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Narayaniyam Dashaka 59 (नारायणीयं दशक 59)
नारायणीयं दशक 59 (Narayaniyam Dashaka 59)
त्वद्वपुर्नवकलायकोमलं प्रेमदोहनमशेषमोहनम् ।
ब्रह्म तत्त्वपरचिन्मुदात्मकं वीक्ष्य सम्मुमुहुरन्वहं स्त्रियः ॥1॥
मन्मथोन्मथितमानसाः क्रमात्त्वद्विलोकनरतास्ततस्ततः ।
गोपिकास्तव न सेहिरे हरे काननोपगतिमप्यहर्मुखे ॥2॥
निर्गते भवति दत्तदृष्टयस्त्वद्गतेन मनसा मृगेक्षणाः ।
वेणुनादमुपकर्ण्य दूरतस्त्वद्विलासकथयाऽभिरेमिरे ॥3॥
काननांतमितवान् भवानपि स्निग्धपादपतले मनोरमे ।
व्यत्ययाकलितपादमास्थितः प्रत्यपूरयत वेणुनालिकाम् ॥4॥
मारबाणधुतखेचरीकुलं निर्विकारपशुपक्षिमंडलम् ।
द्रावणं च दृषदामपि प्रभो तावकं व्यजनि वेणुकूजितम् ॥5॥
वेणुरंध्रतरलांगुलीदलं तालसंचलितपादपल्लवम् ।
तत् स्थितं तव परोक्षमप्यहो संविचिंत्य मुमुहुर्व्रजांगनाः ॥6॥
निर्विशंकभवदंगदर्शिनीः खेचरीः खगमृगान् पशूनपि ।
त्वत्पदप्रणयि काननं च ताः धन्यधन्यमिति नन्वमानयन् ॥7॥
आपिबेयमधरामृतं कदा वेणुभुक्तरसशेषमेकदा ।
दूरतो बत कृतं दुराशयेत्याकुला मुहुरिमाः समामुहन् ॥8॥
प्रत्यहं च पुनरित्थमंगनाश्चित्तयोनिजनितादनुग्रहात् ।
बद्धरागविवशास्त्वयि प्रभो नित्यमापुरिह कृत्यमूढताम् ॥9॥
रागस्तावज्जायते हि स्वभावा-
न्मोक्षोपायो यत्नतः स्यान्न वा स्यात् ।
तासां त्वेकं तद्द्वयं लब्धमासीत्
भाग्यं भाग्यं पाहि मां मारुतेश ॥10॥
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