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Narayaniyam Dashaka 85 (नारायणीयं दशक 85)
नारायणीयं दशक 85 (Narayaniyam Dashaka 85)
ततो मगधभूभृता चिरनिरोधसंक्लेशितं
शताष्टकयुतायुतद्वितयमीश भूमीभृताम् ।
अनाथशरणाय ते कमपि पूरुषं प्राहिणो-
दयाचत स मागधक्षपणमेव किं भूयसा ॥1॥
यियासुरभिमागधं तदनु नारदोदीरिता-
द्युधिष्ठिरमखोद्यमादुभयकार्यपर्याकुलः ।
विरुद्धजयिनोऽध्वरादुभयसिद्धिरित्युद्धवे
शशंसुषि निजैः समं पुरमियेथ यौधिष्ठिरीम् ॥2॥
अशेषदयितायुते त्वयि समागते धर्मजो
विजित्य सहजैर्महीं भवदपांगसंवर्धितैः ।
श्रियं निरुपमां वहन्नहह भक्तदासायितं
भवंतमयि मागधे प्रहितवान् सभीमार्जुनम् ॥3॥
गिरिव्रजपुरं गतास्तदनु देव यूयं त्रयो
ययाच समरोत्सवं द्विजमिषेण तं मागधम् ।
अपूर्णसुकृतं त्वमुं पवनजेन संग्रामयन्
निरीक्ष्य सह जिष्णुना त्वमपि राजयुद्ध्वा स्थितः ॥4॥
अशांतसमरोद्धतं बिटपपाटनासंज्ञया
निपात्य जररस्सुतं पवनजेन निष्पाटितम् ।
विमुच्य नृपतीन् मुदा समनुगृह्य भक्तिं परां
दिदेशिथ गतस्पृहानपि च धर्मगुप्त्यै भुवः ॥5॥
प्रचक्रुषि युधिष्ठिरे तदनु राजसूयाध्वरं
प्रसन्नभृतकीभवत्सकलराजकव्याकुलम् ।
त्वमप्ययि जगत्पते द्विजपदावनेजादिकं
चकर्थ किमु कथ्यते नृपवरस्य भाग्योन्नतिः ॥6॥
ततः सवनकर्मणि प्रवरमग्र्यपूजाविधिं
विचार्य सहदेववागनुगतः स धर्मात्मजः ।
व्यधत्त भवते मुदा सदसि विश्वभूतात्मने
तदा ससुरमानुषं भुवनमेव तृप्तिं दधौ ॥7॥
ततः सपदि चेदिपो मुनिनृपेषु तिष्ठत्स्वहो
सभाजयति को जडः पशुपदुर्दुरूटं वटुम् ।
इति त्वयि स दुर्वचोविततिमुद्वमन्नासना-
दुदापतदुदायुधः समपतन्नमुं पांडवाः ॥8॥
निवार्य निजपक्षगानभिमुखस्यविद्वेषिण-
स्त्वमेव जहृषे शिरो दनुजदारिणा स्वारिणा ।
जनुस्त्रितयलब्धया सततचिंतया शुद्धधी-
स्त्वया स परमेकतामधृत योगिनां दुर्लभाम् ॥9॥
ततः सुमहिते त्वया क्रतुवरे निरूढे जनो
ययौ जयति धर्मजो जयति कृष्ण इत्यालपन्।
खलः स तु सुयोधनो धुतमनास्सपत्नश्रिया
मयार्पितसभामुखे स्थलजलभ्रमादभ्रमीत् ॥10॥
तदा हसितमुत्थितं द्रुपदनंदनाभीमयो-
रपांगकलया विभो किमपि तावदुज्जृंभयन् ।
धराभरनिराकृतौ सपदि नाम बीजं वपन्
जनार्दन मरुत्पुरीनिलय पाहि मामामयात् ॥11॥
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