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Narayaniyam Dashaka 65 (नारायणीयं दशक 65)
नारायणीयं दशक 65 (Narayaniyam Dashaka 65)
गोपीजनाय कथितं नियमावसाने
मारोत्सवं त्वमथ साधयितुं प्रवृत्तः ।
सांद्रेण चांद्रमहसा शिशिरीकृताशे
प्रापूरयो मुरलिकां यमुनावनांते ॥1॥
सम्मूर्छनाभिरुदितस्वरमंडलाभिः
सम्मूर्छयंतमखिलं भुवनांतरालम् ।
त्वद्वेणुनादमुपकर्ण्य विभो तरुण्य-
स्तत्तादृशं कमपि चित्तविमोहमापुः ॥2॥
ता गेहकृत्यनिरतास्तनयप्रसक्ताः
कांतोपसेवनपराश्च सरोरुहाक्ष्यः ।
सर्वं विसृज्य मुरलीरवमोहितास्ते
कांतारदेशमयि कांततनो समेताः ॥3॥
काश्चिन्निजांगपरिभूषणमादधाना
वेणुप्रणादमुपकर्ण्य कृतार्धभूषाः ।
त्वामागता ननु तथैव विभूषिताभ्य-
स्ता एव संरुरुचिरे तव लोचनाय ॥4॥
हारं नितंबभुवि काचन धारयंती
कांचीं च कंठभुवि देव समागता त्वाम् ।
हारित्वमात्मजघनस्य मुकुंद तुभ्यं
व्यक्तं बभाष इव मुग्धमुखी विशेषात् ॥5॥
काचित् कुचे पुनरसज्जितकंचुलीका
व्यामोहतः परवधूभिरलक्ष्यमाणा ।
त्वामाययौ निरुपमप्रणयातिभार-
राज्याभिषेकविधये कलशीधरेव ॥6॥
काश्चित् गृहात् किल निरेतुमपारयंत्य-
स्त्वामेव देव हृदये सुदृढं विभाव्य ।
देहं विधूय परचित्सुखरूपमेकं
त्वामाविशन् परमिमा ननु धन्यधन्याः ॥7॥
जारात्मना न परमात्मतया स्मरंत्यो
नार्यो गताः परमहंसगतिं क्षणेन ।
तं त्वां प्रकाशपरमात्मतनुं कथंचि-
च्चित्ते वहन्नमृतमश्रममश्नुवीय ॥8॥
अभ्यागताभिरभितो व्रजसुंदरीभि-
र्मुग्धस्मितार्द्रवदनः करुणावलोकी ।
निस्सीमकांतिजलधिस्त्वमवेक्ष्यमाणो
विश्वैकहृद्य हर मे पवनेश रोगान् ॥9॥
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