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Narayaniyam Dashaka 31 (नारायणीयं दशक 31)
नारायणीयं दशक 31 (Narayaniyam Dashaka 31)
प्रीत्या दैत्यस्तव तनुमहःप्रेक्षणात् सर्वथाऽपि
त्वामाराध्यन्नजित रचयन्नंजलिं संजगाद ।
मत्तः किं ते समभिलषितं विप्रसूनो वद त्वं
वित्तं भक्तं भवनमवनीं वाऽपि सर्वं प्रदास्ये ॥1॥
तामीक्षणां बलिगिरमुपाकर्ण्य कारुण्यपूर्णोऽ-
प्यस्योत्सेकं शमयितुमना दैत्यवंशं प्रशंसन् ।
भूमिं पादत्रयपरिमितां प्रार्थयामासिथ त्वं
सर्वं देहीति तु निगदिते कस्य हास्यं न वा स्यात् ॥2॥
विश्वेशं मां त्रिपदमिह किं याचसे बालिशस्त्वं
सर्वां भूमिं वृणु किममुनेत्यालपत्त्वां स दृप्यन् ।
यस्माद्दर्पात् त्रिपदपरिपूर्त्यक्षमः क्षेपवादान्
बंधं चासावगमदतदर्होऽपि गाढोपशांत्यै ॥3॥
पादत्रय्या यदि न मुदितो विष्टपैर्नापि तुष्ये-
दित्युक्तेऽस्मिन् वरद भवते दातुकामेऽथ तोयम् ।
दैत्याचार्यस्तव खलु परीक्षार्थिनः प्रेरणात्तं
मा मा देयं हरिरयमिति व्यक्तमेवाबभाषे ॥4॥
याचत्येवं यदि स भगवान् पूर्णकामोऽस्मि सोऽहं
दास्याम्येव स्थिरमिति वदन् काव्यशप्तोऽपि दैत्यः ।
विंध्यावल्या निजदयितया दत्तपाद्याय तुभ्यं
चित्रं चित्रं सकलमपि स प्रार्पयत्तोयपूर्वम् ॥5॥
निस्संदेहं दितिकुलपतौ त्वय्यशेषार्पणं तद्-
व्यातन्वाने मुमुचुः-ऋषयः सामराः पुष्पवर्षम् ।
दिव्यं रूपं तव च तदिदं पश्यतां विश्वभाजा-
मुच्चैरुच्चैरवृधदवधीकृत्य विश्वांडभांडम् ॥6॥
त्वत्पादाग्रं निजपदगतं पुंडरीकोद्भवोऽसौ
कुंडीतोयैरसिचदपुनाद्यज्जलं विश्वलोकान् ।
हर्षोत्कर्षात् सुबहु ननृते खेचरैरुत्सवेऽस्मिन्
भेरीं निघ्नन् भुवनमचरज्जांबवान् भक्तिशाली ॥7॥
तावद्दैत्यास्त्वनुमतिमृते भर्तुरारब्धयुद्धा
देवोपेतैर्भवदनुचरैस्संगता भंगमापन् ।
कालात्माऽयं वसति पुरतो यद्वशात् प्राग्जिताः स्मः
किं वो युद्धैरिति बलिगिरा तेऽथ पातालमापुः ॥8॥
पाशैर्बद्धं पतगपतिना दैत्यमुच्चैरवादी-
स्तार्त्तीयीकं दिश मम पदं किं न विश्वेश्वरोऽसि ।
पादं मूर्ध्नि प्रणय भगवन्नित्यकंपं वदंतं
प्रह्लाद्स्तं स्वयमुपगतो मानयन्नस्तवीत्त्वाम् ॥9॥
दर्पोच्छित्त्यै विहितमखिलं दैत्य सिद्धोऽसि पुण्यै-
र्लोकस्तेऽस्तु त्रिदिवविजयी वासवत्वं च पश्चात् ।
मत्सायुज्यं भज च पुनरित्यन्वगृह्णा बलिं तं
विप्रैस्संतानितमखवरः पाहि वातालयेश ॥10॥
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