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Narayaniyam Dashaka 95 (नारायणीयं दशक 95)
नारायणीयं दशक 95 (Narayaniyam Dashaka 95)
आदौ हैरण्यगर्भीं तनुमविकलजीवात्मिकामास्थितस्त्वं
जीवत्वं प्राप्य मायागुणगणखचितो वर्तसे विश्वयोने ।
तत्रोद्वृद्धेन सत्त्वेन तु गुणयुगलं भक्तिभावं गतेन
छित्वा सत्त्वं च हित्वा पुनरनुपहितो वर्तिताहे त्वमेव ॥1॥
सत्त्वोन्मेषात् कदाचित् खलु विषयरसे दोषबोधेऽपि भूमन्
भूयोऽप्येषु प्रवृत्तिस्सतमसि रजसि प्रोद्धते दुर्निवारा ।
चित्तं तावद्गुणाश्च ग्रथितमिह मिथस्तानि सर्वाणि रोद्धुं
तुर्ये त्वय्येकभक्तिश्शरणमिति भवान् हंसरूपी न्यगादीत् ॥2॥
संति श्रेयांसि भूयांस्यपि रुचिभिदया कर्मिणां निर्मितानि
क्षुद्रानंदाश्च सांता बहुविधगतयः कृष्ण तेभ्यो भवेयुः ।
त्वं चाचख्याथ सख्ये ननु महिततमां श्रेयसां भक्तिमेकां
त्वद्भक्त्यानंदतुल्यः खलु विषयजुषां सम्मदः केन वा स्यात् ॥3॥
त्वत्भक्त्या तुष्टबुद्धेः सुखमिह चरतो विच्युताशस्य चाशाः
सर्वाः स्युः सौख्यमय्यः सलिलकुहरगस्येव तोयैकमय्यः ।
सोऽयं खल्विंद्रलोकं कमलजभवनं योगसिद्धीश्च हृद्याः
नाकांक्षत्येतदास्तां स्वयमनुपतिते मोक्षसौख्येऽप्यनीहः ॥4॥
त्वद्भक्तो बाध्यमानोऽपि च विषयरसैरिंद्रियाशांतिहेतो-
र्भक्त्यैवाक्रम्यमाणैः पुनरपि खलु तैर्दुर्बलैर्नाभिजय्यः ।
सप्तार्चिर्दीपितार्चिर्दहति किल यथा भूरिदारुप्रपंचं
त्वद्भक्त्योघे तथैव प्रदहति दुरितं दुर्मदः क्वेंद्रियाणाम् ॥5॥
चित्तार्द्रीभावमुच्चैर्वपुषि च पुलकं हर्षवाष्पं च हित्वा
चित्तं शुद्ध्येत्कथं वा किमु बहुतपसा विद्यया वीतभक्तेः ।
त्वद्गाथास्वादसिद्धांजनसततमरीमृज्यमानोऽयमात्मा
चक्षुर्वत्तत्त्वसूक्ष्मं भजति न तु तथाऽभ्यस्तया तर्ककोट्या॥6॥
ध्यानं ते शीलयेयं समतनुसुखबद्धासनो नासिकाग्र-
न्यस्ताक्षः पूरकाद्यैर्जितपवनपथश्चित्तपद्मं त्ववांचम्।
ऊर्ध्वाग्रं भावयित्वा रविविधुशिखिनः संविचिंत्योपरिष्टात्
तत्रस्थं भावये त्वां सजलजलधरश्यामलं कोमलांगम् ॥7॥
आनीलश्लक्ष्णकेशं ज्वलितमकरसत्कुंडलं मंदहास-
स्यंदार्द्रं कौस्तुभश्रीपरिगतवनमालोरुहाराभिरामम् ।
श्रीवत्सांकं सुबाहुं मृदुलसदुदरं कांचनच्छायचेलं
चारुस्निग्धोरुमंभोरुहललितपदं भावयेऽहं भवंतम् ॥8॥
सर्वांगेष्वंग रंगत्कुतुकमिति मुहुर्धारयन्नीश चित्तं
तत्राप्येकत्र युंजे वदनसरसिजे सुंदरे मंदहासे
तत्रालीनं तु चेतः परमसुखचिदद्वैतरूपे वितन्व-
न्नन्यन्नो चिंतयेयं मुहुरिति समुपारूढयोगो भवेयम् ॥9॥
इत्थं त्वद्ध्यानयोगे सति पुनरणिमाद्यष्टसंसिद्धयस्ताः
दूरश्रुत्यादयोऽपि ह्यहमहमिकया संपतेयुर्मुरारे ।
त्वत्संप्राप्तौ विलंबावहमखिलमिदं नाद्रिये कामयेऽहं
त्वामेवानंदपूर्णं पवनपुरपते पाहि मां सर्वतापात् ॥10॥
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