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Narayaniyam Dashaka 47 (नारायणीयं दशक 47)
नारायणीयं दशक 47 (Narayaniyam Dashaka 47)
एकदा दधिविमाथकारिणीं मातरं समुपसेदिवान् भवान् ।
स्तन्यलोलुपतया निवारयन्नंकमेत्य पपिवान् पयोधरौ ॥1॥
अर्धपीतकुचकुड्मले त्वयि स्निग्धहासमधुराननांबुजे ।
दुग्धमीश दहने परिस्रुतं धर्तुमाशु जननी जगाम ते ॥2॥
सामिपीतरसभंगसंगतक्रोधभारपरिभूतचेतसा।
मंथदंडमुपगृह्य पाटितं हंत देव दधिभाजनं त्वया ॥3॥
उच्चलद्ध्वनितमुच्चकैस्तदा सन्निशम्य जननी समाद्रुता ।
त्वद्यशोविसरवद्ददर्श सा सद्य एव दधि विस्तृतं क्षितौ ॥4॥
वेदमार्गपरिमार्गितं रुषा त्वमवीक्ष्य परिमार्गयंत्यसौ ।
संददर्श सुकृतिन्युलूखले दीयमाननवनीतमोतवे ॥5॥
त्वां प्रगृह्य बत भीतिभावनाभासुराननसरोजमाशु सा ।
रोषरूषितमुखी सखीपुरो बंधनाय रशनामुपाददे ॥6॥
बंधुमिच्छति यमेव सज्जनस्तं भवंतमयि बंधुमिच्छती ।
सा नियुज्य रशनागुणान् बहून् द्व्यंगुलोनमखिलं किलैक्षत ॥7॥
विस्मितोत्स्मितसखीजनेक्षितां स्विन्नसन्नवपुषं निरीक्ष्य ताम् ।
नित्यमुक्तवपुरप्यहो हरे बंधमेव कृपयाऽन्वमन्यथाः ॥8॥
स्थीयतां चिरमुलूखले खलेत्यागता भवनमेव सा यदा।
प्रागुलूखलबिलांतरे तदा सर्पिरर्पितमदन्नवास्थिथाः ॥9॥
यद्यपाशसुगमो विभो भवान् संयतः किमु सपाशयाऽनया ।
एवमादि दिविजैरभिष्टुतो वातनाथ परिपाहि मां गदात् ॥10॥
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