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Narayaniyam Dashaka 14 (नारायणीयं दशक 14)
नारायणीयं दशक 14 (Narayaniyam Dashaka 14)
समनुस्मृततावकांघ्रियुग्मः
स मनुः पंकजसंभवांगजन्मा ।
निजमंतरमंतरायहीनं
चरितं ते कथयन् सुखं निनाय ॥1॥
समये खलु तत्र कर्दमाख्यो
द्रुहिणच्छायभवस्तदीयवाचा ।
धृतसर्गरसो निसर्गरम्यं
भगवंस्त्वामयुतं समाः सिषेवे ॥2॥
गरुडोपरि कालमेघक्रमं
विलसत्केलिसरोजपाणिपद्मम् ।
हसितोल्लसिताननं विभो त्वं
वपुराविष्कुरुषे स्म कर्दमाय ॥3॥
स्तुवते पुलकावृताय तस्मै
मनुपुत्रीं दयितां नवापि पुत्रीः ।
कपिलं च सुतं स्वमेव पश्चात्
स्वगतिं चाप्यनुगृह्य निर्गतोऽभूः ॥4॥
स मनुः शतरूपया महिष्या
गुणवत्या सुतया च देवहूत्या ।
भवदीरितनारदोपदिष्टः
समगात् कर्दममागतिप्रतीक्षम् ॥5॥
मनुनोपहृतां च देवहूतिं
तरुणीरत्नमवाप्य कर्दमोऽसौ ।
भवदर्चननिवृतोऽपि तस्यां
दृढशुश्रूषणया दधौ प्रसादम् ॥6॥
स पुनस्त्वदुपासनप्रभावा-
द्दयिताकामकृते कृते विमाने ।
वनिताकुलसंकुलो नवात्मा
व्यहरद्देवपथेषु देवहूत्या ॥7॥
शतवर्षमथ व्यतीत्य सोऽयं
नव कन्याः समवाप्य धन्यरूपाः ।
वनयानसमुद्यतोऽपि कांता-
हितकृत्त्वज्जननोत्सुको न्यवात्सीत् ॥8॥
निजभर्तृगिरा भवन्निषेवा-
निरतायामथ देव देवहूत्याम् ।
कपिलस्त्वमजायथा जनानां
प्रथयिष्यन् परमात्मतत्त्वविद्याम् ॥9॥
वनमेयुषि कर्दमे प्रसन्ने
मतसर्वस्वमुपादिशन् जनन्यै ।
कपिलात्मक वायुमंदिरेश
त्वरितं त्वं परिपाहि मां गदौघात् ॥10॥
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