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Narayaniyam Dashaka 88 (नारायणीयं दशक 88)
नारायणीयं दशक 88 (Narayaniyam Dashaka 88)
प्रागेवाचार्यपुत्राहृतिनिशमनया स्वीयषट्सूनुवीक्षां
कांक्षंत्या मातुरुक्त्या सुतलभुवि बलिं प्राप्य तेनार्चितस्त्वम् ।
धातुः शापाद्धिरण्यान्वितकशिपुभवान् शौरिजान् कंसभग्ना-
नानीयैनान् प्रदर्श्य स्वपदमनयथाः पूर्वपुत्रान् मरीचेः ॥1॥
श्रुतदेव इति श्रुतं द्विजेंद्रं
बहुलाश्वं नृपतिं च भक्तिपूर्णम् ।
युगपत्त्वमनुग्रहीतुकामो
मिथिलां प्रापिथं तापसैः समेतः ॥2॥
गच्छन् द्विमूर्तिरुभयोर्युगपन्निकेत-
मेकेन भूरिविभवैर्विहितोपचारः ।
अन्येन तद्दिनभृतैश्च फलौदनाद्यै-
स्तुल्यं प्रसेदिथ ददथ च मुक्तिमाभ्याम् ॥3॥
भूयोऽथ द्वारवत्यां द्विजतनयमृतिं तत्प्रलापानपि त्वम्
को वा दैवं निरुंध्यादिति किल कथयन् विश्ववोढाप्यसोढाः ।
जिष्णोर्गर्वं विनेतुं त्वयि मनुजधिया कुंठितां चास्य बुद्धिं
तत्त्वारूढां विधातुं परमतमपदप्रेक्षणेनेति मन्ये ॥4॥
नष्टा अष्टास्य पुत्राः पुनरपि तव तूपेक्षया कष्टवादः
स्पष्टो जातो जनानामथ तदवसरे द्वारकामाप पार्थः ।
मैत्र्या तत्रोषितोऽसौ नवमसुतमृतौ विप्रवर्यप्ररोदं
श्रुत्वा चक्रे प्रतिज्ञामनुपहृतसुतः सन्निवेक्ष्ये कृशानुम् ॥5॥
मानी स त्वामपृष्ट्वा द्विजनिलयगतो बाणजालैर्महास्त्रै
रुंधानः सूतिगेहं पुनरपि सहसा दृष्टनष्टे कुमारे ।
याम्यामैंद्रीं तथाऽन्याः सुरवरनगरीर्विद्ययाऽऽसाद्य सद्यो
मोघोद्योगः पतिष्यन् हुतभुजि भवता सस्मितं वारितोऽभूत् ॥6॥
सार्धं तेन प्रतीचीं दिशमतिजविना स्यंदनेनाभियातो
लोकालोकं व्यतीतस्तिमिरभरमथो चक्रधाम्ना निरुंधन् ।
चक्रांशुक्लिष्टदृष्टिं स्थितमथ विजयं पश्य पश्येति वारां
पारे त्वं प्राददर्शः किमपि हि तमसां दूरदूरं पदं ते ॥7॥
तत्रासीनं भुजंगाधिपशयनतले दिव्यभूषायुधाद्यै-
रावीतं पीतचेलं प्रतिनवजलदश्यामलं श्रीमदंगम् ।
मूर्तीनामीशितारं परमिह तिसृणामेकमर्थं श्रुतीनां
त्वामेव त्वं परात्मन् प्रियसखसहितो नेमिथ क्षेमरूपम् ॥8॥
युवां मामेव द्वावधिकविवृतांतर्हिततया
विभिन्नौ संद्रष्टुं स्वयमहमहार्षं द्विजसुतान् ।
नयेतं द्रागेतानिति खलु वितीर्णान् पुनरमून्
द्विजायादायादाः प्रणुतमहिमा पांडुजनुषा ॥9॥
एवं नानाविहारैर्जगदभिरमयन् वृष्णिवंशं प्रपुष्ण-
न्नीजानो यज्ञभेदैरतुलविहृतिभिः प्रीणयन्नेणनेत्राः ।
भूभारक्षेपदंभात् पदकमलजुषां मोक्षणायावतीर्णः
पूर्णं ब्रह्मैव साक्षाद्यदुषु मनुजतारूषितस्त्वं व्यलासीः ॥10॥
प्रायेण द्वारवत्यामवृतदयि तदा नारदस्त्वद्रसार्द्र-
स्तस्माल्लेभे कदाचित्खलु सुकृतनिधिस्त्वत्पिता तत्त्वबोधम् ।
भक्तानामग्रयायी स च खलु मतिमानुद्धवस्त्वत्त एव
प्राप्तो विज्ञानसारं स किल जनहितायाधुनाऽऽस्ते बदर्याम् ॥11॥
सोऽयं कृष्णावतारो जयति तव विभो यत्र सौहार्दभीति-
स्नेहद्वेषानुरागप्रभृतिभिरतुलैरश्रमैर्योगभेदैः ।
आर्तिं तीर्त्वा समस्ताममृतपदमगुस्सर्वतः सर्वलोकाः
स त्वं विश्वार्तिशांत्यै पवनपुरपते भक्तिपूर्त्यै च भूयाः ॥12॥
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Shri Deenbandhu Ashtakam (श्री दीनबन्धु अष्टकम्)
Shri Deenbandhu Ashtakam (श्री दीनबन्धु अष्टकम्): श्री दीनबंधु अष्टकम् का नियमित पाठ करने से सभी दुख, दरिद्रता आदि दूर हो जाते हैं। सुख और समृद्धि की प्राप्ति होती है। श्री दीनबंधु अष्टकम् को किसी भी शुक्ल पक्ष की पंचमी से शुरू करके अगले शुक्ल पक्ष तक प्रत्येक दिन चार मण्यों के साथ तुलसी की माला से दीप जलाकर करना चाहिए। दीनबंधु वह अष्टक है जो गरीबों की नम्रता को हराता है। इस स्तोत्र का पाठ तुलसी की माला से दीप जलाकर और अगले चंद्र मास के शुक्ल पक्ष से प्रारंभ करने से सभी प्रकार के दुख, दरिद्रता, और दुःख समाप्त होते हैं और हर प्रकार की सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है। श्री दीनबंधु अष्टकम् उन भक्तों के लिए है जिन्होंने प्रपत्ति की है और प्रपन्न बन गए हैं, और साथ ही उन लोगों के लिए भी जो प्रपत्ति की इच्छा रखते हैं। भगवान की त्वरा (जल्दी से मदद करने की क्षमता) का उल्लेख पहले और आखिरी श्लोकों में किया गया है, जो संकट में फंसे लोगों की रक्षा के लिए है। इस अष्टकम् में, रचनाकार भगवान के ऐश्वर्य, मोक्ष-प्रदाता होने, आदि का उल्लेख करते हुए हमें भगवान के पास जाने की प्रेरणा देते हैं, और बताते हैं कि भगवान के अलावा किसी और से मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। यह एक ऐसा अष्टकम् है जिसमें पूर्ण आत्मसमर्पण (प्रपत्ति) और इसके प्रभाव को बहुत संक्षेप में आठ श्लोकों में प्रस्तुत किया गया है। पहले श्लोक में, रचनाकार हमारे जीवन की तुलना उस व्यक्ति से करते हैं जिसे हमारी इंद्रियां चारों ओर से हमला कर रही हैं और जो उन्हें अपनी ओर खींच रही हैं, जैसे कि वह किसी जंगली मगरमच्छ द्वारा खींचा जा रहा हो, और भगवान की कृपा और रक्षा की प्रार्थना करते हैं। दूसरे श्लोक में, रचनाकार हमें यह महसूस करने की आवश्यकता बताते हैं कि हम हमेशा भगवान के निर्भर हैं और हम उनसे स्वतंत्र नहीं हैं। यह प्रपत्ति के अंगों में से एक अंग है – कर्पण्य। जब हम प्रपत्ति के अंगों का पालन करते हैं, तब भगवान हमें अपने चरणों में समर्पण करने की इच्छा देते हैं, जो भगवान को प्राप्त करने का अगला कदम है। तीसरे श्लोक में, रचनाकार भगवान की महानता का गुणगान करते हैं, जो निम्नतम प्राणियों के साथ भी सहजता से मिल जाते हैं। हम सभी उनके द्वारा दी गई पाड़ा-पूजा की याद कर सकते हैं, जिसमें महालक्ष्मी जल का कलश लेकर उनके चरणों की पूजा करती हैं और फिर उस जल को भगवान और महालक्ष्मी के सिर पर छिड़कती हैं। इस प्रकार, प्रत्येक श्लोक में दीनबंधु की महानता का वर्णन किया गया है और इसके पाठ के प्रभावों का भी उल्लेख किया गया है।Ashtakam
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Shri Hari Stotram (श्री हरि स्तोत्रम्)
Shri Hari Stotram भगवान Vishnu की divine glory और supreme power का गुणगान करने वाला एक sacred hymn है। यह holy chant उनके infinite mercy, protection, और grace का वर्णन करता है। इस stotra के पाठ से negative energy दूर होती है और spiritual growth बढ़ती है। भक्तों को peace, prosperity, और divine blessings प्राप्त होते हैं। यह powerful mantra भगवान Hari की bhakti को गहरा करता है और karma व moksha की प्राप्ति में सहायक होता है। Shri Hari Stotram का जाप करने से जीवन में positivity और harmony आती है।Stotra