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Narayaniyam Dashaka 41 (नारायणीयं दशक 41)
नारायणीयं दशक 41 (Narayaniyam Dashaka 41)
व्रजेश्वरैः शौरिवचो निशम्य समाव्रजन्नध्वनि भीतचेताः ।
निष्पिष्टनिश्शेषतरुं निरीक्ष्य कंचित्पदार्थं शरणं गतस्वाम् ॥1॥
निशम्य गोपीवचनादुदंतं सर्वेऽपि गोपा भयविस्मयांधाः ।
त्वत्पातितं घोरपिशाचदेहं देहुर्विदूरेऽथ कुठारकृत्तम् ॥2॥
त्वत्पीतपूतस्तनतच्छरीरात् समुच्चलन्नुच्चतरो हि धूमः ।
शंकामधादागरवः किमेष किं चांदनो गौल्गुलवोऽथवेति ॥3॥
मदंगसंगस्य फलं न दूरे क्षणेन तावत् भवतामपि स्यात् ।
इत्युल्लपन् वल्लवतल्लजेभ्यः त्वं पूतनामातनुथाः सुगंधिम् ॥4॥
चित्रं पिशाच्या न हतः कुमारः चित्रं पुरैवाकथि शौरिणेदम् ।
इति प्रशंसन् किल गोपलोको भवन्मुखालोकरसे न्यमांक्षीत् ॥5॥
दिनेदिनेऽथ प्रतिवृद्धलक्ष्मीरक्षीणमांगल्यशतो व्रजोऽयम् ।
भवन्निवासादयि वासुदेव प्रमोदसांद्रः परितो विरेजे ॥6॥
गृहेषु ते कोमलरूपहासमिथःकथासंकुलिताः कमन्यः ।
वृत्तेषु कृत्येषु भवन्निरीक्षासमागताः प्रत्यहमत्यनंदन् ॥7॥
अहो कुमारो मयि दत्तदृष्टिः स्मितं कृतं मां प्रति वत्सकेन ।
एह्येहि मामित्युपसार्य पाणी त्वयीश किं किं न कृतं वधूभिः ॥8॥
भवद्वपुःस्पर्शनकौतुकेन करात्करं गोपवधूजनेन ।
नीतस्त्वमाताम्रसरोजमालाव्यालंबिलोलंबतुलामलासीः ॥9॥
निपाययंती स्तनमंकगं त्वां विलोकयंती वदनं हसंती ।
दशां यशोदा कतमां न भेजे स तादृशः पाहि हरे गदान्माम् ॥10॥
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