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Narayaniyam Dashaka 4 (नारायणीयं दशक 4 )
नारायणीयं दशक 4 (Narayaniyam Dashaka 4)
कल्यतां मम कुरुष्व तावतीं कल्यते भवदुपासनं यया ।
स्पष्टमष्टविधयोगचर्यया पुष्टयाशु तव तुष्टिमाप्नुयाम् ॥1॥
ब्रह्मचर्यदृढतादिभिर्यमैराप्लवादिनियमैश्च पाविताः ।
कुर्महे दृढममी सुखासनं पंकजाद्यमपि वा भवत्पराः ॥2॥
तारमंतरनुचिंत्य संततं प्राणवायुमभियम्य निर्मलाः ।
इंद्रियाणि विषयादथापहृत्यास्महे भवदुपासनोन्मुखाः ॥3॥
अस्फुटे वपुषि ते प्रयत्नतो धारयेम धिषणां मुहुर्मुहुः ।
तेन भक्तिरसमंतरार्द्रतामुद्वहेम भवदंघ्रिचिंतका ॥4॥
विस्फुटावयवभेदसुंदरं त्वद्वपुः सुचिरशीलनावशात् ।
अश्रमं मनसि चिंतयामहे ध्यानयोगनिरतास्त्वदाश्रयाः ॥5॥
ध्यायतां सकलमूर्तिमीदृशीमुन्मिषन्मधुरताहृतात्मनाम् ।
सांद्रमोदरसरूपमांतरं ब्रह्म रूपमयि तेऽवभासते ॥6॥
तत्समास्वदनरूपिणीं स्थितिं त्वत्समाधिमयि विश्वनायक ।
आश्रिताः पुनरतः परिच्युतावारभेमहि च धारणादिकम् ॥7॥
इत्थमभ्यसननिर्भरोल्लसत्त्वत्परात्मसुखकल्पितोत्सवाः ।
मुक्तभक्तकुलमौलितां गताः संचरेम शुकनारदादिवत् ॥8॥
त्वत्समाधिविजये तु यः पुनर्मंक्षु मोक्षरसिकः क्रमेण वा ।
योगवश्यमनिलं षडाश्रयैरुन्नयत्यज सुषुम्नया शनैः ॥9॥
लिंगदेहमपि संत्यजन्नथो लीयते त्वयि परे निराग्रहः ।
ऊर्ध्वलोककुतुकी तु मूर्धतः सार्धमेव करणैर्निरीयते ॥10॥
अग्निवासरवलर्क्षपक्षगैरुत्तरायणजुषा च दैवतैः ।
प्रापितो रविपदं भवत्परो मोदवान् ध्रुवपदांतमीयते ॥11॥
आस्थितोऽथ महरालये यदा शेषवक्त्रदहनोष्मणार्द्यते ।
ईयते भवदुपाश्रयस्तदा वेधसः पदमतः पुरैव वा ॥12॥
तत्र वा तव पदेऽथवा वसन् प्राकृतप्रलय एति मुक्तताम् ।
स्वेच्छया खलु पुरा विमुच्यते संविभिद्य जगदंडमोजसा ॥13॥
तस्य च क्षितिपयोमहोऽनिलद्योमहत्प्रकृतिसप्तकावृतीः ।
तत्तदात्मकतया विशन् सुखी याति ते पदमनावृतं विभो ॥14॥
अर्चिरादिगतिमीदृशीं व्रजन् विच्युतिं न भजते जगत्पते ।
सच्चिदात्मक भवत् गुणोदयानुच्चरंतमनिलेश पाहि माम् ॥15॥
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