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Narayaniyam Dashaka 43 (नारायणीयं दशक 43)
नारायणीयं दशक 43 (Narayaniyam Dashaka 43)
त्वामेकदा गुरुमरुत्पुरनाथ वोढुं
गाढाधिरूढगरिमाणमपारयंती ।
माता निधाय शयने किमिदं बतेति
ध्यायंत्यचेष्टत गृहेषु निविष्टशंका ॥1॥
तावद्विदूरमुपकर्णितघोरघोष-
व्याजृंभिपांसुपटलीपरिपूरिताशः ।
वात्यावपुस्स किल दैत्यवरस्तृणाव-
र्ताख्यो जहार जनमानसहारिणं त्वाम् ॥2॥
उद्दामपांसुतिमिराहतदृष्टिपाते
द्रष्टुं किमप्यकुशले पशुपाललोके ।
हा बालकस्य किमिति त्वदुपांतमाप्ता
माता भवंतमविलोक्य भृशं रुरोद ॥3॥
तावत् स दानववरोऽपि च दीनमूर्ति-
र्भावत्कभारपरिधारणलूनवेगः ।
संकोचमाप तदनु क्षतपांसुघोषे
घोषे व्यतायत भवज्जननीनिनादः ॥4॥
रोदोपकर्णनवशादुपगम्य गेहं
क्रंदत्सु नंदमुखगोपकुलेषु दीनः ।
त्वां दानवस्त्वखिलमुक्तिकरं मुमुक्षु-
स्त्वय्यप्रमुंचति पपात वियत्प्रदेशात् ॥5॥
रोदाकुलास्तदनु गोपगणा बहिष्ठ-
पाषाणपृष्ठभुवि देहमतिस्थविष्ठम् ।
प्रैक्षंत हंत निपतंतममुष्य वक्ष-
स्यक्षीणमेव च भवंतमलं हसंतम् ॥6॥
ग्रावप्रपातपरिपिष्टगरिष्ठदेह-
भ्रष्टासुदुष्टदनुजोपरि धृष्टहासम् ।
आघ्नानमंबुजकरेण भवंतमेत्य
गोपा दधुर्गिरिवरादिव नीलरत्नम् ॥7॥
एकैकमाशु परिगृह्य निकामनंद-
न्नंदादिगोपपरिरब्धविचुंबितांगम् ।
आदातुकामपरिशंकितगोपनारी-
हस्तांबुजप्रपतितं प्रणुमो भवंतम् ॥8॥
भूयोऽपि किन्नु कृणुमः प्रणतार्तिहारी
गोविंद एव परिपालयतात् सुतं नः ।
इत्यादि मातरपितृप्रमुखैस्तदानीं
संप्रार्थितस्त्वदवनाय विभो त्वमेव ॥9॥
वातात्मकं दनुजमेवमयि प्रधून्वन्
वातोद्भवान् मम गदान् किमु नो धुनोषि ।
किं वा करोमि पुनरप्यनिलालयेश
निश्शेषरोगशमनं मुहुरर्थये त्वाम् ॥10॥
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