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Narayaniyam Dashaka 78 (नारायणीयं दशक 78)
नारायणीयं दशक 78 (Narayaniyam Dashaka 78)
त्रिदिववर्धकिवर्धितकौशलं त्रिदशदत्तसमस्तविभूतिमत् ।
जलधिमध्यगतं त्वमभूषयो नवपुरं वपुरंचितरोचिषा ॥1॥
ददुषि रेवतभूभृति रेवतीं हलभृते तनयां विधिशासनात् ।
महितमुत्सवघोषमपूपुषः समुदितैर्मुदितैः सह यादवैः ॥2॥
अथ विदर्भसुतां खलु रुक्मिणीं प्रणयिनीं त्वयि देव सहोदरः ।
स्वयमदित्सत चेदिमहीभुजे स्वतमसा तमसाधुमुपाश्रयन् ॥3॥
चिरधृतप्रणया त्वयि बालिका सपदि कांक्षितभंगसमाकुला ।
तव निवेदयितुं द्विजमादिशत् स्वकदनं कदनंगविनिर्मितम् ॥4॥
द्विजसुतोऽपि च तूर्णमुपाययौ तव पुरं हि दुराशदुरासदम् ।
मुदमवाप च सादरपूजितः स भवता भवतापहृता स्वयम् ॥5॥
स च भवंतमवोचत कुंडिने नृपसुता खलु राजति रुक्मिणी ।
त्वयि समुत्सुकया निजधीरतारहितया हि तया प्रहितोऽस्म्यहम् ॥6॥
तव हृताऽस्मि पुरैव गुणैरहं हरति मां किल चेदिनृपोऽधुना ।
अयि कृपालय पालय मामिति प्रजगदे जगदेकपते तया ॥7॥
अशरणां यदि मां त्वमुपेक्षसे सपदि जीवितमेव जहाम्यहम् ।
इति गिरा सुतनोरतनोत् भृशं सुहृदयं हृदयं तव कातरम् ॥8॥
अकथयस्त्वमथैनमये सखे तदधिका मम मन्मथवेदना ।
नृपसमक्षमुपेत्य हराम्यहं तदयि तां दयितामसितेक्षणाम् ॥9॥
प्रमुदितेन च तेन समं तदा रथगतो लघु कुंडिनमेयिवान् ।
गुरुमरुत्पुरनायक मे भवान् वितनुतां तनुतां निखिलापदाम् ॥10॥
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