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Narayaniyam Dashaka 3 (नारायणीयं दशक 3)
नारायणीयं दशक 3 (Narayaniyam Dashaka 3)
पठंतो नामानि प्रमदभरसिंधौ निपतिताः
स्मरंतो रूपं ते वरद कथयंतो गुणकथाः ।
चरंतो ये भक्तास्त्वयि खलु रमंते परममू-
नहं धन्यान् मन्ये समधिगतसर्वाभिलषितान् ॥1॥
गदक्लिष्टं कष्टं तव चरणसेवारसभरेऽ-
प्यनासक्तं चित्तं भवति बत विष्णो कुरु दयाम् ।
भवत्पादांभोजस्मरणरसिको नामनिवहा-
नहं गायं गायं कुहचन विवत्स्यामि विजने ॥2॥
कृपा ते जाता चेत्किमिव न हि लभ्यं तनुभृतां
मदीयक्लेशौघप्रशमनदशा नाम कियती ।
न के के लोकेऽस्मिन्ननिशमयि शोकाभिरहिता
भवद्भक्ता मुक्ताः सुखगतिमसक्ता विदधते ॥3॥
मुनिप्रौढा रूढा जगति खलु गूढात्मगतयो
भवत्पादांभोजस्मरणविरुजो नारदमुखाः ।
चरंतीश स्वैरं सततपरिनिर्भातपरचि -
त्सदानंदाद्वैतप्रसरपरिमग्नाः किमपरम् ॥4॥
भवद्भक्तिः स्फीता भवतु मम सैव प्रशमये-
दशेषक्लेशौघं न खलु हृदि संदेहकणिका ।
न चेद्व्यासस्योक्तिस्तव च वचनं नैगमवचो
भवेन्मिथ्या रथ्यापुरुषवचनप्रायमखिलम् ॥5॥
भवद्भक्तिस्तावत् प्रमुखमधुरा त्वत् गुणरसात्
किमप्यारूढा चेदखिलपरितापप्रशमनी ।
पुनश्चांते स्वांते विमलपरिबोधोदयमिल-
न्महानंदाद्वैतं दिशति किमतः प्रार्थ्यमपरम् ॥6॥
विधूय क्लेशान्मे कुरु चरणयुग्मं धृतरसं
भवत्क्षेत्रप्राप्तौ करमपि च ते पूजनविधौ ।
भवन्मूर्त्यालोके नयनमथ ते पादतुलसी-
परिघ्राणे घ्राणं श्रवणमपि ते चारुचरिते ॥7॥
प्रभूताधिव्याधिप्रसभचलिते मामकहृदि
त्वदीयं तद्रूपं परमसुखचिद्रूपमुदियात् ।
उदंचद्रोमांचो गलितबहुहर्षाश्रुनिवहो
यथा विस्मर्यासं दुरुपशमपीडापरिभवान् ॥8॥
मरुद्गेहाधीश त्वयि खलु परांचोऽपि सुखिनो
भवत्स्नेही सोऽहं सुबहु परितप्ये च किमिदम् ।
अकीर्तिस्ते मा भूद्वरद गदभारं प्रशमयन्
भवत् भक्तोत्तंसं झटिति कुरु मां कंसदमन ॥9॥
किमुक्तैर्भूयोभिस्तव हि करुणा यावदुदिया-
दहं तावद्देव प्रहितविविधार्तप्रलपितः ।
पुरः क्लृप्ते पादे वरद तव नेष्यामि दिवसा-
न्यथाशक्ति व्यक्तं नतिनुतिनिषेवा विरचयन् ॥10॥
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