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Narayaniyam Dashaka 61 (नारायणीयं दशक 61)
नारायणीयं दशक 61 (Narayaniyam Dashaka 61)
ततश्च वृंदावनतोऽतिदूरतो
वनं गतस्त्वं खलु गोपगोकुलैः ।
हृदंतरे भक्ततरद्विजांगना-
कदंबकानुग्रहणाग्रहं वहन् ॥1॥
ततो निरीक्ष्याशरणे वनांतरे
किशोरलोकं क्षुधितं तृषाकुलम् ।
अदूरतो यज्ञपरान् द्विजान् प्रति
व्यसर्जयो दीदिवियाचनाय तान् ॥2॥
गतेष्वथो तेष्वभिधाय तेऽभिधां
कुमारकेष्वोदनयाचिषु प्रभो ।
श्रुतिस्थिरा अप्यभिनिन्युरश्रुतिं
न किंचिदूचुश्च महीसुरोत्तमाः ॥3॥
अनादरात् खिन्नधियो हि बालकाः ।
समाययुर्युक्तमिदं हि यज्वसु ।
चिरादभक्ताः खलु ते महीसुराः
कथं हि भक्तं त्वयि तैः समर्प्यते ॥4॥
निवेदयध्वं गृहिणीजनाय मां
दिशेयुरन्नं करुणाकुला इमाः ।
इति स्मितार्द्रं भवतेरिता गता-
स्ते दारका दारजनं ययाचिरे ॥5॥
गृहीतनाम्नि त्वयि संभ्रमाकुला-
श्चतुर्विधं भोज्यरसं प्रगृह्य ताः ।
चिरंधृतत्वत्प्रविलोकनाग्रहाः
स्वकैर्निरुद्धा अपि तूर्णमाययुः ॥6॥
विलोलपिंछं चिकुरे कपोलयोः
समुल्लसत्कुंडलमार्द्रमीक्षिते ।
निधाय बाहुं सुहृदंससीमनि
स्थितं भवंतं समलोकयंत ताः ॥7॥
तदा च काचित्त्वदुपागमोद्यता
गृहीतहस्ता दयितेन यज्वना ।
तदैव संचिंत्य भवंतमंजसा
विवेश कैवल्यमहो कृतिन्यसौ ॥8॥
आदाय भोज्यान्यनुगृह्य ताः पुन-
स्त्वदंगसंगस्पृहयोज्झतीर्गृहम् ।
विलोक्य यज्ञाय विसर्जयन्निमा-
श्चकर्थ भर्तृनपि तास्वगर्हणान् ॥9॥
निरूप्य दोषं निजमंगनाजने
विलोक्य भक्तिं च पुनर्विचारिभिः
प्रबुद्धतत्त्वैस्त्वमभिष्टुतो द्विजै-
र्मरुत्पुराधीश निरुंधि मे गदान् ॥10॥
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