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Narayaniyam Dashaka 77 (नारायणीयं दशक 77)
नारायणीयं दशक 77 (Narayaniyam Dashaka 77)
सैरंध्र्यास्तदनु चिरं स्मरातुराया
यातोऽभूः सुललितमुद्धवेन सार्धम् ।
आवासं त्वदुपगमोत्सवं सदैव
ध्यायंत्याः प्रतिदिनवाससज्जिकायाः ॥1॥
उपगते त्वयि पूर्णमनोरथां प्रमदसंभ्रमकंप्रपयोधराम् ।
विविधमाननमादधतीं मुदा रहसि तां रमयांचकृषे सुखम् ॥2॥
पृष्टा वरं पुनरसाववृणोद्वराकी
भूयस्त्वया सुरतमेव निशांतरेषु ।
सायुज्यमस्त्विति वदेत् बुध एव कामं
सामीप्यमस्त्वनिशमित्यपि नाब्रवीत् किम् ॥3॥
ततो भवान् देव निशासु कासुचिन्मृगीदृशं तां निभृतं विनोदयन् ।
अदादुपश्लोक इति श्रुतं सुतं स नारदात् सात्त्वततंत्रविद्बबभौ ॥4॥
अक्रूरमंदिरमितोऽथ बलोद्धवाभ्या-
मभ्यर्चितो बहु नुतो मुदितेन तेन ।
एनं विसृज्य विपिनागतपांडवेय-
वृत्तं विवेदिथ तथा धृतराष्ट्र्चेष्टाम् ॥5॥
विघाताज्जामातुः परमसुहृदो भोजनृपते-
र्जरासंधे रुंधत्यनवधिरुषांधेऽथ मथुराम् ।
रथाद्यैर्द्योर्लब्धैः कतिपयबलस्त्वं बलयुत-
स्त्रयोविंशत्यक्षौहिणि तदुपनीतं समहृथाः ॥6॥
बद्धं बलादथ बलेन बलोत्तरं त्वं
भूयो बलोद्यमरसेन मुमोचिथैनम् ।
निश्शेषदिग्जयसमाहृतविश्वसैन्यात्
कोऽन्यस्ततो हि बलपौरुषवांस्तदानीम् ॥7॥
भग्नः स लग्नहृदयोऽपि नृपैः प्रणुन्नो
युद्धं त्वया व्यधित षोडशकृत्व एवम् ।
अक्षौहिणीः शिव शिवास्य जघंथ विष्णो
संभूय सैकनवतित्रिशतं तदानीम् ॥8॥
अष्टादशेऽस्य समरे समुपेयुषि त्वं
दृष्ट्वा पुरोऽथ यवनं यवनत्रिकोट्या ।
त्वष्ट्रा विधाप्य पुरमाशु पयोधिमध्ये
तत्राऽथ योगबलतः स्वजनाननैषीः ॥9॥
पदभ्यां त्वां पद्ममाली चकित इव पुरान्निर्गतो धावमानो
म्लेच्छेशेनानुयातो वधसुकृतविहीनेन शैले न्यलैषीः ।
सुप्तेनांघ्र्याहतेन द्रुतमथ मुचुकुंदेन भस्मीकृतेऽस्मिन्
भूपायास्मै गुहांते सुललितवपुषा तस्थिषे भक्तिभाजे ॥10॥
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