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Narayaniyam Dashaka 93 (नारायणीयं दशक 93)
नारायणीयं दशक 93 (Narayaniyam Dashaka 93)
बंधुस्नेहं विजह्यां तव हि करुणया त्वय्युपावेशितात्मा
सर्वं त्यक्त्वा चरेयं सकलमपि जगद्वीक्ष्य मायाविलासम् ।
नानात्वाद्भ्रांतिजन्यात् सति खलु गुणदोषावबोधे विधिर्वा
व्यासेधो वा कथं तौ त्वयि निहितमतेर्वीतवैषम्यबुद्धेः ॥1॥
क्षुत्तृष्णालोपमात्रे सततकृतधियो जंतवः संत्यनंता-
स्तेभ्यो विज्ञानवत्त्वात् पुरुष इह वरस्तज्जनिर्दुर्लभैव ।
तत्राप्यात्मात्मनः स्यात्सुहृदपि च रिपुर्यस्त्वयि न्यस्तचेता-
स्तापोच्छित्तेरुपायं स्मरति स हि सुहृत् स्वात्मवैरी ततोऽन्यः ॥2॥
त्वत्कारुण्ये प्रवृत्ते क इव नहि गुरुर्लोकवृत्तेऽपि भूमन्
सर्वाक्रांतापि भूमिर्नहि चलति ततस्सत्क्षमां शिक्षयेयम् ।
गृह्णीयामीश तत्तद्विषयपरिचयेऽप्यप्रसक्तिं समीरात्
व्याप्तत्वंचात्मनो मे गगनगुरुवशाद्भातु निर्लेपता च ॥3
स्वच्छः स्यां पावनोऽहं मधुर उदकवद्वह्निवन्मा स्म गृह्णां
सर्वान्नीनोऽपि दोषं तरुषु तमिव मां सर्वभूतेष्ववेयाम् ।
पुष्टिर्नष्टिः कलानां शशिन इव तनोर्नात्मनोऽस्तीति विद्यां
तोयादिव्यस्तमार्तांडवदपि च तनुष्वेकतां त्वत्प्रसादात् ॥4॥
स्नेहाद्व्याधात्तपुत्रप्रणयमृतकपोतायितो मा स्म भूवं
प्राप्तं प्राश्नन् सहेय क्षुधमपि शयुवत् सिंधुवत्स्यामगाधः ।
मा पप्तं योषिदादौ शिखिनि शलभवत् भृंगवत्सारभागी
भूयासं किंतु तद्वद्धनचयनवशान्माहमीश प्रणेशम् ॥5॥
मा बद्ध्यासं तरुण्या गज इव वशया नार्जयेयं धनौघं
हर्तान्यस्तं हि माध्वीहर इव मृगवन्मा मुहं ग्राम्यगीतैः ।
नात्यासज्जेय भोज्ये झष इव बलिशे पिंगलावन्निराशः
सुप्यां भर्तव्ययोगात् कुरर इव विभो सामिषोऽन्यैर्न हन्यै ॥6॥
वर्तेय त्यक्तमानः सुखमतिशिशुवन्निस्सहायश्चरेयं
कन्याया एकशेषो वलय इव विभो वर्जितान्योन्यघोषः ।
त्वच्चित्तो नावबुध्यै परमिषुकृदिव क्ष्माभृदायानघोषं
गेहेष्वन्यप्रणीतेष्वहिरिव निवसान्युंदुरोर्मंदिरेषु ॥7॥
त्वय्येव त्वत्कृतं त्वं क्षपयसि जगदित्यूर्णनाभात् प्रतीयां
त्वच्चिंता त्वत्स्वरूपं कुरुत इति दृढं शिक्षये पेशकारात् ।
विड्भस्मात्मा च देहो भवति गुरुवरो यो विवेकं विरक्तिं
धत्ते संचिंत्यमानो मम तु बहुरुजापीडितोऽयं विशेषात् ॥8॥
ही ही मे देहमोहं त्यज पवनपुराधीश यत्प्रेमहेतो-
र्गेहे वित्ते कलत्रादिषु च विवशितास्त्वत्पदं विस्मरंति ।
सोऽयं वह्नेश्शुनो वा परमिह परतः सांप्रतंचाक्षिकर्ण-
त्वग्जिह्वाद्या विकर्षंत्यवशमत इतः कोऽपि न त्वत्पदाब्जे ॥9॥
दुर्वारो देहमोहो यदि पुनरधुना तर्हि निश्शेषरोगान्
हृत्वा भक्तिं द्रढिष्ठां कुरु तव पदपंकेरुहे पंकजाक्ष ।
नूनं नानाभवांते समधिगतममुं मुक्तिदं विप्रदेहं
क्षुद्रे हा हंत मा मा क्षिप विषयरसे पाहि मां मारुतेश ॥10॥
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