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Narayaniyam Dashaka 18 (नारायणीयं दशक 18)
नारायणीयं दशक 18 (Narayaniyam Dashaka 18)
जातस्य ध्रुवकुल एव तुंगकीर्ते-
रंगस्य व्यजनि सुतः स वेननामा ।
यद्दोषव्यथितमतिः स राजवर्य-
स्त्वत्पादे निहितमना वनं गतोऽभूत् ॥1॥
पापोऽपि क्षितितलपालनाय वेनः
पौराद्यैरुपनिहितः कठोरवीर्यः ।
सर्वेभ्यो निजबलमेव संप्रशंसन्
भूचक्रे तव यजनान्ययं न्यरौत्सीत् ॥2॥
संप्राप्ते हितकथनाय तापसौघे
मत्तोऽन्यो भुवनपतिर्न कश्चनेति ।
त्वन्निंदावचनपरो मुनीश्वरैस्तैः
शापाग्नौ शलभदशामनायि वेनः ॥3॥
तन्नाशात् खलजनभीरुकैर्मुनींद्रै-
स्तन्मात्रा चिरपरिरक्षिते तदंगे ।
त्यक्ताघे परिमथितादथोरुदंडा-
द्दोर्दंडे परिमथिते त्वमाविरासीः ॥4॥
विख्यातः पृथुरिति तापसोपदिष्टैः
सूताद्यैः परिणुतभाविभूरिवीर्यः ।
वेनार्त्या कबलितसंपदं धरित्री-
माक्रांतां निजधनुषा समामकार्षीः ॥5॥
भूयस्तां निजकुलमुख्यवत्सयुक्त्यै-
र्देवाद्यैः समुचितचारुभाजनेषु ।
अन्नादीन्यभिलषितानि यानि तानि
स्वच्छंदं सुरभितनूमदूदुहस्त्वम् ॥6॥
आत्मानं यजति मखैस्त्वयि त्रिधाम-
न्नारब्धे शततमवाजिमेधयागे ।
स्पर्धालुः शतमख एत्य नीचवेषो
हृत्वाऽश्वं तव तनयात् पराजितोऽभूत् ॥7॥
देवेंद्रं मुहुरिति वाजिनं हरंतं
वह्नौ तं मुनिवरमंडले जुहूषौ ।
रुंधाने कमलभवे क्रतोः समाप्तौ
साक्षात्त्वं मधुरिपुमैक्षथाः स्वयं स्वम् ॥8॥
तद्दत्तं वरमुपलभ्य भक्तिमेकां
गंगांते विहितपदः कदापि देव ।
सत्रस्थं मुनिनिवहं हितानि शंस-
न्नैक्षिष्ठाः सनकमुखान् मुनीन् पुरस्तात् ॥9॥
विज्ञानं सनकमुखोदितं दधानः
स्वात्मानं स्वयमगमो वनांतसेवी ।
तत्तादृक्पृथुवपुरीश सत्वरं मे
रोगौघं प्रशमय वातगेहवासिन् ॥10॥
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