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Narayaniyam Dashaka 97 (नारायणीयं दशक 97)
नारायणीयं दशक 97 (Narayaniyam Dashaka 97)
त्रैगुण्याद्भिन्नरूपं भवति हि भुवने हीनमध्योत्तमं यत्
ज्ञानं श्रद्धा च कर्ता वसतिरपि सुखं कर्म चाहारभेदाः ।
त्वत्क्षेत्रत्वन्निषेवादि तु यदिह पुनस्त्वत्परं तत्तु सर्वं
प्राहुर्नैगुण्यनिष्ठं तदनुभजनतो मंक्षु सिद्धो भवेयम् ॥1॥
त्वय्येव न्यस्तचित्तः सुखमयि विचरन् सर्वचेष्टास्त्वदर्थं
त्वद्भक्तैः सेव्यमानानपि चरितचरानाश्रयन् पुण्यदेशान् ।
दस्यौ विप्रे मृगादिष्वपि च सममतिर्मुच्यमानावमान-
स्पर्धासूयादिदोषः सततमखिलभूतेषु संपूजये त्वाम् ॥2॥
त्वद्भावो यावदेषु स्फुरति न विशदं तावदेवं ह्युपास्तिं
कुर्वन्नैकात्म्यबोधे झटिति विकसति त्वन्मयोऽहं चरेयम् ।
त्वद्धर्मस्यास्य तावत् किमपि न भगवन् प्रस्तुतस्य प्रणाश-
स्तस्मात्सर्वात्मनैव प्रदिश मम विभो भक्तिमार्गं मनोज्ञम् ॥3॥
तं चैनं भक्तियोगं द्रढयितुमयि मे साध्यमारोग्यमायु-
र्दिष्ट्या तत्रापि सेव्यं तव चरणमहो भेषजायेव दुग्धम् ।
मार्कंडेयो हि पूर्वं गणकनिगदितद्वादशाब्दायुरुच्चैः
सेवित्वा वत्सरं त्वां तव भटनिवहैर्द्रावयामास मृत्युम् ॥4॥
मार्कंडेयश्चिरायुः स खलु पुनरपि त्वत्परः पुष्पभद्रा-
तीरे निन्ये तपस्यन्नतुलसुखरतिः षट् तु मन्वंतराणि ।
देवेंद्रः सप्तमस्तं सुरयुवतिमरुन्मन्मथैर्मोहयिष्यन्
योगोष्मप्लुष्यमाणैर्न तु पुनरशकत्त्वज्जनं निर्जयेत् कः ॥5॥
प्रीत्या नारायणाख्यस्त्वमथ नरसखः प्राप्तवानस्य पार्श्वं
तुष्ट्या तोष्टूयमानः स तु विविधवरैर्लोभितो नानुमेने ।
द्रष्टुं माय़आं त्वदीयां किल पुनरवृणोद्भक्तितृप्तांतरात्मा
मायादुःखानभिज्ञस्तदपि मृगयते नूनमाश्चर्यहेतोः ॥6॥
याते त्वय्याशु वाताकुलजलदगलत्तोयपूर्णातिघूर्णत्-
सप्तार्णोराशिमग्ने जगति स तु जले संभ्रमन् वर्षकोटीः ।
दीनः प्रैक्षिष्ट दूरे वटदलशयनं कंचिदाश्चर्यबालं
त्वामेव श्यामलांगं वदनसरसिजन्यस्तपादांगुलीकम् ॥7॥
दृष्ट्वा त्वां हृष्टरोमा त्वरितमुपगतः स्प्रष्टुकामो मुनींद्रः
श्वासेनांतर्निविष्टः पुनरिह सकलं दृष्टवान् विष्टपौघम् ।
भूयोऽपि श्वासवातैर्बहिरनुपतितो वीक्षितस्त्वत्कटाक्षै-
र्मोदादाश्लेष्टुकामस्त्वयि पिहिततनौ स्वाश्रमे प्राग्वदासीत् ॥8॥
गौर्या सार्धं तदग्रे पुरभिदथ गतस्त्वत्प्रियप्रेक्षणार्थी
सिद्धानेवास्य दत्वा स्वयमयमजरामृत्युतादीन् गतोऽभूत् ।
एवं त्वत्सेवयैव स्मररिपुरपि स प्रीयते येन तस्मा-
न्मूर्तित्रय्यात्मकस्त्वं ननु सकलनियंतेति सुव्यक्तमासीत् ॥9॥
त्र्यंशेस्मिन् सत्यलोके विधिहरिपुरभिन्मंदिराण्यूर्ध्वमूर्ध्वं
तेभोऽप्यूर्ध्वं तु मायाविकृतिविरहितो भाति वैकुंठलोकः ।
तत्र त्वं कारणांभस्यपि पशुपकुले शुद्धसत्त्वैकरूपी
सच्चित्ब्रह्माद्वयात्मा पवनपुरपते पाहि मां सर्वरोगात् ॥10॥
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