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Narayaniyam Dashaka 1 (नारायणीयं दशक 1)
नारायणीयं दशक 1 (Narayaniyam Dashaka 1)
सांद्रानंदावबोधात्मकमनुपमितं कालदेशावधिभ्यां
निर्मुक्तं नित्यमुक्तं निगमशतसहस्रेण निर्भास्यमानम् ।
अस्पष्टं दृष्टमात्रे पुनरुरुपुरुषार्थात्मकं ब्रह्म तत्वं
तत्तावद्भाति साक्षाद् गुरुपवनपुरे हंत भाग्यं जनानाम् ॥ 1 ॥
एवंदुर्लभ्यवस्तुन्यपि सुलभतया हस्तलब्धे यदन्यत्
तन्वा वाचा धिया वा भजति बत जनः क्षुद्रतैव स्फुटेयम् ।
एते तावद्वयं तु स्थिरतरमनसा विश्वपीडापहत्यै
निश्शेषात्मानमेनं गुरुपवनपुराधीशमेवाश्रयामः ॥ 2 ॥
सत्त्वं यत्तत् पराभ्यामपरिकलनतो निर्मलं तेन तावत्
भूतैर्भूतेंद्रियैस्ते वपुरिति बहुशः श्रूयते व्यासवाक्यम्।
तत् स्वच्छ्त्वाद्यदाच्छादितपरसुखचिद्गर्भनिर्भासरूपं
तस्मिन् धन्या रमंते श्रुतिमतिमधुरे सुग्रहे विग्रहे ते ॥ 3 ॥
निष्कंपे नित्यपूर्णे निरवधिपरमानंदपीयूषरूपे
निर्लीनानेकमुक्तावलिसुभगतमे निर्मलब्रह्मसिंधौ ।
कल्लोलोल्लासतुल्यं खलु विमलतरं सत्त्वमाहुस्तदात्मा
कस्मान्नो निष्कलस्त्वं सकल इति वचस्त्वत्कलास्वेव भूमन् ॥ 4 ॥
निर्व्यापारोऽपि निष्कारणमज भजसे यत्क्रियामीक्षणाख्यां
तेनैवोदेति लीना प्रकृतिरसतिकल्पाऽपि कल्पादिकाले।
तस्याः संशुद्धमंशं कमपि तमतिरोधायकं सत्त्वरूपं
स त्वं धृत्वा दधासि स्वमहिमविभवाकुंठ वैकुंठ रूपं॥5॥
तत्ते प्रत्यग्रधाराधरललितकलायावलीकेलिकारं
लावण्यस्यैकसारं सुकृतिजनदृशां पूर्णपुण्यावतारम्।
लक्ष्मीनिश्शंकलीलानिलयनममृतस्यंदसंदोहमंतः
सिंचत् संचिंतकानां वपुरनुकलये मारुतागारनाथ ॥6॥
कष्टा ते सृष्टिचेष्टा बहुतरभवखेदावहा जीवभाजा-
मित्येवं पूर्वमालोचितमजित मया नैवमद्याभिजाने।
नोचेज्जीवाः कथं वा मधुरतरमिदं त्वद्वपुश्चिद्रसार्द्रं
नेत्रैः श्रोत्रैश्च पीत्वा परमरससुधांभोधिपूरे रमेरन्॥7॥
नम्राणां सन्निधत्ते सततमपि पुरस्तैरनभ्यर्थितान -
प्यर्थान् कामानजस्रं वितरति परमानंदसांद्रां गतिं च।
इत्थं निश्शेषलभ्यो निरवधिकफलः पारिजातो हरे त्वं
क्षुद्रं तं शक्रवाटीद्रुममभिलषति व्यर्थमर्थिव्रजोऽयम्॥8॥
कारुण्यात्काममन्यं ददति खलु परे स्वात्मदस्त्वं विशेषा-
दैश्वर्यादीशतेऽन्ये जगति परजने स्वात्मनोऽपीश्वरस्त्वम्।
त्वय्युच्चैरारमंति प्रतिपदमधुरे चेतनाः स्फीतभाग्या-
स्त्वं चात्माराम एवेत्यतुलगुणगणाधार शौरे नमस्ते॥9॥
ऐश्वर्यं शंकरादीश्वरविनियमनं विश्वतेजोहराणां
तेजस्संहारि वीर्यं विमलमपि यशो निस्पृहैश्चोपगीतम्।
अंगासंगा सदा श्रीरखिलविदसि न क्वापि ते संगवार्ता
तद्वातागारवासिन् मुरहर भगवच्छब्दमुख्याश्रयोऽसि॥10॥
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