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Narayaniyam Dashaka 67 (नारायणीयं दशक 67)
नारायणीयं दशक 67 (Narayaniyam Dashaka 67)
स्फुरत्परानंदरसात्मकेन त्वया समासादितभोगलीलाः ।
असीममानंदभरं प्रपन्ना महांतमापुर्मदमंबुजाक्ष्यः ॥1॥
निलीयतेऽसौ मयि मय्यमायं रमापतिर्विश्वमनोभिरामः ।
इति स्म सर्वाः कलिताभिमाना निरीक्ष्य गोविंद् तिरोहितोऽभूः ॥2॥
राधाभिधां तावदजातगर्वामतिप्रियां गोपवधूं मुरारे ।
भवानुपादाय गतो विदूरं तया सह स्वैरविहारकारी ॥3॥
तिरोहितेऽथ त्वयि जाततापाः समं समेताः कमलायताक्ष्यः ।
वने वने त्वां परिमार्गयंत्यो विषादमापुर्भगवन्नपारम् ॥4॥
हा चूत हा चंपक कर्णिकार हा मल्लिके मालति बालवल्यः ।
किं वीक्षितो नो हृदयैकचोरः इत्यादि तास्त्वत्प्रवणा विलेपुः ॥5॥
निरीक्षितोऽयं सखि पंकजाक्षः पुरो ममेत्याकुलमालपंती ।
त्वां भावनाचक्षुषि वीक्ष्य काचित्तापं सखीनां द्विगुणीचकार ॥6॥
त्वदात्मिकास्ता यमुनातटांते तवानुचक्रुः किल चेष्टितानि ।
विचित्य भूयोऽपि तथैव मानात्त्वया विमुक्तां ददृशुश्च राधाम् ॥7॥
ततः समं ता विपिने समंतात्तमोवतारावधि मार्गयंत्यः ।
पुनर्विमिश्रा यमुनातटांते भृशं विलेपुश्च जगुर्गुणांस्ते ॥8॥
तथा व्यथासंकुलमानसानां व्रजांगनानां करुणैकसिंधो ।
जगत्त्रयीमोहनमोहनात्मा त्वं प्रादुरासीरयि मंदहासी ॥9॥
संदिग्धसंदर्शनमात्मकांतं त्वां वीक्ष्य तन्व्यः सहसा तदानीम् ।
किं किं न चक्रुः प्रमदातिभारात् स त्वं गदात् पालय मारुतेश ॥10॥
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