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Narayaniyam Dashaka 98 (नारायणीयं दशक 98)
नारायणीयं दशक 98 (Narayaniyam Dashaka 98)
यस्मिन्नेतद्विभातं यत इदमभवद्येन चेदं य एत-
द्योऽस्मादुत्तीर्णरूपः खलु सकलमिदं भासितं यस्य भासा ।
यो वाचां दूरदूरे पुनरपि मनसां यस्य देवा मुनींद्राः
नो विद्युस्तत्त्वरूपं किमु पुनरपरे कृष्ण तस्मै नमस्ते ॥1॥
जन्माथो कर्म नाम स्फुटमिह गुणदोषादिकं वा न यस्मिन्
लोकानामूतये यः स्वयमनुभजते तानि मायानुसारी ।
विभ्रच्छक्तीररूपोऽपि च बहुतररूपोऽवभात्यद्भुतात्मा
तस्मै कैवल्यधाम्ने पररसपरिपूर्णाय विष्णो नमस्ते ॥2॥
नो तिर्यंचन्न मर्त्यं न च सुरमसुरं न स्त्रियं नो पुंमांसं
न द्रव्यं कर्म जातिं गुणमपि सदसद्वापि ते रूपमाहुः ।
शिष्टं यत् स्यान्निषेधे सति निगमशतैर्लक्षणावृत्तितस्तत्
कृच्छ्रेणावेद्यमानं परमसुखमयं भाति तस्मै नमस्ते ॥3॥
मायायां बिंबितस्त्वं सृजसि महदहंकारतन्मात्रभेदै-
र्भूतग्रामेंद्रियाद्यैरपि सकलजगत्स्वप्नसंकल्पकल्पम् ।
भूयः संहृत्य सर्वं कमठ इव पदान्यात्मना कालशक्त्या
गंभीरे जायमाने तमसि वितिमिरो भासि तस्मै नमस्ते ॥4॥
शब्दब्रह्मेति कर्मेत्यणुरिति भगवन् काल इत्यालपंति
त्वामेकं विश्वहेतुं सकलमयतया सर्वथा कल्प्यमानम् ।
वेदांतैर्यत्तु गीतं पुरुषपरचिदात्माभिधं तत्तु तत्त्वं
प्रेक्षामात्रेण मूलप्रकृतिविकृतिकृत् कृष्ण तस्मै नमस्ते ॥5॥
सत्त्वेनासत्तया वा न च खलु सदसत्त्वेन निर्वाच्यरूपा
धत्ते यासावविद्या गुणफणिमतिवद्विश्वदृश्यावभासम् ।
विद्यात्वं सैव याता श्रुतिवचनलवैर्यत्कृपास्यंदलाभे
संसारारण्यसद्यस्त्रुटनपरशुतामेति तस्मै नमस्ते ॥6॥
भूषासु स्वर्णवद्वा जगति घटशरावादिके मृत्तिकाव-
त्तत्त्वे संचिंत्यमाने स्फुरति तदधुनाप्यद्वितीयं वपुस्ते ।
स्वप्नद्रष्टुः प्रबोधे तिमिरलयविधौ जीर्णरज्जोश्च यद्व-
द्विद्यालाभे तथैव स्फुटमपि विकसेत् कृष्ण तस्मै नमस्ते ॥7॥
यद्भीत्योदेति सूर्यो दहति च दहनो वाति वायुस्तथान्ये
यद्भीताः पद्मजाद्याः पुनरुचितबलीनाहरंतेऽनुकालम् ।
येनैवारोपिताः प्राङ्निजपदमपि ते च्यावितारश्च पश्चात्
तस्मै विश्वं नियंत्रे वयमपि भवते कृष्ण कुर्मः प्रणामम् ॥8॥
त्रैलोक्यं भावयंतं त्रिगुणमयमिदं त्र्यक्षरस्यैकवाच्यं
त्रीशानामैक्यरूपं त्रिभिरपि निगमैर्गीयमानस्वरूपम् ।
तिस्रोवस्था विदंतं त्रियुगजनिजुषं त्रिक्रमाक्रांतविश्वं
त्रैकाल्ये भेदहीनं त्रिभिरहमनिशं योगभेदैर्भजे त्वाम् ॥9॥
सत्यं शुद्धं विबुद्धं जयति तव वपुर्नित्यमुक्तं निरीहं
निर्द्वंद्वं निर्विकारं निखिलगुणगणव्यंजनाधारभूतम् ।
निर्मूलं निर्मलं तन्निरवधिमहिमोल्लासि निर्लीनमंत-
र्निस्संगानां मुनीनां निरुपमपरमानंदसांद्रप्रकाशम् ॥10॥
दुर्वारं द्वादशारं त्रिशतपरिमिलत्षष्टिपर्वाभिवीतं
संभ्राम्यत् क्रूरवेगं क्षणमनु जगदाच्छिद्य संधावमानम् ।
चक्रं ते कालरूपं व्यथयतु न तु मां त्वत्पदैकावलंबं
विष्णो कारुण्यसिंधो पवनपुरपते पाहि सर्वामयौघात् ॥11॥
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