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Narayaniyam Dashaka 100 (नारायणीयं दशक 100)
नारायणीयं दशक 100 (Narayaniyam Dashaka 100)
अग्रे पश्यामि तेजो निबिडतरकलायावलीलोभनीयं
पीयूषाप्लावितोऽहं तदनु तदुदरे दिव्यकैशोरवेषम् ।
तारुण्यारंभरम्यं परमसुखरसास्वादरोमांचितांगै-
रावीतं नारदाद्यैर्विलसदुपनिषत्सुंदरीमंडलैश्च ॥1॥
नीलाभं कुंचिताग्रं घनममलतरं संयतं चारुभंग्या
रत्नोत्तंसाभिरामं वलयितमुदयच्चंद्रकैः पिंछजालैः ।
मंदारस्रङ्निवीतं तव पृथुकबरीभारमालोकयेऽहं
स्निग्धश्वेतोर्ध्वपुंड्रामपि च सुललितां फालबालेंदुवीथीम् ॥2
हृद्यं पूर्णानुकंपार्णवमृदुलहरीचंचलभ्रूविलासै-
रानीलस्निग्धपक्ष्मावलिपरिलसितं नेत्रयुग्मं विभो ते ।
सांद्रच्छायं विशालारुणकमलदलाकारमामुग्धतारं
कारुण्यालोकलीलाशिशिरितभुवनं क्षिप्यतां मय्यनाथे ॥3॥
उत्तुंगोल्लासिनासं हरिमणिमुकुरप्रोल्लसद्गंडपाली-
व्यालोलत्कर्णपाशांचितमकरमणीकुंडलद्वंद्वदीप्रम् ।
उन्मीलद्दंतपंक्तिस्फुरदरुणतरच्छायबिंबाधरांतः-
प्रीतिप्रस्यंदिमंदस्मितमधुरतरं वक्त्रमुद्भासतां मे ॥4॥
बाहुद्वंद्वेन रत्नोज्ज्वलवलयभृता शोणपाणिप्रवाले-
नोपात्तां वेणुनाली प्रसृतनखमयूखांगुलीसंगशाराम् ।
कृत्वा वक्त्रारविंदे सुमधुरविकसद्रागमुद्भाव्यमानैः
शब्दब्रह्मामृतैस्त्वं शिशिरितभुवनैः सिंच मे कर्णवीथीम् ॥5॥
उत्सर्पत्कौस्तुभश्रीततिभिररुणितं कोमलं कंठदेशं
वक्षः श्रीवत्सरम्यं तरलतरसमुद्दीप्रहारप्रतानम् ।
नानावर्णप्रसूनावलिकिसलयिनीं वन्यमालां विलोल-
ल्लोलंबां लंबमानामुरसि तव तथा भावये रत्नमालाम् ॥6॥
अंगे पंचांगरागैरतिशयविकसत्सौरभाकृष्टलोकं
लीनानेकत्रिलोकीविततिमपि कृशां बिभ्रतं मध्यवल्लीम् ।
शक्राश्मन्यस्ततप्तोज्ज्वलकनकनिभं पीतचेलं दधानं
ध्यायामो दीप्तरश्मिस्फुटमणिरशनाकिंकिणीमंडितं त्वाम् ॥7॥
ऊरू चारू तवोरू घनमसृणरुचौ चित्तचोरौ रमायाः
विश्वक्षोभं विशंक्य ध्रुवमनिशमुभौ पीतचेलावृतांगौ ।
आनम्राणां पुरस्तान्न्यसनधृतसमस्तार्थपालीसमुद्ग-
च्छायं जानुद्वयं च क्रमपृथुलमनोज्ञे च जंघे निषेवे ॥8॥
मंजीरं मंजुनादैरिव पदभजनं श्रेय इत्यालपंतं
पादाग्रं भ्रांतिमज्जत्प्रणतजनमनोमंदरोद्धारकूर्मम् ।
उत्तुंगाताम्रराजन्नखरहिमकरज्योत्स्नया चाऽश्रितानां
संतापध्वांतहंत्रीं ततिमनुकलये मंगलामंगुलीनाम् ॥9॥
योगींद्राणां त्वदंगेष्वधिकसुमधुरं मुक्तिभाजां निवासो
भक्तानां कामवर्षद्युतरुकिसलयं नाथ ते पादमूलम् ।
नित्यं चित्तस्थितं मे पवनपुरपते कृष्ण कारुण्यसिंधो
हृत्वा निश्शेषतापान् प्रदिशतु परमानंदसंदोहलक्ष्मीम् ॥10॥
अज्ञात्वा ते महत्वं यदिह निगदितं विश्वनाथ क्षमेथाः
स्तोत्रं चैतत्सहस्रोत्तरमधिकतरं त्वत्प्रसादाय भूयात् ।
द्वेधा नारायणीयं श्रुतिषु च जनुषा स्तुत्यतावर्णनेन
स्फीतं लीलावतारैरिदमिह कुरुतामायुरारोग्यसौख्यम् ॥11॥
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