गतपुलकश्चक्रे तव साग्रजस्य नामानि ॥3॥
कथमस्य नाम कुर्वे सहस्रनाम्नो ह्यनंतनाम्नो वा ।
इति नूनं गर्गमुनिश्चक्रे तव नाम नाम रहसि विभो ॥4॥
कृषिधातुणकाराभ्यां सत्तानंदात्मतां किलाभिलपत् ।
जगदघकर्षित्वं वा कथयदृषिः कृष्णनाम ते व्यतनोत् ॥5॥
अन्यांश्च नामभेदान् व्याकुर्वन्नग्रजे च रामादीन् ।
अतिमानुषानुभावं न्यगदत्त्वामप्रकाशयन् पित्रे ॥6॥
स्निह्यति यस्तव पुत्रे मुह्यति स न मायिकैः पुनः शोकैः ।
द्रुह्यति यः स तु नश्येदित्यवदत्ते महत्त्वमृषिवर्यः ॥7॥
जेष्यति बहुतरदैत्यान् नेष्यति निजबंधुलोकममलपदम् ।
श्रोष्यसि सुविमलकीर्तीरस्येति भवद्विभूतिमृषिरूचे ॥8॥
अमुनैव सर्वदुर्गं तरितास्थ कृतास्थमत्र तिष्ठध्वम् ।
हरिरेवेत्यनभिलपन्नित्यादि त्वामवर्णयत् स मुनिः ॥9॥
गर्गेऽथ निर्गतेऽस्मिन् नंदितनंदादिनंद्यमानस्त्वम् ।
मद्गदमुद्गतकरुणो निर्गमय श्रीमरुत्पुराधीश ॥10॥
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