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Narayaniyam Dashaka 2 (नारायणीयं दशक 2)
नारायणीयं दशक 2 (Narayaniyam Dashaka 2)
सूर्यस्पर्धिकिरीटमूर्ध्वतिलकप्रोद्भासिफालांतरं
कारुण्याकुलनेत्रमार्द्रहसितोल्लासं सुनासापुटम्।
गंडोद्यन्मकराभकुंडलयुगं कंठोज्वलत्कौस्तुभं
त्वद्रूपं वनमाल्यहारपटलश्रीवत्सदीप्रं भजे॥1॥
केयूरांगदकंकणोत्तममहारत्नांगुलीयांकित-
श्रीमद्बाहुचतुष्कसंगतगदाशंखारिपंकेरुहाम् ।
कांचित् कांचनकांचिलांच्छितलसत्पीतांबरालंबिनी-
मालंबे विमलांबुजद्युतिपदां मूर्तिं तवार्तिच्छिदम् ॥2॥
यत्त्त्रैलोक्यमहीयसोऽपि महितं सम्मोहनं मोहनात्
कांतं कांतिनिधानतोऽपि मधुरं माधुर्यधुर्यादपि ।
सौंदर्योत्तरतोऽपि सुंदरतरं त्वद्रूपमाश्चर्यतोऽ-
प्याश्चर्यं भुवने न कस्य कुतुकं पुष्णाति विष्णो विभो ॥3॥
तत्तादृङ्मधुरात्मकं तव वपुः संप्राप्य संपन्मयी
सा देवी परमोत्सुका चिरतरं नास्ते स्वभक्तेष्वपि ।
तेनास्या बत कष्टमच्युत विभो त्वद्रूपमानोज्ञक -
प्रेमस्थैर्यमयादचापलबलाच्चापल्यवार्तोदभूत् ॥4॥
लक्ष्मीस्तावकरामणीयकहृतैवेयं परेष्वस्थिरे-
त्यस्मिन्नन्यदपि प्रमाणमधुना वक्ष्यामि लक्ष्मीपते ।
ये त्वद्ध्यानगुणानुकीर्तनरसासक्ता हि भक्ता जना-
स्तेष्वेषा वसति स्थिरैव दयितप्रस्तावदत्तादरा ॥5॥
एवंभूतमनोज्ञतानवसुधानिष्यंदसंदोहनं
त्वद्रूपं परचिद्रसायनमयं चेतोहरं शृण्वताम् ।
सद्यः प्रेरयते मतिं मदयते रोमांचयत्यंगकं
व्यासिंचत्यपि शीतवाष्पविसरैरानंदमूर्छोद्भवैः ॥6॥
एवंभूततया हि भक्त्यभिहितो योगस्स योगद्वयात्
कर्मज्ञानमयात् भृशोत्तमतरो योगीश्वरैर्गीयते ।
सौंदर्यैकरसात्मके त्वयि खलु प्रेमप्रकर्षात्मिका
भक्तिर्निश्रममेव विश्वपुरुषैर्लभ्या रमावल्लभ ॥7॥
निष्कामं नियतस्वधर्मचरणं यत् कर्मयोगाभिधं
तद्दूरेत्यफलं यदौपनिषदज्ञानोपलभ्यं पुनः ।
तत्त्वव्यक्ततया सुदुर्गमतरं चित्तस्य तस्माद्विभो
त्वत्प्रेमात्मकभक्तिरेव सततं स्वादीयसी श्रेयसी ॥8॥
अत्यायासकराणि कर्मपटलान्याचर्य निर्यन्मला
बोधे भक्तिपथेऽथवाऽप्युचिततामायांति किं तावता ।
क्लिष्ट्वा तर्कपथे परं तव वपुर्ब्रह्माख्यमन्ये पुन-
श्चित्तार्द्रत्वमृते विचिंत्य बहुभिस्सिद्ध्यंति जन्मांतरैः ॥9॥
त्वद्भक्तिस्तु कथारसामृतझरीनिर्मज्जनेन स्वयं
सिद्ध्यंती विमलप्रबोधपदवीमक्लेशतस्तन्वती ।
सद्यस्सिद्धिकरी जयत्ययि विभो सैवास्तु मे त्वत्पद-
प्रेमप्रौढिरसार्द्रता द्रुततरं वातालयाधीश्वर ॥10॥
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