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Narayaniyam Dashaka 96 (नारायणीयं दशक 96)
नारायणीयं दशक 96 (Narayaniyam Dashaka 96)
त्वं हि ब्रह्मैव साक्षात् परमुरुमहिमन्नक्षराणामकार-
स्तारो मंत्रेषु राज्ञां मनुरसि मुनिषु त्वं भृगुर्नारदोऽपि ।
प्रह्लादो दानवानां पशुषु च सुरभिः पक्षिणां वैनतेयो
नागानामस्यनंतस्सुरसरिदपि च स्रोतसां विश्वमूर्ते ॥1॥
ब्रह्मण्यानां बलिस्त्वं क्रतुषु च जपयज्ञोऽसि वीरेषु पार्थो
भक्तानामुद्धवस्त्वं बलमसि बलिनां धाम तेजस्विनां त्वम् ।
नास्त्यंतस्त्वद्विभूतेर्विकसदतिशयं वस्तु सर्वं त्वमेव
त्वं जीवस्त्वं प्रधानं यदिह भवदृते तन्न किंचित् प्रपंचे ॥2॥
धर्मं वर्णाश्रमाणां श्रुतिपथविहितं त्वत्परत्वेन भक्त्या
कुर्वंतोऽंतर्विरागे विकसति शनकैः संत्यजंतो लभंते ।
सत्तास्फूर्तिप्रियत्वात्मकमखिलपदार्थेषु भिन्नेष्वभिन्नं
निर्मूलं विश्वमूलं परममहमिति त्वद्विबोधं विशुद्धम् ॥3॥
ज्ञानं कर्मापि भक्तिस्त्रितयमिह भवत्प्रापकं तत्र ताव-
न्निर्विण्णानामशेषे विषय इह भवेत् ज्ञानयोगेऽधिकारः ।
सक्तानां कर्मयोगस्त्वयि हि विनिहितो ये तु नात्यंतसक्ताः
नाप्यत्यंतं विरक्तास्त्वयि च धृतरसा भक्तियोगो ह्यमीषाम् ॥4॥
ज्ञानं त्वद्भक्ततां वा लघु सुकृतवशान्मर्त्यलोके लभंते
तस्मात्तत्रैव जन्म स्पृहयति भगवन् नाकगो नारको वा ।
आविष्टं मां तु दैवाद्भवजलनिधिपोतायिते मर्त्यदेहे
त्वं कृत्वा कर्णधारं गुरुमनुगुणवातायितस्तारयेथाः ॥5॥
अव्यक्तं मार्गयंतः श्रुतिभिरपि नयैः केवलज्ञानलुब्धाः
क्लिश्यंतेऽतीव सिद्धिं बहुतरजनुषामंत एवाप्नुवंति ।
दूरस्थः कर्मयोगोऽपि च परमफले नन्वयं भक्तियोग-
स्त्वामूलादेव हृद्यस्त्वरितमयि भवत्प्रापको वर्धतां मे ॥6॥
ज्ञानायैवातियत्नं मुनिरपवदते ब्रह्मतत्त्वं तु शृण्वन्
गाढं त्वत्पादभक्तिं शरणमयति यस्तस्य मुक्तिः कराग्रे ।
त्वद्ध्यानेऽपीह तुल्या पुनरसुकरता चित्तचांचल्यहेतो-
रभ्यासादाशु शक्यं तदपि वशयितुं त्वत्कृपाचारुताभ्याम् ॥7॥
निर्विण्णः कर्ममार्गे खलु विषमतमे त्वत्कथादौ च गाढं
जातश्रद्धोऽपि कामानयि भुवनपते नैव शक्नोमि हातुम् ।
तद्भूयो निश्चयेन त्वयि निहितमना दोषबुद्ध्या भजंस्तान्
पुष्णीयां भक्तिमेव त्वयि हृदयगते मंक्षु नंक्ष्यंति संगाः ॥8॥
कश्चित् क्लेशार्जितार्थक्षयविमलमतिर्नुद्यमानो जनौघैः
प्रागेवं प्राह विप्रो न खलु मम जनः कालकर्मग्रहा वा।
चेतो मे दुःखहेतुस्तदिह गुणगणं भावयत्सर्वकारी-
त्युक्त्वा शांतो गतस्त्वां मम च कुरु विभो तादृशी चित्तशांतिम् ॥9॥
ऐलः प्रागुर्वशीं प्रत्यतिविवशमनाः सेवमानश्चिरं तां
गाढं निर्विद्य भूयो युवतिसुखमिदं क्षुद्रमेवेति गायन् ।
त्वद्भक्तिं प्राप्य पूर्णः सुखतरमचरत्तद्वदुद्धूतसंगं
भक्तोत्तंसं क्रिया मां पवनपुरपते हंत मे रुंधि रोगान् ॥10॥
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