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Narayaniyam Dashaka 17 (नारायणीयं दशक 17)
नारायणीयं दशक 17 (Narayaniyam Dashaka 17)
उत्तानपादनृपतेर्मनुनंदनस्य
जाया बभूव सुरुचिर्नितरामभीष्टा ।
अन्या सुनीतिरिति भर्तुरनादृता सा
त्वामेव नित्यमगतिः शरणं गताऽभूत् ॥1॥
अंके पितुः सुरुचिपुत्रकमुत्तमं तं
दृष्ट्वा ध्रुवः किल सुनीतिसुतोऽधिरोक्ष्यन् ।
आचिक्षिपे किल शिशुः सुतरां सुरुच्या
दुस्संत्यजा खलु भवद्विमुखैरसूया ॥2॥
त्वन्मोहिते पितरि पश्यति दारवश्ये
दूरं दुरुक्तिनिहतः स गतो निजांबाम् ।
साऽपि स्वकर्मगतिसंतरणाय पुंसां
त्वत्पादमेव शरणं शिशवे शशंस ॥3॥
आकर्ण्य सोऽपि भवदर्चननिश्चितात्मा
मानी निरेत्य नगरात् किल पंचवर्षः ।
संदृष्टनारदनिवेदितमंत्रमार्ग-
स्त्वामारराध तपसा मधुकाननांते ॥4॥
ताते विषण्णहृदये नगरीं गतेन
श्रीनारदेन परिसांत्वितचित्तवृत्तौ ।
बालस्त्वदर्पितमनाः क्रमवर्धितेन
निन्ये कठोरतपसा किल पंचमासान् ॥5॥
तावत्तपोबलनिरुच्छ्-वसिते दिगंते
देवार्थितस्त्वमुदयत्करुणार्द्रचेताः ।
त्वद्रूपचिद्रसनिलीनमतेः पुरस्ता-
दाविर्बभूविथ विभो गरुडाधिरूढः ॥6॥
त्वद्दर्शनप्रमदभारतरंगितं तं
दृग्भ्यां निमग्नमिव रूपरसायने ते ।
तुष्टूषमाणमवगम्य कपोलदेशे
संस्पृष्टवानसि दरेण तथाऽऽदरेण ॥7॥
तावद्विबोधविमलं प्रणुवंतमेन-
माभाषथास्त्वमवगम्य तदीयभावम् ।
राज्यं चिरं समनुभूय भजस्व भूयः
सर्वोत्तरं ध्रुव पदं विनिवृत्तिहीनम् ॥8॥
इत्यूचिषि त्वयि गते नृपनंदनोऽसा-
वानंदिताखिलजनो नगरीमुपेतः ।
रेमे चिरं भवदनुग्रहपूर्णकाम-
स्ताते गते च वनमादृतराज्यभारः ॥9॥
यक्षेण देव निहते पुनरुत्तमेऽस्मिन्
यक्षैः स युद्धनिरतो विरतो मनूक्त्या ।
शांत्या प्रसन्नहृदयाद्धनदादुपेता-
त्त्वद्भक्तिमेव सुदृढामवृणोन्महात्मा ॥10॥
अंते भवत्पुरुषनीतविमानयातो
मात्रा समं ध्रुवपदे मुदितोऽयमास्ते ।
एवं स्वभृत्यजनपालनलोलधीस्त्वं
वातालयाधिप निरुंधि ममामयौघान् ॥11॥
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