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Narayaniyam Dashaka 72 (नारायणीयं दशक 72)
नारायणीयं दशक 72 (Narayaniyam Dashaka 72)
कंसोऽथ नारदगिरा व्रजवासिनं त्वा-
माकर्ण्य दीर्णहृदयः स हि गांदिनेयम् ।
आहूय कार्मुकमखच्छलतो भवंत-
मानेतुमेनमहिनोदहिनाथशायिन् ॥1॥
अक्रूर एष भवदंघ्रिपरश्चिराय
त्वद्दर्शनाक्षममनाः क्षितिपालभीत्या ।
तस्याज्ञयैव पुनरीक्षितुमुद्यतस्त्वा-
मानंदभारमतिभूरितरं बभार ॥2॥
सोऽयं रथेन सुकृती भवतो निवासं
गच्छन् मनोरथगणांस्त्वयि धार्यमाणान् ।
आस्वादयन् मुहुरपायभयेन दैवं
संप्रार्थयन् पथि न किंचिदपि व्यजानात् ॥3॥
द्रक्ष्यामि वेदशतगीतगतिं पुमांसं
स्प्रक्ष्यामि किंस्विदपि नाम परिष्वजेयम् ।
किं वक्ष्यते स खलु मां क्वनु वीक्षितः स्या-
दित्थं निनाय स भवन्मयमेव मार्गम् ॥4॥
भूयः क्रमादभिविशन् भवदंघ्रिपूतं
वृंदावनं हरविरिंचसुराभिवंद्यम् ।
आनंदमग्न इव लग्न इव प्रमोहे
किं किं दशांतरमवाप न पंकजाक्ष ॥5॥
पश्यन्नवंदत भवद्विहृतिस्थलानि
पांसुष्ववेष्टत भवच्चरणांकितेषु ।
किं ब्रूमहे बहुजना हि तदापि जाता
एवं तु भक्तितरला विरलाः परात्मन् ॥6॥
सायं स गोपभवनानि भवच्चरित्र-
गीतामृतप्रसृतकर्णरसायनानि ।
पश्यन् प्रमोदसरितेव किलोह्यमानो
गच्छन् भवद्भवनसन्निधिमन्वयासीत् ॥7॥
तावद्ददर्श पशुदोहविलोकलोलं
भक्तोत्तमागतिमिव प्रतिपालयंतम् ।
भूमन् भवंतमयमग्रजवंतमंत-
र्ब्रह्मानुभूतिरससिंधुमिवोद्वमंतम् ॥8॥
सायंतनाप्लवविशेषविविक्तगात्रौ
द्वौ पीतनीलरुचिरांबरलोभनीयौ ।
नातिप्रपंचधृतभूषणचारुवेषौ
मंदस्मितार्द्रवदनौ स युवां ददर्श ॥9॥
दूराद्रथात्समवरुह्य नमंतमेन-
मुत्थाप्य भक्तकुलमौलिमथोपगूहन् ।
हर्षान्मिताक्षरगिरा कुशलानुयोगी
पाणिं प्रगृह्य सबलोऽथ गृहं निनेथ ॥10॥
नंदेन साकममितादरमर्चयित्वा
तं यादवं तदुदितां निशमय्य वार्ताम् ।
गोपेषु भूपतिनिदेशकथां निवेद्य
नानाकथाभिरिह तेन निशामनैषीः ॥11॥
चंद्रागृहे किमुत चंद्रभगागृहे नु
राधागृहे नु भवने किमु मैत्रविंदे ।
धूर्तो विलंबत इति प्रमदाभिरुच्चै-
राशंकितो निशि मरुत्पुरनाथ पायाः ॥12॥
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