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Narayaniyam Dashaka 11 (नारायणीयं दशक 11)
नारायणीयं दशक 11 (Narayaniyam Dashaka 11)
क्रमेण सर्गे परिवर्धमाने
कदापि दिव्याः सनकादयस्ते ।
भवद्विलोकाय विकुंठलोकं
प्रपेदिरे मारुतमंदिरेश ॥1॥
मनोज्ञनैश्रेयसकाननाद्यै-
रनेकवापीमणिमंदिरैश्च ।
अनोपमं तं भवतो निकेतं
मुनीश्वराः प्रापुरतीतकक्ष्याः ॥2॥
भवद्दिद्दृक्षून्भवनं विविक्षून्
द्वाःस्थौ जयस्तान् विजयोऽप्यरुंधाम् ।
तेषां च चित्ते पदमाप कोपः
सर्वं भवत्प्रेरणयैव भूमन् ॥3॥
वैकुंठलोकानुचितप्रचेष्टौ
कष्टौ युवां दैत्यगतिं भजेतम् ।
इति प्रशप्तौ भवदाश्रयौ तौ
हरिस्मृतिर्नोऽस्त्विति नेमतुस्तान् ॥4॥
तदेतदाज्ञाय भवानवाप्तः
सहैव लक्ष्म्या बहिरंबुजाक्ष ।
खगेश्वरांसार्पितचारुबाहु-
रानंदयंस्तानभिराममूर्त्या ॥5॥
प्रसाद्य गीर्भिः स्तुवतो मुनींद्रा-
ननन्यनाथावथ पार्षदौ तौ ।
संरंभयोगेन भवैस्त्रिभिर्मा-
मुपेतमित्यात्तकृपं न्यगादीः ॥6॥
त्वदीयभृत्यावथ काश्यपात्तौ
सुरारिवीरावुदितौ दितौ द्वौ ।
संध्यासमुत्पादनकष्टचेष्टौ
यमौ च लोकस्य यमाविवान्यौ ॥7॥
हिरण्यपूर्वः कशिपुः किलैकः
परो हिरण्याक्ष इति प्रतीतः ।
उभौ भवन्नाथमशेषलोकं
रुषा न्यरुंधां निजवासनांधौ ॥8॥
तयोर्हिरण्याक्षमहासुरेंद्रो
रणाय धावन्ननवाप्तवैरी ।
भवत्प्रियां क्ष्मां सलिले निमज्य
चचार गर्वाद्विनदन् गदावान् ॥9॥
ततो जलेशात् सदृशं भवंतं
निशम्य बभ्राम गवेषयंस्त्वाम् ।
भक्तैकदृश्यः स कृपानिधे त्वं
निरुंधि रोगान् मरुदालयेश ॥10।
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