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Narayaniyam Dashaka 50 (नारायणीयं दशक 50)
नारायणीयं दशक 50 (Narayaniyam Dashaka 50)
तरलमधुकृत् वृंदे वृंदावनेऽथ मनोहरे
पशुपशिशुभिः साकं वत्सानुपालनलोलुपः ।
हलधरसखो देव श्रीमन् विचेरिथ धारयन्
गवलमुरलीवेत्रं नेत्राभिरामतनुद्युतिः ॥1॥
विहितजगतीरक्षं लक्ष्मीकरांबुजलालितं
ददति चरणद्वंद्वं वृंदावने त्वयि पावने ।
किमिव न बभौ संपत्संपूरितं तरुवल्लरी-
सलिलधरणीगोत्रक्षेत्रादिकं कमलापते ॥2॥
विलसदुलपे कांतारांते समीरणशीतले
विपुलयमुनातीरे गोवर्धनाचलमूर्धसु ।
ललितमुरलीनादः संचारयन् खलु वात्सकं
क्वचन दिवसे दैत्यं वत्साकृतिं त्वमुदैक्षथाः ॥3॥
रभसविलसत्पुच्छं विच्छायतोऽस्य विलोकयन्
किमपि वलितस्कंधं रंध्रप्रतीक्षमुदीक्षितम् ।
तमथ चरणे बिभ्रद्विभ्रामयन् मुहुरुच्चकैः
कुहचन महावृक्षे चिक्षेपिथ क्षतजीवितम् ॥4॥
निपतति महादैत्ये जात्या दुरात्मनि तत्क्षणं
निपतनजवक्षुण्णक्षोणीरुहक्षतकानने ।
दिवि परिमिलत् वृंदा वृंदारकाः कुसुमोत्करैः
शिरसि भवतो हर्षाद्वर्षंति नाम तदा हरे ॥5॥
सुरभिलतमा मूर्धन्यूर्ध्वं कुतः कुसुमावली
निपतति तवेत्युक्तो बालैः सहेलमुदैरयः ।
झटिति दनुजक्षेपेणोर्ध्वं गतस्तरुमंडलात्
कुसुमनिकरः सोऽयं नूनं समेति शनैरिति ॥6॥
क्वचन दिवसे भूयो भूयस्तरे परुषातपे
तपनतनयापाथः पातुं गता भवदादयः ।
चलितगरुतं प्रेक्षामासुर्बकं खलु विस्म्रृतं
क्षितिधरगरुच्छेदे कैलासशैलमिवापरम् ॥7॥
पिबति सलिलं गोपव्राते भवंतमभिद्रुतः
स किल निगिलन्नग्निप्रख्यं पुनर्द्रुतमुद्वमन् ।
दलयितुमगात्त्रोट्याः कोट्या तदाऽऽशु भवान् विभो
खलजनभिदाचुंचुश्चंचू प्रगृह्य ददार तम् ॥8॥
सपदि सहजां संद्रष्टुं वा मृतां खलु पूतना-
मनुजमघमप्यग्रे गत्वा प्रतीक्षितुमेव वा ।
शमननिलयं याते तस्मिन् बके सुमनोगणे
किरति सुमनोवृंदं वृंदावनात् गृहमैयथाः ॥9॥
ललितमुरलीनादं दूरान्निशम्य वधूजनै-
स्त्वरितमुपगम्यारादारूढमोदमुदीक्षितः ।
जनितजननीनंदानंदः समीरणमंदिर-
प्रथितवसते शौरे दूरीकुरुष्व ममामयान् ॥10॥
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