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Narayaniyam Dashaka 73 (नारायणीयं दशक 73)
नारायणीयं दशक 73 (Narayaniyam Dashaka 73)
निशमय्य तवाथ यानवार्तां भृशमार्ताः पशुपालबालिकास्ताः ।
किमिदं किमिदं कथं न्वितीमाः समवेताः परिदेवितान्यकुर्वन् ॥1॥
करुणानिधिरेष नंदसूनुः कथमस्मान् विसृजेदनन्यनाथाः ।
बत नः किमु दैवमेवमासीदिति तास्त्वद्गतमानसा विलेपुः ॥2॥
चरमप्रहरे प्रतिष्ठमानः सह पित्रा निजमित्रमंडलैश्च ।
परितापभरं नितंबिनीनां शमयिष्यन् व्यमुचः सखायमेकम् ॥3॥
अचिरादुपयामि सन्निधिं वो भविता साधु मयैव संगमश्रीः ।
अमृतांबुनिधौ निमज्जयिष्ये द्रुतमित्याश्वसिता वधूरकार्षीः ॥4॥
सविषादभरं सयाच्ञमुच्चैः अतिदूरं वनिताभिरीक्ष्यमाणः ।
मृदु तद्दिशि पातयन्नपांगान् सबलोऽक्रूररथेन निर्गतोऽभूः ॥5॥
अनसा बहुलेन वल्लवानां मनसा चानुगतोऽथ वल्लभानाम् ।
वनमार्तमृगं विषण्णवृक्षं समतीतो यमुनातटीमयासीः ॥6॥
नियमाय निमज्य वारिणि त्वामभिवीक्ष्याथ रथेऽपि गांदिनेयः ।
विवशोऽजनि किं न्विदं विभोस्ते ननु चित्रं त्ववलोकनं समंतात् ॥7॥
पुनरेष निमज्य पुण्यशाली पुरुषं त्वां परमं भुजंगभोगे ।
अरिकंबुगदांबुजैः स्फुरंतं सुरसिद्धौघपरीतमालुलोके ॥8॥
स तदा परमात्मसौख्यसिंधौ विनिमग्नः प्रणुवन् प्रकारभेदैः ।
अविलोक्य पुनश्च हर्षसिंधोरनुवृत्त्या पुलकावृतो ययौ त्वाम् ॥9॥
किमु शीतलिमा महान् जले यत् पुलकोऽसाविति चोदितेन तेन ।
अतिहर्षनिरुत्तरेण सार्धं रथवासी पवनेश पाहि मां त्वम् ॥10॥
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