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Narayaniyam Dashaka 8 (नारायणीयं दशक 8)
नारायणीयं दशक 8 (Narayaniyam Dashaka 8)
एवं तावत् प्राकृतप्रक्षयांते
ब्राह्मे कल्पे ह्यादिमे लब्धजन्मा ।
ब्रह्मा भूयस्त्वत्त एवाप्य वेदान्
सृष्टिं चक्रे पूर्वकल्पोपमानाम् ॥1॥
सोऽयं चतुर्युगसहस्रमितान्यहानि
तावन्मिताश्च रजनीर्बहुशो निनाय ।
निद्रात्यसौ त्वयि निलीय समं स्वसृष्टै-
र्नैमित्तिकप्रलयमाहुरतोऽस्य रात्रिम् ॥2॥
अस्मादृशां पुनरहर्मुखकृत्यतुल्यां
सृष्टिं करोत्यनुदिनं स भवत्प्रसादात् ।
प्राग्ब्राह्मकल्पजनुषां च परायुषां तु
सुप्तप्रबोधनसमास्ति तदाऽपि सृष्टिः ॥3॥
पंचाशदब्दमधुना स्ववयोर्धरूप-
मेकं परार्धमतिवृत्य हि वर्ततेऽसौ ।
तत्रांत्यरात्रिजनितान् कथयामि भूमन्
पश्चाद्दिनावतरणे च भवद्विलासान् ॥4॥
दिनावसानेऽथ सरोजयोनिः
सुषुप्तिकामस्त्वयि सन्निलिल्ये ।
जगंति च त्वज्जठरं समीयु-
स्तदेदमेकार्णवमास विश्वम् ॥5॥
तवैव वेषे फणिराजि शेषे
जलैकशेषे भुवने स्म शेषे ।
आनंदसांद्रानुभवस्वरूपः
स्वयोगनिद्रापरिमुद्रितात्मा ॥6॥
कालाख्यशक्तिं प्रलयावसाने
प्रबोधयेत्यादिशता किलादौ ।
त्वया प्रसुप्तं परिसुप्तशक्ति-
व्रजेन तत्राखिलजीवधाम्ना ॥7॥
चतुर्युगाणां च सहस्रमेवं
त्वयि प्रसुप्ते पुनरद्वितीये ।
कालाख्यशक्तिः प्रथमप्रबुद्धा
प्राबोधयत्त्वां किल विश्वनाथ ॥8॥
विबुध्य च त्वं जलगर्भशायिन्
विलोक्य लोकानखिलान् प्रलीनान् ।
तेष्वेव सूक्ष्मात्मतया निजांतः -
स्थितेषु विश्वेषु ददाथ दृष्टिम् ॥9॥
ततस्त्वदीयादयि नाभिरंध्रा-
दुदंचितं किंचन दिव्यपद्मम् ।
निलीननिश्शेषपदार्थमाला-
संक्षेपरूपं मुकुलायमानम् ॥10॥
तदेतदंभोरुहकुड्मलं ते
कलेवरात् तोयपथे प्ररूढम् ।
बहिर्निरीतं परितः स्फुरद्भिः
स्वधामभिर्ध्वांतमलं न्यकृंतत् ॥11॥
संफुल्लपत्रे नितरां विचित्रे
तस्मिन् भवद्वीर्यधृते सरोजे ।
स पद्मजन्मा विधिराविरासीत्
स्वयंप्रबुद्धाखिलवेदराशिः ॥12॥
अस्मिन् परात्मन् ननु पाद्मकल्पे
त्वमित्थमुत्थापितपद्मयोनिः ।
अनंतभूमा मम रोगराशिं
निरुंधि वातालयवास विष्णो ॥13॥
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