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Narayaniyam Dashaka 83 (नारायणीयं दशक 83)
नारायणीयं दशक 83 (Narayaniyam Dashaka 83)
रामेऽथ गोकुलगते प्रमदाप्रसक्ते
हूतानुपेतयमुनादमने मदांधे ।
स्वैरं समारमति सेवकवादमूढो
दूतं न्ययुंक्त तव पौंड्रकवासुदेवः ॥1॥
नारायणोऽहमवतीर्ण इहास्मि भूमौ
धत्से किल त्वमपि मामकलक्षणानि ।
उत्सृज्य तानि शरणं व्रज मामिति त्वां
दूतो जगाद सकलैर्हसितः सभायाम् ॥2॥
दूतेऽथ यातवति यादवसैनिकैस्त्वं
यातो ददर्शिथ वपुः किल पौंड्रकीयम् ।
तापेन वक्षसि कृतांकमनल्पमूल्य-
श्रीकौस्तुभं मकरकुंडलपीतचेलम् ॥3॥
कालायसं निजसुदर्शनमस्यतोऽस्य
कालानलोत्करकिरेण सुदर्शनेन ।
शीर्षं चकर्तिथ ममर्दिथ चास्य सेनां
तन्मित्रकाशिपशिरोऽपि चकर्थ काश्याम् ॥4॥
जाल्येन बालकगिराऽपि किलाहमेव
श्रीवासुदेव इति रूढमतिश्चिरं सः ।
सायुज्यमेव भवदैक्यधिया गतोऽभूत्
को नाम कस्य सुकृतं कथमित्यवेयात् ॥5॥
काशीश्वरस्य तनयोऽथ सुदक्षिणाख्यः
शर्वं प्रपूज्य भवते विहिताभिचारः ।
कृत्यानलं कमपि बाण्ररणातिभीतै-
र्भूतैः कथंचन वृतैः सममभ्यमुंचत् ॥6॥
तालप्रमाणचरणामखिलं दहंतीं
कृत्यां विलोक्य चकितैः कथितोऽपि पौरैः ।
द्यूतोत्सवे किमपि नो चलितो विभो त्वं
पार्श्वस्थमाशु विससर्जिथ कालचक्रम् ॥7॥
अभ्यापतत्यमितधाम्नि भवन्महास्त्रे
हा हेति विद्रुतवती खलु घोरकृत्या।
रोषात् सुदक्षिणमदक्षिणचेष्टितं तं
पुप्लोष चक्रमपि काशिपुरीमधाक्षीत् ॥8॥
स खलु विविदो रक्षोघाते कृतोपकृतिः पुरा
तव तु कलया मृत्युं प्राप्तुं तदा खलतां गतः ।
नरकसचिवो देशक्लेशं सृजन् नगरांतिके
झटिति हलिना युध्यन्नद्धा पपात तलाहतः ॥9॥
सांबं कौरव्यपुत्रीहरणनियमितं सांत्वनार्थी कुरूणां
यातस्तद्वाक्यरोषोद्धृतकरिनगरो मोचयामास रामः ।
ते घात्याः पांडवेयैरिति यदुपृतनां नामुचस्त्वं तदानीं
तं त्वां दुर्बोधलीलं पवनपुरपते तापशांत्यै निषेवे ॥10॥
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