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Narayaniyam Dashaka 56 (नारायणीयं दशक 56)
नारायणीयं दशक 56 (Narayaniyam Dashaka 56)
रुचिरकंपितकुंडलमंडलः सुचिरमीश ननर्तिथ पन्नगे ।
अमरताडितदुंदुभिसुंदरं वियति गायति दैवतयौवते ॥1॥
नमति यद्यदमुष्य शिरो हरे परिविहाय तदुन्नतमुन्नतम् ।
परिमथन् पदपंकरुहा चिरं व्यहरथाः करतालमनोहरम् ॥2॥
त्वदवभग्नविभुग्नफणागणे गलितशोणितशोणितपाथसि ।
फणिपताववसीदति सन्नतास्तदबलास्तव माधव पादयोः ॥3॥
अयि पुरैव चिराय परिश्रुतत्वदनुभावविलीनहृदो हि ताः ।
मुनिभिरप्यनवाप्यपथैः स्तवैर्नुनुवुरीश भवंतमयंत्रितम् ॥4॥
फणिवधूगणभक्तिविलोकनप्रविकसत्करुणाकुलचेतसा ।
फणिपतिर्भवताऽच्युत जीवितस्त्वयि समर्पितमूर्तिरवानमत् ॥5॥
रमणकं व्रज वारिधिमध्यगं फणिरिपुर्न करोति विरोधिताम् ।
इति भवद्वचनान्यतिमानयन् फणिपतिर्निरगादुरगैः समम् ॥6॥
फणिवधूजनदत्तमणिव्रजज्वलितहारदुकूलविभूषितः ।
तटगतैः प्रमदाश्रुविमिश्रितैः समगथाः स्वजनैर्दिवसावधौ ॥7॥
निशि पुनस्तमसा व्रजमंदिरं व्रजितुमक्षम एव जनोत्करे ।
स्वपति तत्र भवच्चरणाश्रये दवकृशानुररुंध समंततः ॥8॥
प्रबुधितानथ पालय पालयेत्युदयदार्तरवान् पशुपालकान् ।
अवितुमाशु पपाथ महानलं किमिह चित्रमयं खलु ते मुखम् ॥9॥
शिखिनि वर्णत एव हि पीतता परिलसत्यधुना क्रिययाऽप्यसौ ।
इति नुतः पशुपैर्मुदितैर्विभो हर हरे दुरितैःसह मे गदान् ॥10॥
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