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Narayaniyam Dashaka 35 (नारायणीयं दशक 35)
नारायणीयं दशक 35 (Narayaniyam Dashaka 35)
नीतस्सुग्रीवमैत्रीं तदनु हनुमता दुंदुभेः कायमुच्चैः
क्षिप्त्वांगुष्ठेन भूयो लुलुविथ युगपत् पत्रिणा सप्त सालान् ।
हत्वा सुग्रीवघातोद्यतमतुलबलं बालिनं व्याजवृत्त्या
वर्षावेलामनैषीर्विरहतरलितस्त्वं मतंगाश्रमांते ॥1॥
सुग्रीवेणानुजोक्त्या सभयमभियता व्यूहितां वाहिनीं ता-
मृक्षाणां वीक्ष्य दिक्षु द्रुतमथ दयितामार्गणायावनम्राम् ।
संदेशं चांगुलीयं पवनसुतकरे प्रादिशो मोदशाली
मार्गे मार्गे ममार्गे कपिभिरपि तदा त्वत्प्रिया सप्रयासैः ॥2॥
त्वद्वार्ताकर्णनोद्यद्गरुदुरुजवसंपातिसंपातिवाक्य-
प्रोत्तीर्णार्णोधिरंतर्नगरि जनकजां वीक्ष्य दत्वांगुलीयम् ।
प्रक्षुद्योद्यानमक्षक्षपणचणरणः सोढबंधो दशास्यं
दृष्ट्वा प्लुष्ट्वा च लंकां झटिति स हनुमान् मौलिरत्नं ददौ ते ॥3॥
त्वं सुग्रीवांगदादिप्रबलकपिचमूचक्रविक्रांतभूमी-
चक्रोऽभिक्रम्य पारेजलधि निशिचरेंद्रानुजाश्रीयमाणः ।
तत्प्रोक्तां शत्रुवार्तां रहसि निशमयन् प्रार्थनापार्थ्यरोष-
प्रास्ताग्नेयास्त्रतेजस्त्रसदुदधिगिरा लब्धवान् मध्यमार्गम् ॥4॥
कीशैराशांतरोपाहृतगिरिनिकरैः सेतुमाधाप्य यातो
यातून्यामर्द्य दंष्ट्रानखशिखरिशिलासालशस्त्रैः स्वसैन्यैः ।
व्याकुर्वन् सानुजस्त्वं समरभुवि परं विक्रमं शक्रजेत्रा
वेगान्नागास्त्रबद्धः पतगपतिगरुन्मारुतैर्मोचितोऽभूः ॥5॥
सौमित्रिस्त्वत्र शक्तिप्रहृतिगलदसुर्वातजानीतशैल-
घ्राणात् प्राणानुपेतो व्यकृणुत कुसृतिश्लाघिनं मेघनादम् ।
मायाक्षोभेषु वैभीषणवचनहृतस्तंभनः कुंभकर्णं
संप्राप्तं कंपितोर्वीतलमखिलचमूभक्षिणं व्यक्षिणोस्त्वम् ॥6॥
गृह्णन् जंभारिसंप्रेषितरथकवचौ रावणेनाभियुद्ध्यन्
ब्रह्मास्त्रेणास्य भिंदन् गलततिमबलामग्निशुद्धां प्रगृह्णन् ।
देवश्रेणीवरोज्जीवितसमरमृतैरक्षतैः ऋक्षसंघै-
र्लंकाभर्त्रा च साकं निजनगरमगाः सप्रियः पुष्पकेण ॥7॥
प्रीतो दिव्याभिषेकैरयुतसमधिकान् वत्सरान् पर्यरंसी-
र्मैथिल्यां पापवाचा शिव! शिव! किल तां गर्भिणीमभ्यहासीः ।
शत्रुघ्नेनार्दयित्वा लवणनिशिचरं प्रार्दयः शूद्रपाशं
तावद्वाल्मीकिगेहे कृतवसतिरुपासूत सीता सुतौ ते ॥8॥
वाल्मीकेस्त्वत्सुतोद्गापितमधुरकृतेराज्ञया यज्ञवाटे
सीतां त्वय्याप्तुकामे क्षितिमविशदसौ त्वं च कालार्थितोऽभूः ।
हेतोः सौमित्रिघाती स्वयमथ सरयूमग्ननिश्शेषभृत्यैः
साकं नाकं प्रयातो निजपदमगमो देव वैकुंठमाद्यम् ॥9॥
सोऽयं मर्त्यावतारस्तव खलु नियतं मर्त्यशिक्षार्थमेवं
विश्लेषार्तिर्निरागस्त्यजनमपि भवेत् कामधर्मातिसक्त्या ।
नो चेत् स्वात्मानुभूतेः क्व नु तव मनसो विक्रिया चक्रपाणे
स त्वं सत्त्वैकमूर्ते पवनपुरपते व्याधुनु व्याधितापान् ॥10॥
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