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Narayaniyam Dashaka 22 (नारायणीयं दशक 22)
नारायणीयं दशक 22 (Narayaniyam Dashaka 22)
अजामिलो नाम महीसुरः पुरा
चरन् विभो धर्मपथान् गृहाश्रमी ।
गुरोर्गिरा काननमेत्य दृष्टवान्
सुधृष्टशीलां कुलटां मदाकुलाम् ॥1॥
स्वतः प्रशांतोऽपि तदाहृताशयः
स्वधर्ममुत्सृज्य तया समारमन् ।
अधर्मकारी दशमी भवन् पुन-
र्दधौ भवन्नामयुते सुते रतिम् ॥2॥
स मृत्युकाले यमराजकिंकरान्
भयंकरांस्त्रीनभिलक्षयन् भिया ।
पुरा मनाक् त्वत्स्मृतिवासनाबलात्
जुहाव नारायणनामकं सुतम् ॥3॥
दुराशयस्यापि तदात्वनिर्गत-
त्वदीयनामाक्षरमात्रवैभवात् ।
पुरोऽभिपेतुर्भवदीयपार्षदाः
चतुर्भुजाः पीतपटा मनोरमाः ॥4॥
अमुं च संपाश्य विकर्षतो भटान्
विमुंचतेत्यारुरुधुर्बलादमी ।
निवारितास्ते च भवज्जनैस्तदा
तदीयपापं निखिलं न्यवेदयन् ॥5॥
भवंतु पापानि कथं तु निष्कृते
कृतेऽपि भो दंडनमस्ति पंडिताः ।
न निष्कृतिः किं विदिता भवादृशा-
मिति प्रभो त्वत्पुरुषा बभाषिरे ॥6॥
श्रुतिस्मृतिभ्यां विहिता व्रतादयः
पुनंति पापं न लुनंति वासनाम् ।
अनंतसेवा तु निकृंतति द्वयी-
मिति प्रभो त्वत्पुरुषा बभाषिरे ॥7॥
अनेन भो जन्मसहस्रकोटिभिः
कृतेषु पापेष्वपि निष्कृतिः कृता ।
यदग्रहीन्नाम भयाकुलो हरे-
रिति प्रभो त्वत्पुरुषा बभाषिरे ॥8॥
नृणामबुद्ध्यापि मुकुंदकीर्तनं
दहत्यघौघान् महिमास्य तादृशः ।
यथाग्निरेधांसि यथौषधं गदा -
निति प्रभो त्वत्पुरुषा बभाषिरे ॥9॥
इतीरितैर्याम्यभटैरपासृते
भवद्भटानां च गणे तिरोहिते ।
भवत्स्मृतिं कंचन कालमाचरन्
भवत्पदं प्रापि भवद्भटैरसौ ॥10॥
स्वकिंकरावेदनशंकितो यम-
स्त्वदंघ्रिभक्तेषु न गम्यतामिति ।
स्वकीयभृत्यानशिशिक्षदुच्चकैः
स देव वातालयनाथ पाहि माम् ॥11॥
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