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Narayaniyam Dashaka 10 (नारायणीयं दशक 10)
नारायणीयं दशक 10 (Narayaniyam Dashaka 10)
वैकुंठ वर्धितबलोऽथ भवत्प्रसादा-
दंभोजयोनिरसृजत् किल जीवदेहान् ।
स्थास्नूनि भूरुहमयानि तथा तिरश्चां
जातिं मनुष्यनिवहानपि देवभेदान् ॥1॥
मिथ्याग्रहास्मिमतिरागविकोपभीति-
रज्ञानवृत्तिमिति पंचविधां स सृष्ट्वा ।
उद्दामतामसपदार्थविधानदून -
स्तेने त्वदीयचरणस्मरणं विशुद्ध्यै ॥2॥
तावत् ससर्ज मनसा सनकं सनंदं
भूयः सनातनमुनिं च सनत्कुमारम् ।
ते सृष्टिकर्मणि तु तेन नियुज्यमाना-
स्त्वत्पादभक्तिरसिका जगृहुर्न वाणीम् ॥3॥
तावत् प्रकोपमुदितं प्रतिरुंधतोऽस्य
भ्रूमध्यतोऽजनि मृडो भवदेकदेशः ।
नामानि मे कुरु पदानि च हा विरिंचे-
त्यादौ रुरोद किल तेन स रुद्रनामा ॥4॥
एकादशाह्वयतया च विभिन्नरूपं
रुद्रं विधाय दयिता वनिताश्च दत्वा ।
तावंत्यदत्त च पदानि भवत्प्रणुन्नः
प्राह प्रजाविरचनाय च सादरं तम् ॥5॥
रुद्राभिसृष्टभयदाकृतिरुद्रसंघ-
संपूर्यमाणभुवनत्रयभीतचेताः ।
मा मा प्रजाः सृज तपश्चर मंगलाये-
त्याचष्ट तं कमलभूर्भवदीरितात्मा ॥6॥
तस्याथ सर्गरसिकस्य मरीचिरत्रि-
स्तत्राङिगराः क्रतुमुनिः पुलहः पुलस्त्यः ।
अंगादजायत भृगुश्च वसिष्ठदक्षौ
श्रीनारदश्च भगवन् भवदंघ्रिदासः ॥7॥
धर्मादिकानभिसृजन्नथ कर्दमं च
वाणीं विधाय विधिरंगजसंकुलोऽभूत् ।
त्वद्बोधितैस्सनकदक्षमुखैस्तनूजै-
रुद्बोधितश्च विरराम तमो विमुंचन् ॥8॥
वेदान् पुराणनिवहानपि सर्वविद्याः
कुर्वन् निजाननगणाच्चतुराननोऽसौ ।
पुत्रेषु तेषु विनिधाय स सर्गवृद्धि-
मप्राप्नुवंस्तव पदांबुजमाश्रितोभूत् ॥9॥
जानन्नुपायमथ देहमजो विभज्य
स्रीपुंसभावमभजन्मनुतद्वधूभ्याम् ।
ताभ्यां च मानुषकुलानि विवर्धयंस्त्वं
गोविंद मारुतपुरेश निरुंधि रोगान् ॥10॥
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