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Narayaniyam Dashaka 55 (नारायणीयं दशक 55)
नारायणीयं दशक 55 (Narayaniyam Dashaka 55)
अथ वारिणि घोरतरं फणिनं
प्रतिवारयितुं कृतधीर्भगवन् ।
द्रुतमारिथ तीरगनीपतरुं
विषमारुतशोषितपर्णचयम् ॥1॥
अधिरुह्य पदांबुरुहेण च तं
नवपल्लवतुल्यमनोज्ञरुचा ।
ह्रदवारिणि दूरतरं न्यपतः
परिघूर्णितघोरतरंग्गणे ॥2॥
भुवनत्रयभारभृतो भवतो
गुरुभारविकंपिविजृंभिजला ।
परिमज्जयति स्म धनुश्शतकं
तटिनी झटिति स्फुटघोषवती ॥3॥
अथ दिक्षु विदिक्षु परिक्षुभित-
भ्रमितोदरवारिनिनादभरैः ।
उदकादुदगादुरगाधिपति-
स्त्वदुपांतमशांतरुषाऽंधमनाः ॥4॥
फणशृंगसहस्रविनिस्सृमर-
ज्वलदग्निकणोग्रविषांबुधरम् ।
पुरतः फणिनं समलोकयथा
बहुशृंगिणमंजनशैलमिव ॥5॥
ज्वलदक्षि परिक्षरदुग्रविष-
श्वसनोष्मभरः स महाभुजगः ।
परिदश्य भवंतमनंतबलं
समवेष्टयदस्फुटचेष्टमहो ॥6॥
अविलोक्य भवंतमथाकुलिते
तटगामिनि बालकधेनुगणे ।
व्रजगेहतलेऽप्यनिमित्तशतं
समुदीक्ष्य गता यमुनां पशुपाः ॥7॥
अखिलेषु विभो भवदीय दशा-
मवलोक्य जिहासुषु जीवभरम् ।
फणिबंधनमाशु विमुच्य जवा-
दुदगम्यत हासजुषा भवता ॥8॥
अधिरुह्य ततः फणिराजफणान्
ननृते भवता मृदुपादरुचा ।
कलशिंजितनूपुरमंजुमिल-
त्करकंकणसंकुलसंक्वणितम् ॥9॥
जहृषुः पशुपास्तुतुषुर्मुनयो
ववृषुः कुसुमानि सुरेंद्रगणाः ।
त्वयि नृत्यति मारुतगेहपते
परिपाहि स मां त्वमदांतगदात् ॥10॥
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