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Narayaniyam Dashaka 23 (नारायणीयं दशक 23)
नारायणीयं दशक 23 (Narayaniyam Dashaka 23)
प्राचेतसस्तु भगवन्नपरो हि दक्ष-
स्त्वत्सेवनं व्यधित सर्गविवृद्धिकामः ।
आविर्बभूविथ तदा लसदष्टबाहु-
स्तस्मै वरं ददिथ तां च वधूमसिक्नीम् ॥1॥
तस्यात्मजास्त्वयुतमीश पुनस्सहस्रं
श्रीनारदस्य वचसा तव मार्गमापुः ।
नैकत्रवासमृषये स मुमोच शापं
भक्तोत्तमस्त्वृषिरनुग्रहमेव मेने ॥2॥
षष्ट्या ततो दुहितृभिः सृजतः कुलौघान्
दौहित्रसूनुरथ तस्य स विश्वरूपः ।
त्वत्स्तोत्रवर्मितमजापयदिंद्रमाजौ
देव त्वदीयमहिमा खलु सर्वजैत्रः ॥3॥
प्राक्शूरसेनविषये किल चित्रकेतुः
पुत्राग्रही नृपतिरंगिरसः प्रभावात् ।
लब्ध्वैकपुत्रमथ तत्र हते सपत्नी-
संघैरमुह्यदवशस्तव माययासौ ॥4॥
तं नारदस्तु सममंगिरसा दयालुः
संप्राप्य तावदुपदर्श्य सुतस्य जीवम् ।
कस्यास्मि पुत्र इति तस्य गिरा विमोहं
त्यक्त्वा त्वदर्चनविधौ नृपतिं न्ययुंक्त ॥5॥
स्तोत्रं च मंत्रमपि नारदतोऽथ लब्ध्वा
तोषाय शेषवपुषो ननु ते तपस्यन् ।
विद्याधराधिपतितां स हि सप्तरात्रे
लब्ध्वाप्यकुंठमतिरन्वभजद्भवंतम् ॥6॥
तस्मै मृणालधवलेन सहस्रशीर्ष्णा
रूपेण बद्धनुतिसिद्धगणावृतेन ।
प्रादुर्भवन्नचिरतो नुतिभिः प्रसन्नो
दत्वाऽऽत्मतत्त्वमनुगृह्य तिरोदधाथ ॥7॥
त्वद्भक्तमौलिरथ सोऽपि च लक्षलक्षं
वर्षाणि हर्षुलमना भुवनेषु कामम् ।
संगापयन् गुणगणं तव सुंदरीभिः
संगातिरेकरहितो ललितं चचार ॥8॥
अत्यंतसंगविलयाय भवत्प्रणुन्नो
नूनं स रूप्यगिरिमाप्य महत्समाजे ।
निश्शंकमंककृतवल्लभमंगजारिं
तं शंकरं परिहसन्नुमयाभिशेपे ॥9॥
निस्संभ्रमस्त्वयमयाचितशापमोक्षो
वृत्रासुरत्वमुपगम्य सुरेंद्रयोधी ।
भक्त्यात्मतत्त्वकथनैः समरे विचित्रं
शत्रोरपि भ्रममपास्य गतः पदं ते ॥10॥
त्वत्सेवनेन दितिरिंद्रवधोद्यताऽपि
तान्प्रत्युतेंद्रसुहृदो मरुतोऽभिलेभे ।
दुष्टाशयेऽपि शुभदैव भवन्निषेवा
तत्तादृशस्त्वमव मां पवनालयेश ॥11॥
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