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Narayaniyam Dashaka 42 (नारायणीयं दशक 42)
नारायणीयं दशक 42 (Narayaniyam Dashaka 42)
कदापि जन्मर्क्षदिने तव प्रभो निमंत्रितज्ञातिवधूमहीसुरा ।
महानसस्त्वां सविधे निधाय सा महानसादौ ववृते व्रजेश्वरी ॥1॥
ततो भवत्त्राणनियुक्तबालकप्रभीतिसंक्रंदनसंकुलारवैः ।
विमिश्रमश्रावि भवत्समीपतः परिस्फुटद्दारुचटच्चटारवः ॥2॥
ततस्तदाकर्णनसंभ्रमश्रमप्रकंपिवक्षोजभरा व्रजांगनाः ।
भवंतमंतर्ददृशुस्समंततो विनिष्पतद्दारुणदारुमध्यगम् ॥3॥
शिशोरहो किं किमभूदिति द्रुतं प्रधाव्य नंदः पशुपाश्च भूसुराः ।
भवंतमालोक्य यशोदया धृतं समाश्वसन्नश्रुजलार्द्रलोचनाः ॥4॥
कस्को नु कौतस्कुत एष विस्मयो विशंकटं यच्छकटं विपाटितम् ।
न कारणं किंचिदिहेति ते स्थिताः स्वनासिकादत्तकरास्त्वदीक्षकाः ॥5॥
कुमारकस्यास्य पयोधरार्थिनः प्ररोदने लोलपदांबुजाहतम् ।
मया मया दृष्टमनो विपर्यगादितीश ते पालकबालका जगुः ॥6॥
भिया तदा किंचिदजानतामिदं कुमारकाणामतिदुर्घटं वचः ।
भवत्प्रभावाविदुरैरितीरितं मनागिवाशंक्यत दृष्टपूतनैः ॥7॥
प्रवालताम्रं किमिदं पदं क्षतं सरोजरम्यौ नु करौ विरोजितौ।
इति प्रसर्पत्करुणातरंगितास्त्वदंगमापस्पृशुरंगनाजनाः ॥8॥
अये सुतं देहि जगत्पतेः कृपातरंगपातात्परिपातमद्य मे ।
इति स्म संगृह्य पिता त्वदंगकं मुहुर्मुहुः श्लिष्यति जातकंटकः ॥9॥
अनोनिलीनः किल हंतुमागतः सुरारिरेवं भवता विहिंसितः ।
रजोऽपि नो दृष्टममुष्य तत्कथं स शुद्धसत्त्वे त्वयि लीनवान् ध्रुवम् ॥10॥
प्रपूजितैस्तत्र ततो द्विजातिभिर्विशेषतो लंभितमंगलाशिषः ।
व्रजं निजैर्बाल्यरसैर्विमोहयन् मरुत्पुराधीश रुजां जहीहि मे ॥11॥
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