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Narayaniyam Dashaka 80 (नारायणीयं दशक 80)
नारायणीयं दशक 80 (Narayaniyam Dashaka 80)
सत्राजितस्त्वमथ लुब्धवदर्कलब्धं
दिव्यं स्यमंतकमणिं भगवन्नयाचीः ।
तत्कारणं बहुविधं मम भाति नूनं
तस्यात्मजां त्वयि रतां छलतो विवोढुम् ॥1॥
अदत्तं तं तुभ्यं मणिवरमनेनाल्पमनसा
प्रसेनस्तद्भ्राता गलभुवि वहन् प्राप मृगयाम् ।
अहन्नेनं सिंहो मणिमहसि मांसभ्रमवशात्
कपींद्रस्तं हत्वा मणिमपि च बालाय ददिवान् ॥2॥
शशंसुः सत्राजिद्गिरमनु जनास्त्वां मणिहरं
जनानां पीयूषं भवति गुणिनां दोषकणिका ।
ततः सर्वज्ञोऽपि स्वजनसहितो मार्गणपरः
प्रसेनं तं दृष्ट्वा हरिमपि गतोऽभूः कपिगुहाम् ॥3॥
भवंतमवितर्कयन्नतिवयाः स्वयं जांबवान्
मुकुंदशरणं हि मां क इह रोद्धुमित्यालपन् ।
विभो रघुपते हरे जय जयेत्यलं मुष्टिभि-
श्चिरं तव समर्चनं व्यधित भक्तचूडामणिः ॥4॥
बुध्वाऽथ तेन दत्तां नवरमणीं वरमणिं च परिगृह्णन् ।
अनुगृह्णन्नमुमागाः सपदि च सत्राजिते मणिं प्रादाः ॥5॥
तदनु स खलु ब्रीलालोलो विलोलविलोचनां
दुहितरमहो धीमान् भामां गिरैव परार्पिताम् ।
अदित मणिना तुभ्यं लभ्यं समेत्य भवानपि
प्रमुदितमनास्तस्यैवादान्मणिं गहनाशयः ॥6॥
व्रीलाकुलां रमयति त्वयि सत्यभामां
कौंतेयदाहकथयाथ कुरून् प्रयाते ।
ही गांदिनेयकृतवर्मगिरा निपात्य
सत्राजितं शतधनुर्मणिमाजहार ॥7॥
शोकात् कुरूनुपगतामवलोक्य कांतां
हत्वा द्रुतं शतधनुं समहर्षयस्ताम् ।
रत्ने सशंक इव मैथिलगेहमेत्य
रामो गदां समशिशिक्षत धार्तराष्ट्रम् ॥8॥
अक्रूर एष भगवन् भवदिच्छयैव
सत्राजितः कुचरितस्य युयोज हिंसाम् ।
अक्रूरतो मणिमनाहृतवान् पुनस्त्वं
तस्यैव भूतिमुपधातुमिति ब्रुवंति ॥9॥
भक्तस्त्वयि स्थिरतरः स हि गांदिनेय-
स्तस्यैव कापथमतिः कथमीश जाता ।
विज्ञानवान् प्रशमवानहमित्युदीर्णं
गर्वं ध्रुवं शमयितुं भवता कृतैव ॥10॥
यातं भयेन कृतवर्मयुतं पुनस्त-
माहूय तद्विनिहितं च मणिं प्रकाश्य ।
तत्रैव सुव्रतधरे विनिधाय तुष्यन्
भामाकुचांतशयनः पवनेश पायाः ॥11॥
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