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Shri Durga Nakshatra Malika Stuti || श्री दुर्गा नक्षत्र मालिका स्तुति : Full Lyrics and Meaning for Divine Protection
Shri Durga Nakshatra Malika Stuti (श्री दुर्गा नक्षत्र मालिका स्तुति)
Shri Durga Nakshatra Malika Stuti देवी दुर्गा की महिमा का वर्णन करती है, जो "Goddess of Power" और "Divine Protector" के रूप में पूजित हैं। यह स्तुति विशेष रूप से नक्षत्रों के माध्यम से देवी दुर्गा की "Divine Energies" और "Cosmic Power" का आह्वान करती है। देवी दुर्गा को "Supreme Goddess" और "Destroyer of Evil" माना जाता है, जो हर संकट और बाधा से रक्षा करती हैं। Shri Durga Nakshatra Malika Stuti का पाठ "Spiritual Protection Prayer" और "Divine Strength Hymn" के रूप में किया जाता है। इसके जाप से जीवन में "Positive Energy" का संचार होता है और व्यक्ति को मानसिक शांति मिलती है। यह स्तोत्र "Goddess Durga Blessings" और "Victory over Obstacles Mantra" के रूप में भी अत्यंत प्रभावी है। इसका नियमित पाठ आत्मविश्वास, आंतरिक शक्ति और आध्यात्मिक जागरूकता को बढ़ाता है। Shri Durga Nakshatra Malika Stuti को "Divine Protection Chant" और "Spiritual Energy Prayer" के रूप में पढ़ने से जीवन में समृद्धि और सफलता मिलती है। देवी दुर्गा की कृपा से भक्तों के जीवन में सुख और शांति का संचार होता है।|| श्री दुर्गा नक्षत्र मालिका स्तुति ||
(Shri Durga Nakshatra Malika Stuti)
विराटनगरं रम्यं गच्छमानो युधिष्ठिरः ।
अस्तुवन्मनसा देवीं दुर्गां त्रिभुवनेश्वरीम् ॥ 1 ॥
यशोदागर्भसम्भूतां नारायणवरप्रियाम् ।
नन्दगोपकुलेजातां मङ्गल्यां कुलवर्धनीम् ॥ 2 ॥
कंसविद्रावणकरीं असुराणां क्षयङ्करीम् ।
शिलातटविनिक्षिप्तां आकाशं प्रतिगामिनीम् ॥ 3 ॥
वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्य विभूषिताम् ।
दिव्याम्बरधरां देवीं खड्गखेटकधारिणीम् ॥ 4 ॥
भारावतरणे पुण्ये ये स्मरन्ति सदाशिवाम् ।
तान्वै तारयते पापात् पङ्केगामिव दुर्बलाम् ॥ 5 ॥
स्तोतुं प्रचक्रमे भूयो विविधैः स्तोत्रसम्भवैः ।
आमन्त्र्य दर्शनाकाङ्क्षी राजा देवीं सहानुजः ॥ 6 ॥
नमोऽस्तु वरदे कृष्णे कुमारि ब्रह्मचारिणि ।
बालार्क सदृशाकारे पूर्णचन्द्रनिभानने ॥ 7 ॥
चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रे पीनश्रोणिपयोधरे ।
मयूरपिञ्छवलये केयूराङ्गदधारिणि ॥ 8 ॥
भासि देवि यदा पद्मा नारायणपरिग्रहः ।
स्वरूपं ब्रह्मचर्यं च विशदं तव खेचरि ॥ 9 ॥
कृष्णच्छविसमा कृष्णा सङ्कर्षणसमानना ।
बिभ्रती विपुलौ बाहू शक्रध्वजसमुच्छ्रयौ ॥ 10 ॥
पात्री च पङ्कजी कण्ठी स्त्री विशुद्धा च या भुवि ।
पाशं धनुर्महाचक्रं विविधान्यायुधानि च ॥ 11 ॥
कुण्डलाभ्यां सुपूर्णाभ्यां कर्णाभ्यां च विभूषिता ।
चन्द्रविस्पार्धिना देवि मुखेन त्वं विराजसे ॥ 12 ॥
मुकुटेन विचित्रेण केशबन्धेन शोभिना ।
भुजङ्गाऽभोगवासेन श्रोणिसूत्रेण राजता ॥ 13 ॥
भ्राजसे चावबद्धेन भोगेनेवेह मन्दरः ।
ध्वजेन शिखिपिञ्छानां उच्छ्रितेन विराजसे ॥ 14 ॥
कौमारं व्रतमास्थाय त्रिदिवं पावितं त्वया ।
तेन त्वं स्तूयसे देवि त्रिदशैः पूज्यसेऽपि च ॥ 15 ॥
त्रैलोक्य रक्षणार्थाय महिषासुरनाशिनि ।
प्रसन्ना मे सुरश्रेष्ठे दयां कुरु शिवा भव ॥ 16 ॥
जया त्वं विजया चैव सङ्ग्रामे च जयप्रदा ।
ममाऽपि विजयं देहि वरदा त्वं च साम्प्रतम् ॥ 17 ॥
विन्ध्ये चैव नगश्रेष्टे तव स्थानं हि शाश्वतम् ।
कालि कालि महाकालि सीधुमांस पशुप्रिये ॥ 18 ॥
कृतानुयात्रा भूतैस्त्वं वरदा कामचारिणि ।
भारावतारे ये च त्वां संस्मरिष्यन्ति मानवाः ॥ 19 ॥
प्रणमन्ति च ये त्वां हि प्रभाते तु नरा भुवि ।
न तेषां दुर्लभं किञ्चित् पुत्रतो धनतोऽपि वा ॥ 20 ॥
दुर्गात्तारयसे दुर्गे तत्वं दुर्गा स्मृता जनैः ।
कान्तारेष्ववपन्नानां मग्नानां च महार्णवे ॥ 21 ॥
(दस्युभिर्वा निरुद्धानां त्वं गतिः परमा नृणाम)
जलप्रतरणे चैव कान्तारेष्वटवीषु च ।
ये स्मरन्ति महादेवीं न च सीदन्ति ते नराः ॥ 22 ॥
त्वं कीर्तिः श्रीर्धृतिः सिद्धिः ह्रीर्विद्या सन्ततिर्मतिः ।
सन्ध्या रात्रिः प्रभा निद्रा ज्योत्स्ना कान्तिः क्षमा दया ॥ 23 ॥
नृणां च बन्धनं मोहं पुत्रनाशं धनक्षयम् ।
व्याधिं मृत्युं भयं चैव पूजिता नाशयिष्यसि ॥ 24 ॥
सोऽहं राज्यात्परिभ्रष्टः शरणं त्वां प्रपन्नवान् ।
प्रणतश्च यथा मूर्ध्ना तव देवि सुरेश्वरि ॥ 25 ॥
त्राहि मां पद्मपत्राक्षि सत्ये सत्या भवस्व नः ।
शरणं भव मे दुर्गे शरण्ये भक्तवत्सले ॥ 26 ॥
एवं स्तुता हि सा देवी दर्शयामास पाण्डवम् ।
उपगम्य तु राजानमिदं वचनमब्रवीत् ॥ 27 ॥
शृणु राजन् महाबाहो मदीयं वचनं प्रभो ।
भविष्यत्यचिरादेव सङ्ग्रामे विजयस्तव ॥ 28 ॥
मम प्रसादान्निर्जित्य हत्वा कौरव वाहिनीम् ।
राज्यं निष्कण्टकं कृत्वा भोक्ष्यसे मेदिनीं पुनः ॥ 29 ॥
भ्रातृभिः सहितो राजन् प्रीतिं प्राप्स्यसि पुष्कलाम् ।
मत्प्रसादाच्च ते सौख्यं आरोग्यं च भविष्यति ॥ 30 ॥
ये च सङ्कीर्तयिष्यन्ति लोके विगतकल्मषाः ।
तेषां तुष्टा प्रदास्यामि राज्यमायुर्वपुस्सुतम् ॥ 31 ॥
प्रवासे नगरे चापि सङ्ग्रामे शत्रुसङ्कटे ।
अटव्यां दुर्गकान्तारे सागरे गहने गिरौ ॥ 32 ॥
ये स्मरिष्यन्ति मां राजन् यथाहं भवता स्मृता ।
न तेषां दुर्लभं किञ्चिदस्मिन् लोके भविष्यति ॥ 33 ॥
य इदं परमस्तोत्रं भक्त्या शृणुयाद्वा पठेत वा ।
तस्य सर्वाणि कार्याणि सिध्धिं यास्यन्ति पाण्डवाः ॥ 34 ॥
मत्प्रसादाच्च वस्सर्वान् विराटनगरे स्थितान् ।
न प्रज्ञास्यन्ति कुरवः नरा वा तन्निवासिनः ॥ 35 ॥
इत्युक्त्वा वरदा देवी युधिष्ठिरमरिन्दमम् ।
रक्षां कृत्वा च पाण्डूनां तत्रैवान्तरधीयत ॥ 38 ॥
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