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Narayaniyam Dashaka 91 (नारायणीयं दशक 91)
नारायणीयं दशक 91 (Narayaniyam Dashaka 91)
श्रीकृष्ण त्वत्पदोपासनमभयतमं बद्धमिथ्यार्थदृष्टे-
र्मर्त्यस्यार्तस्य मन्ये व्यपसरति भयं येन सर्वात्मनैव ।
यत्तावत् त्वत्प्रणीतानिह भजनविधीनास्थितो मोहमार्गे
धावन्नप्यावृताक्षः स्खलति न कुहचिद्देवदेवाखिलात्मन् ॥1॥
भूमन् कायेन वाचा मुहुरपि मनसा त्वद्बलप्रेरितात्मा
यद्यत् कुर्वे समस्तं तदिह परतरे त्वय्यसावर्पयामि ।
जात्यापीह श्वपाकस्त्वयि निहितमनःकर्मवागिंद्रियार्थ-
प्राणो विश्वं पुनीते न तु विमुखमनास्त्वत्पदाद्विप्रवर्यः ॥2॥
भीतिर्नाम द्वितीयाद्भवति ननु मनःकल्पितं च द्वितीयं
तेनैक्याभ्यासशीलो हृदयमिह यथाशक्ति बुद्ध्या निरुंध्याम् ।
मायाविद्धे तु तस्मिन् पुनरपि न तथा भाति मायाधिनाथं
तं त्वां भक्त्या महत्या सततमनुभजनीश भीतिं विजह्याम् ॥3॥
भक्तेरुत्पत्तिवृद्धी तव चरणजुषां संगमेनैव पुंसा-
मासाद्ये पुण्यभाजां श्रिय इव जगति श्रीमतां संगमेन ।
तत्संगो देव भूयान्मम खलु सततं तन्मुखादुन्मिषद्भि-
स्त्वन्माहात्म्यप्रकारैर्भवति च सुदृढा भक्तिरुद्धूतपापा ॥4॥
श्रेयोमार्गेषु भक्तावधिकबहुमतिर्जन्मकर्माणि भूयो
गायन् क्षेमाणि नामान्यपि तदुभयतः प्रद्रुतं प्रद्रुतात्मा ।
उद्यद्धासः कदाचित् कुहचिदपि रुदन् क्वापि गर्जन् प्रगाय-
न्नुन्मादीव प्रनृत्यन्नयि कुरु करुणां लोकबाह्यश्चरेयम् ॥5॥
भूतान्येतानि भूतात्मकमपि सकलं पक्षिमत्स्यान् मृगादीन्
मर्त्यान् मित्राणि शत्रूनपि यमितमतिस्त्वन्मयान्यानमानि ।
त्वत्सेवायां हि सिद्ध्येन्मम तव कृपया भक्तिदार्ढ्यं विराग-
स्त्वत्तत्त्वस्यावबोधोऽपि च भुवनपते यत्नभेदं विनैव ॥6॥
नो मुह्यन् क्षुत्तृडाद्यैर्भवसरणिभवैस्त्वन्निलीनाशयत्वा-
च्चिंतासातत्यशाली निमिषलवमपि त्वत्पदादप्रकंपः ।
इष्टानिष्टेषु तुष्टिव्यसनविरहितो मायिकत्वावबोधा-
ज्ज्योत्स्नाभिस्त्वन्नखेंदोरधिकशिशिरितेनात्मना संचरेयम् ॥7॥
भूतेष्वेषु त्वदैक्यस्मृतिसमधिगतौ नाधिकारोऽधुना चे-
त्त्वत्प्रेम त्वत्कमैत्री जडमतिषु कृपा द्विट्सु भूयादुपेक्षा ।
अर्चायां वा समर्चाकुतुकमुरुतरश्रद्धया वर्धतां मे
त्वत्संसेवी तथापि द्रुतमुपलभते भक्तलोकोत्तमत्वम् ॥8॥
आवृत्य त्वत्स्वरूपं क्षितिजलमरुदाद्यात्मना विक्षिपंती
जीवान् भूयिष्ठकर्मावलिविवशगतीन् दुःखजाले क्षिपंती ।
त्वन्माया माभिभून्मामयि भुवनपते कल्पते तत्प्रशांत्यै
त्वत्पादे भक्तिरेवेत्यवददयि विभो सिद्धयोगी प्रबुद्धः ॥9॥
दुःखान्यालोक्य जंतुष्वलमुदितविवेकोऽहमाचार्यवर्या-
ल्लब्ध्वा त्वद्रूपतत्त्वं गुणचरितकथाद्युद्भवद्भक्तिभूमा ।
मायामेनां तरित्वा परमसुखमये त्वत्पदे मोदिताहे
तस्यायं पूर्वरंगः पवनपुरपते नाशयाशेषरोगान् ॥10॥
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