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Narayaniyam Dashaka 33 (नारायणीयं दशक 33)
नारायणीयं दशक 33 (Narayaniyam Dashaka 33)
वैवस्वताख्यमनुपुत्रनभागजात-
नाभागनामकनरेंद्रसुतोऽंबरीषः ।
सप्तार्णवावृतमहीदयितोऽपि रेमे
त्वत्संगिषु त्वयि च मग्नमनास्सदैव ॥1॥
त्वत्प्रीतये सकलमेव वितन्वतोऽस्य
भक्त्यैव देव नचिरादभृथाः प्रसादम् ।
येनास्य याचनमृतेऽप्यभिरक्षणार्थं
चक्रं भवान् प्रविततार सहस्रधारम् ॥2॥
स द्वादशीव्रतमथो भवदर्चनार्थं
वर्षं दधौ मधुवने यमुनोपकंठे ।
पत्न्या समं सुमनसा महतीं वितन्वन्
पूजां द्विजेषु विसृजन् पशुषष्टिकोटिम् ॥3॥
तत्राथ पारणदिने भवदर्चनांते
दुर्वाससाऽस्य मुनिना भवनं प्रपेदे ।
भोक्तुं वृतश्चस नृपेण परार्तिशीलो
मंदं जगाम यमुनां नियमान्विधास्यन् ॥4॥
राज्ञाऽथ पारणमुहूर्तसमाप्तिखेदा-
द्वारैव पारणमकारि भवत्परेण ।
प्राप्तो मुनिस्तदथ दिव्यदृशा विजानन्
क्षिप्यन् क्रुधोद्धृतजटो विततान कृत्याम् ॥5॥
कृत्यां च तामसिधरां भुवनं दहंती-
मग्रेऽभिवीक्ष्यनृपतिर्न पदाच्चकंपे ।
त्वद्भक्तबाधमभिवीक्ष्य सुदर्शनं ते
कृत्यानलं शलभयन् मुनिमन्वधावीत् ॥6॥
धावन्नशेषभुवनेषु भिया स पश्यन्
विश्वत्र चक्रमपि ते गतवान् विरिंचम् ।
कः कालचक्रमतिलंघयतीत्यपास्तः
शर्वं ययौ स च भवंतमवंदतैव ॥7॥
भूयो भवन्निलयमेत्य मुनिं नमंतं
प्रोचे भवानहमृषे ननु भक्तदासः ।
ज्ञानं तपश्च विनयान्वितमेव मान्यं
याह्यंबरीषपदमेव भजेति भूमन् ॥8॥
तावत्समेत्य मुनिना स गृहीतपादो
राजाऽपसृत्य भवदस्त्रमसावनौषीत् ।
चक्रे गते मुनिरदादखिलाशिषोऽस्मै
त्वद्भक्तिमागसि कृतेऽपि कृपां च शंसन् ॥9॥
राजा प्रतीक्ष्य मुनिमेकसमामनाश्वान्
संभोज्य साधु तमृषिं विसृजन् प्रसन्नम् ।
भुक्त्वा स्वयं त्वयि ततोऽपि दृढं रतोऽभू-
त्सायुज्यमाप च स मां पवनेश पायाः ॥10॥
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