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Narayaniyam Dashaka 32 (नारायणीयं दशक 32)
नारायणीयं दशक 32 (Narayaniyam Dashaka 32)
पुरा हयग्रीवमहासुरेण षष्ठांतरांतोद्यदकांडकल्पे ।
निद्रोन्मुखब्रह्ममुखात् हृतेषु वेदेष्वधित्सः किल मत्स्यरूपम् ॥1॥
सत्यव्रतस्य द्रमिलाधिभर्तुर्नदीजले तर्पयतस्तदानीम् ।
करांजलौ संज्वलिताकृतिस्त्वमदृश्यथाः कश्चन बालमीनः ॥2॥
क्षिप्तं जले त्वां चकितं विलोक्य निन्येऽंबुपात्रेण मुनिः स्वगेहम् ।
स्वल्पैरहोभिः कलशीं च कूपं वापीं सरश्चानशिषे विभो त्वम् ॥3॥
योगप्रभावाद्भवदाज्ञयैव नीतस्ततस्त्वं मुनिना पयोधिम् ।
पृष्टोऽमुना कल्पदिदृक्षुमेनं सप्ताहमास्वेति वदन्नयासीः ॥4॥
प्राप्ते त्वदुक्तेऽहनि वारिधारापरिप्लुते भूमितले मुनींद्रः ।
सप्तर्षिभिः सार्धमपारवारिण्युद्घूर्णमानः शरणं ययौ त्वाम् ॥5॥
धरां त्वदादेशकरीमवाप्तां नौरूपिणीमारुरुहुस्तदा ते
तत्कंपकंप्रेषु च तेषु भूयस्त्वमंबुधेराविरभूर्महीयान् ॥6॥
झषाकृतिं योजनलक्षदीर्घां दधानमुच्चैस्तरतेजसं त्वाम् ।
निरीक्ष्य तुष्टा मुनयस्त्वदुक्त्या त्वत्तुंगशृंगे तरणिं बबंधुः ॥7॥
आकृष्टनौको मुनिमंडलाय प्रदर्शयन् विश्वजगद्विभागान् ।
संस्तूयमानो नृवरेण तेन ज्ञानं परं चोपदिशन्नचारीः ॥8॥
कल्पावधौ सप्तमुनीन् पुरोवत् प्रस्थाप्य सत्यव्रतभूमिपं तम् ।
वैवस्वताख्यं मनुमादधानः क्रोधाद् हयग्रीवमभिद्रुतोऽभूः ॥9॥
स्वतुंगशृंगक्षतवक्षसं तं निपात्य दैत्यं निगमान् गृहीत्वा ।
विरिंचये प्रीतहृदे ददानः प्रभंजनागारपते प्रपायाः ॥10॥
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