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Narayaniyam Dashaka 70 (नारायणीयं दशक 70)
नारायणीयं दशक 70 (Narayaniyam Dashaka 70)
इति त्वयि रसाकुलं रमितवल्लभे वल्लवाः
कदापि पुरमंबिकामितुरंबिकाकानने ।
समेत्य भवता समं निशि निषेव्य दिव्योत्सवं
सुखं सुषुपुरग्रसीद्व्रजपमुग्रनागस्तदा ॥1॥
समुन्मुखमथोल्मुकैरभिहतेऽपि तस्मिन् बला-
दमुंचति भवत्पदे न्यपति पाहि पाहीति तैः ।
तदा खलु पदा भवान् समुपगम्य पस्पर्श तं
बभौ स च निजां तनुं समुपसाद्य वैद्यधरीम् ॥2॥
सुदर्शनधर प्रभो ननु सुदर्शनाख्योऽस्म्यहं
मुनीन् क्वचिदपाहसं त इह मां व्यधुर्वाहसम् ।
भवत्पदसमर्पणादमलतां गतोऽस्मीत्यसौ
स्तुवन् निजपदं ययौ व्रजपदं च गोपा मुदा ॥3॥
कदापि खलु सीरिणा विहरति त्वयि स्त्रीजनै-
र्जहार धनदानुगः स किल शंखचूडोऽबलाः ।
अतिद्रुतमनुद्रुतस्तमथ मुक्तनारीजनं
रुरोजिथ शिरोमणिं हलभृते च तस्याददाः ॥4॥
दिनेषु च सुहृज्जनैस्सह वनेषु लीलापरं
मनोभवमनोहरं रसितवेणुनादामृतम् ।
भवंतममरीदृशाममृतपारणादायिनं
विचिंत्य किमु नालपन् विरहतापिता गोपिकाः ॥5॥
भोजराजभृतकस्त्वथ कश्चित् कष्टदुष्टपथदृष्टिररिष्टः ।
निष्ठुराकृतिरपष्ठुनिनादस्तिष्ठते स्म भवते वृषरूपी ॥6॥
शाक्वरोऽथ जगतीधृतिहारी मूर्तिमेष बृहतीं प्रदधानः ।
पंक्तिमाशु परिघूर्ण्य पशूनां छंदसां निधिमवाप भवंतम् ॥7॥
तुंगशृंगमुखमाश्वभियंतं संगृहय्य रभसादभियं तम् ।
भद्ररूपमपि दैत्यमभद्रं मर्दयन्नमदयः सुरलोकम् ॥8॥
चित्रमद्य भगवन् वृषघातात् सुस्थिराऽजनि वृषस्थितिरुर्व्याम् ।
वर्धते च वृषचेतसि भूयान् मोद इत्यभिनुतोऽसि सुरैस्त्वम् ॥9॥
औक्षकाणि परिधावत दूरं वीक्ष्यतामयमिहोक्षविभेदी ।
इत्थमात्तहसितैः सह गोपैर्गेहगस्त्वमव वातपुरेश ॥10॥
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