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Narayaniyam Dashaka 54 (नारायणीयं दशक 54)
नारायणीयं दशक 54 (Narayaniyam Dashaka 54)
त्वत्सेवोत्कस्सौभरिर्नाम पूर्वं
कालिंद्यंतर्द्वादशाब्दं तपस्यन् ।
मीनव्राते स्नेहवान् भोगलोले
तार्क्ष्यं साक्षादैक्षताग्रे कदाचित् ॥1॥
त्वद्वाहं तं सक्षुधं तृक्षसूनुं
मीनं कंचिज्जक्षतं लक्षयन् सः ।
तप्तश्चित्ते शप्तवानत्र चेत्त्वं
जंतून् भोक्ता जीवितं चापि मोक्ता ॥2॥
तस्मिन् काले कालियः क्ष्वेलदर्पात्
सर्पारातेः कल्पितं भागमश्नन् ।
तेन क्रोधात्त्वत्पदांभोजभाजा
पक्षक्षिप्तस्तद्दुरापं पयोऽगात् ॥3॥
घोरे तस्मिन् सूरजानीरवासे
तीरे वृक्षा विक्षताः क्ष्वेलवेगात् ।
पक्षिव्राताः पेतुरभ्रे पतंतः
कारुण्यार्द्रं त्वन्मनस्तेन जातम् ॥4॥
काले तस्मिन्नेकदा सीरपाणिं
मुक्त्वा याते यामुनं काननांतम् ।
त्वय्युद्दामग्रीष्मभीष्मोष्मतप्ता
गोगोपाला व्यापिबन् क्ष्वेलतोयम् ॥5॥
नश्यज्जीवान् विच्युतान् क्ष्मातले तान्
विश्वान् पश्यन्नच्युत त्वं दयार्द्रः ।
प्राप्योपांतं जीवयामासिथ द्राक्
पीयूषांभोवर्षिभिः श्रीकटक्षैः ॥6॥
किं किं जातो हर्षवर्षातिरेकः
सर्वांगेष्वित्युत्थिता गोपसंघाः ।
दृष्ट्वाऽग्रे त्वां त्वत्कृतं तद्विदंत-
स्त्वामालिंगन् दृष्टनानाप्रभावाः ॥7॥
गावश्चैवं लब्धजीवाः क्षणेन
स्फीतानंदास्त्वां च दृष्ट्वा पुरस्तात् ।
द्रागावव्रुः सर्वतो हर्षबाष्पं
व्यामुंचंत्यो मंदमुद्यन्निनादाः ॥8॥
रोमांचोऽयं सर्वतो नः शरीरे
भूयस्यंतः काचिदानंदमूर्छा ।
आश्चर्योऽयं क्ष्वेलवेगो मुकुंदे-
त्युक्तो गोपैर्नंदितो वंदितोऽभूः ॥9॥
एवं भक्तान् मुक्तजीवानपि त्वं
मुग्धापांगैरस्तरोगांस्तनोषि ।
तादृग्भूतस्फीतकारुण्यभूमा
रोगात् पाया वायुगेहाधिवास ॥10॥
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